बिहार उत्तर प्रदेश पर असली नज़र है

बिहार उत्तर प्रदेश पर असली नज़र है
सवाल नेतृत्व का है बौद्धिक पलायन और अयोग्य प्रतिनिधित्व का।
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वैसे देखा जाए तो पूर्वांचल की उपस्थिति संसद में यादवों के हिसाब से 'ना' के बराबर है, यह अलग बात है कि श्री धर्मेंद्र यादव जी आजमगढ़ से सांसद है, वैसे तो आजमगढ़ से और भी यादव सांसद हुए हैं (उनके चित्र कि यहां जरूरत नहीं समझा) जौनपुर से कई यादव सांसद हुए हैं बनारस से भी चंदौली से भी बगल के अन्य जिलों से भी बहुत सारे ऐसे नाम है।
लेकिन जो सबसे आश्चर्यजनक खबर है वह यह है जिसको नीचे संलग्न खबर में अखबार नवीश ने उठाया है जिसपर पहले भी सवाल खड़े हुए हैं ?
जहां तक किसी क्षेत्र से वहां के प्रतिनिधियों के त्याग का सवाल है, यह पुरानी कहावत है वह पड़ोसी के घर से ही होना चाहिए चाहे वह नेता या वह व्यक्ति जो ऐसा कहता है करता है वह स्वंय ऐसा क्यों नहीं कर सकता।
समय का चक्र है की पूर्वांचल देश की संसद में अपने प्रतिनिधि के रूप में उधार के प्रतिनिधियों से प्रतिनिधित्व पा रहा है, जिन लोगों के चित्र यहाँ लगाए गए हैं वह पूर्वांचल की प्रतिभाशाली रहे हैं उनमें से अधिकांश लोग कांग्रेस या कम्युनिस्ट पार्टी के जनप्रतिनिधि रहे हैं. जिसमें वह लोग भी हैं जो बहुजन समाज के अनेकों ऐसे और लोग हुए हैं जिन्होंने पहले भी भारत की संसद के लिए प्रतिनिधित्व का नेतृत्व किया है।
आज सवाल यह नहीं है कि श्री अखिलेश यादव जी ने पीडीए के माध्यम से जो सफलता हासिल की है उसकी मैं किसी रूप में बुराई कर रहा हूं। लेकिन मेरा ख्याल है कि इसको और बेहतर तरीके से किया जा सकता था जिसमें प्रदेश के यादवों का और नेतृत्व कराया जा सकता था। जो इस समीकरण को कहीं से भी कमजोर नहीं करता, प्रतिनिधित्व के सवाल पर फेर बदल हो सकता था और लोगों को भी शामिल कर पीडीए को विस्तृत और विस्तारित किया जा सकता था।
नाम लेकर बताना शायद उन लोगों को अच्छा न लगे जो उससे लाभान्वित हुए हैं लेकिन आम आदमी के मुंह से यही चर्चा आती है कि पिता, पुत्र, पुत्री जैसे विवाद से भी बचा जा सकता था।
आज उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अपने कुकर्मों की वजह से जिस हालत में पहुंच गई है उसी का लाभ उठाकर बीजेपी उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में सीना तानने की शक्ति के रूप में दिखाई देती है जिसका इस चुनाव में कुछ मानमर्दन हुआ है। इस मानमर्दन के पीछे जनता के उत्साह का बहुत बड़ा हाथ है, जिसे यदि किसी राजनेता को यह लगता हो कि उसने कोई जादू कर दिया है तो यह आम आदमी स्वीकार करने को तैयार नहीं है। राजनीतिज्ञ विशेषज्ञ भी इसी बात को महत्व देते हैं।
जिन लोगों से इस चुनाव में लड़ना था उनसे लड़ता हुआ विपक्ष नजर नहीं आ रहा था लेकिन जनता के उत्साह ने उन्हें कमजोर किया और विपक्ष को ताकत दिया।
इसके उलट बिहार में जो हुआ वहां से भी बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।
यदि समय रहते व्यापक रूप से इस पर विचार नहीं किया गया तो आने वाले दिनों में ऐसा नहीं है कि जिनको आज हम कमजोर मान रहे हैं, जो हर तरह से सत्ता के लिए देश को तहस-नहस कर रहे हैं, उनके खिलाफ जनता कहीं यह महसूस न करने लगे कि यह तो और खराब लोग हैं। यह सवाल उनको बहुत ताकत देगा जो इनमें फुट डालने की टाक में रहते हैं।
आईए सांस्कृतिक विचार के लोगों को इकट्ठा करके ऐसे कार्यक्रम प्रस्तुत कर उन बिंदुओं को चिन्हित करें, जिनसे आपको सांस्कृतिक रूप से गुलाम बनाया जाता है और उसी की परम्परा में अखंड-पाखण्ड, अंधविश्वास और चमत्कार की राजनीति की जाती है।
जिस दिन आम आदमी इन सारे प्रतीकों के बारे में जान जाएगा उस दिन असली राजनीति शुरू होगी। यही असली राजनीती होगी जिससे संविधान की रक्षा होगी।
तब फिर से राजनीति समझने वाले लोगों का राजनीती में आगमन होगा और गुमराह करने की राजनेताओं की नीति का सही मूल्यांकन और सही प्रतिनिधित्व पर जोर देगी। ऐसा करने के लिए जनता को बहुत सजग होना पड़ेगा पुनः उसके लिए आंदोलन शुरू करने होंगे।
(नोट : इस आलेख में पूर्वांचल के तत्कालीन नेताओं को लिया गया है जबकि उत्तर प्रदेश में ऐसे अनेक नेता जिन्होंने सामाजिक क्रांति को बहुत ही महत्व दिया है और बहुजन समाज के लोगों को एकजुट रखा है हमारे इतिहास में मौजूद हैं वर्तमान समय में जिस तरह की राजनीति की जा रही है उसे राजनीति के और बहुत सारे विकल्प हैं जिनका प्रयोग किया जाना चाहिए लेकिन संभवत हुआ है उनकी समझ में नहीं आ रहा है जिनको इस तरह के फैसले लेने की जरूरत है)
राजनीति में आज: संसद राम मंदिर पर चर्चा के लिए तैयार है, विपक्ष कैसे प्रतिक्रिया देगा?
साथ ही, अमित शाह ऐसे समय में कर्नाटक में होंगे जब भाजपा-जद(एस) की बातचीत अंतिम चरण में है, और बिहार भाजपा महत्वपूर्ण विश्वास मत से पहले अपने विधायकों के लिए एक कार्यशाला आयोजित करेगी।
संसद का बजट सत्र शनिवार को समाप्त हो गया, जिसमें दोनों सदनों ने अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की देखरेख के लिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को धन्यवाद देने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया, जिसका उद्घाटन 22 जनवरी को हुआ था। भाजपा का एक दीर्घकालिक वैचारिक लक्ष्य, उम्मीद है कि आगामी लोकसभा चुनावों के लिए पार्टी के संदेश में मंदिर एक प्रमुख भूमिका निभाएगा।
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भाजपा सांसद सत्यपाल सिंह और शिवसेना सांसद श्रीकांत एकनाथ शिंदे मंदिर पर चर्चा शुरू करने के लिए तैयार हैं, यह देखना होगा कि विपक्षी दल इस पर क्या प्रतिक्रिया देते हैं, क्योंकि कांग्रेस सहित भारत के अधिकांश शीर्ष नेता या तो दूर रहे। घटना से या मुद्दे पर चुप थे।
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संकल्प के अलावा, राज्यसभा शनिवार को भाजपा के सत्ता में आने से पहले और बाद में भारतीय अर्थव्यवस्था पर श्वेत पत्र पर भी चर्चा करेगी, जैसा कि लिज़ मैथ्यू ने बताया है। यह पेपर भाजपा और कांग्रेस के बीच टकराव का मुद्दा बन गया है, सत्तारूढ़ दल गुरुवार को संसद में पेश किए गए 59 पन्नों के दस्तावेज़ के इर्द-गिर्द चुनावों के लिए एक कहानी तैयार करने के लिए तैयार है।
राज्यों में बीजेपी की चुनावी तैयारी
शनिवार को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के अन्य कार्यक्रमों के अलावा पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक में भाग लेने के लिए कर्नाटक पहुंचने की उम्मीद है। शाह की यात्रा ऐसे समय में हो रही है जब भाजपा और जद (एस) लोकसभा चुनावों के लिए सीट-बंटवारे की बातचीत के अंतिम चरण में हैं, जैसा कि अकरम एम ने बताया है। जद (एस) के सदस्यों को कौन सी सीटें मिलेंगी, इस पर कुछ सवाल बने हुए हैं। पहला परिवार चुनाव लड़ेगा.
उत्तर प्रदेश में, जाट नेता जयंत चौधरी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) ने पश्चिमी यूपी में भाजपा के साथ समझौते का संकेत दिया है, जिनके दादा और पूर्व पीएम चौधरी चरण सिंह को शुक्रवार को मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया था।
जयंत कहते हैं, दिल जीत लिया, पश्चिमी यूपी में बीजेपी के साथ समझौते के संकेत
इस बीच, भाजपा का अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ शनिवार को पश्चिम यूपी के 23 लोकसभा क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाताओं तक पहुंचने के लिए "कौमी चौपाल" अभियान शुरू करेगा। चूंकि भाजपा आरएलडी के साथ हाथ मिलाकर अपने जाट वोटों को मजबूत करने का प्रयास कर रही है, इसलिए उसे उम्मीद होगी कि उसकी अतिरिक्त मुस्लिम पहुंच समाजवादी पार्टी (एसपी) की संभावनाओं को कम कर सकती है जो यादवों और मुसलमानों के वोटों पर निर्भर है।
इस बीच, भाजपा के बिहार विधायक बोधगया में शनिवार से शुरू होने वाली दो दिवसीय कार्यशाला में भाग लेने के लिए तैयार हैं, ताकि पार्टी सोमवार को विधानसभा विश्वास मत से पहले अपने विधायकों को जानकारी दे सके। राजद और भाजपा दोनों ने विधायकों की खरीद-फरोख्त के प्रयासों का संकेत दिया है और माइंड गेम खेल रहे हैं। जैसे-जैसे निर्णायक मतदान नजदीक आएगा जुबानी जंग और तेज होने की संभावना है।
जारांगे-पाटिल का अल्टीमेटम
महाराष्ट्र में, मराठा आरक्षण कार्यकर्ता मनोज जारांगे-पाटिल ने धमकी दी है कि अगर सरकार उन लोगों के रक्त संबंधियों को कुनबी जाति प्रमाण पत्र जारी करने के अपने वादे को लागू नहीं करती है, जिन्होंने पहले से ही खुद को समुदाय से संबंधित के रूप में स्थापित किया है, तो वे शनिवार से एक और भूख हड़ताल शुरू करेंगे। यह निर्णय राज्य मंत्री और ओबीसी नेता छगन भुजबल के विरोध के बीच आया है, जो दावा करते हैं कि मराठों को ओबीसी कोटा में "पिछले दरवाजे से प्रवेश" दिया जाएगा।
इस बीच, नागपुर में, आदिवासी गोवारी गोंड समुदाय शनिवार को एक बैठक आयोजित करने और सरकार द्वारा जाति प्रमाण पत्र की उनकी मांगों को पूरा नहीं करने पर "आंदोलन तेज" करने के लिए तैयार है।
मनोज जारांगे पाटिल: जब तक सभी मराठों को आरक्षण नहीं मिल जाता तब तक आंदोलन जारी रहेगा
राजनीतिक मोर्चे पर, कांग्रेस की मुंबई इकाई में राज्य के पूर्व मंत्री और तीन बार के विधायक बाबा सिद्दीकी के शनिवार को अजीत पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में शामिल होने को लेकर मंथन चल रहा है।
सिद्दीकी का बाहर निकलना पूर्व केंद्रीय मंत्री मिलिंद देवड़ा के हाई-प्रोफाइल इस्तीफे के बाद हुआ है, जो सीएम एकनाथ शिंदे की शिवसेना में शामिल होने के लिए चले गए थे। पार्टी में एक प्रमुख मुस्लिम चेहरा, सिद्दीकी के बाहर निकलने से लोकसभा चुनाव के लिए महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सहयोगियों के साथ महत्वपूर्ण सीट-बंटवारे की बातचीत से पहले शहर की कांग्रेस इकाई की ताकत और कम हो जाएगी।
-पीटीआई इनपुट के साथ
Indian Express
गणतंत्र मर चुका है और BJP-RSS को जिम्मेदार ठहराने का मतलब नहीं, हमें नई राजनीतिक भाषा की जरूरत है
भारत में अब एक नया संविधान है जिसमें हर लक्ष्मण रेखा बहुसंख्यक समुदाय खींचता है और जिसे सरकार का कोई भी अंग पार नहीं कर सकता है.
अंग्रेजी की कहावत है: किंग इज डेड, लॉन्ग लिव द किंग” (`राजन नहीं रहे, राजन जिन्दाबाद`). इसी तर्ज पर 26 जनवरी को हमारा राष्ट्रीय उद्घोष होना चाहिए: गणतंत्र न रहा आबाद , गणतंत्र जिन्दाबाद!भारत नामक जो गणराज्य 26 जनवरी 1950 को बना था वह बीते 22 जनवरी 2024 को ध्वस्त हो गया. यह प्रक्रिया लंबे समय से जारी थी. मैं कुछ सालों से ‘गणतंत्र के अंत’ की बात कहता आ रहा था. लेकिन अब हम गणतंत्र के खात्मे की एक निश्चित तारीख भी बता सकते हैं. अब हम एक नई राजनीतिक व्यवस्था में जी रहे हैं. जो लोग इस नई व्यवस्था में अवसर ढूंढ़ रहे हैं उन्होंने नये खेल के नियमों को अगर अब तक न अपनाया होगा तो आगे के दिनों में तेजी से अपना लेंगे. हम जैसे लोगों के पास जो अपने पहले गणतंत्र पर दावा जताने को प्रतिबद्ध हैं सिवाय इसके कोई और विकल्प नहीं कि हम अपनी राजनीति पर मूलगामी अर्थों में पुनर्विचार करें. हमारी जरूरत सियासत की एक नई भाषा गढ़ने की है—एक ऐसी भाषा जिसके सहारे हम अपने गणतांत्रिक मूल्यों की ज्यादा मजबूती और धारदार तरीके से हिफाजत और हिमायत कर सकें. हमें अपनी राजनीतिक रणनीति को हर हाल में बदलना और अपने सियासी रिश्तों की चिनाई-बिनाई पर नये सिरे से काम करना होगा— पुराने तर्ज के संसदीय विरोध की जगह सड़क के प्रतिरोध की राजनीति की राह अपनानी होगी.
इसे लेकर कोई गफलत में रहने की जरूरत नहीं. प्राण-प्रतिष्ठा समारोह का रिश्ता किसी मूर्ति, भगवान राम या फिर राम मंदिर से कत्तई नहीं था. उस समारोह का रिश्ता किसी मर्यादा, आस्था या धर्म से भी नहीं था. वह समारोह दरअसल कई सांवैधानिक, राजनीतिक और धार्मिक मर्यादाओं के उल्लंघन का समारोह था. इस प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के साथ जुड़ी करोड़ों लोगों की आस्था के अपहरण का आयोजन था. धर्म और राजसत्ता के रिश्ते की धुरी पलटने का अवसर था, चूंकि इस समारोह ने हिन्दू धर्म को राजनीति का खिलौना बना दिया. अपनी पृष्ठभूमि, अपनी बनावट, लामबंदी के अपने मिज़ाज और असर के एतबार से 22 जनवरी का समारोह एक सियासी समारोह था जिसका मकसद राजनीतिक जीत के मंसूबे बांधना, उसके लिए हड़बोंग मचाना और सियासी जीत की राह साफ करना था. दरअसल यह उस`हिन्दू राष्ट्र` की प्राण-प्रतिष्ठा का समारोह था जहां न परंपरा-सम्मत हिन्दू धर्म ही मौजूद है और न ही वह ‘राष्ट्र’ जो भारतीय राष्ट्रवाद की वैचारिक चौहद्दी में परिभाषित होता है.
हमारे पास अब एक नया संविधान है— एक नये दस्तावेज की शक्ल में नहीं बल्कि राजनीतिक सत्ता के एक नये व्याकरण के रूप में जिसमें बीते एक दशक के दौरान हुए बदलावों को सूत्रबद्ध कर दिया गया है. मूल संविधान में तो अल्पसंख्यकों के अधिकार को एक सीमा-रेखा के रूप में स्वीकार किया गया है जो यह तय करती है कि लोकतांत्रिक रीति से चुनी गई कोई सरकार क्या नहीं कर सकती. लेकिन नये संविधान में बहुसंख्यक समुदाय की मर्जी वह लक्ष्मण-रेखा है जिसका उल्लंघन राज्य की कोई भी संस्था नहीं कर सकती, चाहे मूल संविधान में कुछ भी लिखा हो. अब हमारे देश में दु-छत्ती नागरिकता की व्यवस्था होगी जिसमें हिन्दू और हिन्दुओं के सहवर्ती मकान मालिक हैं जबकि मुसलमान और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक किरायेदार की तरह. देश के असली संविधान में भारत को ‘राज्यों का संघ’ बताया गया है लेकिन इसकी जगह अब एकल सरकार स्थापित हो गई है जो अब प्रांतों को कुछ छोटे मोटे शासकीय काम सौंपा करेगी. कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच ताकत के बंटवारे की जगह शासन की बागडोर कार्यपालिका को थमा दी गई है. यही अधिशासी अब विधायिका के कर्मकांड तय करते हैं और वह चौहद्दी खिंचा करते हैं जिसके भीतर रहकर न्यायपालिका को निर्णय देना है. संसदीय लोकतंत्र का स्थान शासन की राष्ट्रपति-केंद्रित प्रणाली ने नहीं बल्कि एक व्यक्ति के शासन ने ले लिया है, एक ऐसा राजा जिसे जनता ने चुना है— हम एक ऐसी नई राजनीतिक व्यवस्था में रह रहे हैं जिसमें जनता अपने सर्वोच्च नेता को चुनती है और ऐसे चुनाव के बाद सबकुछ उसी नेता पर छोड़ देती है.
इस नये संविधान की अमलदारी को अभी संविधान-सभा का अनुमोदन हासिल नहीं हुआ है. कैबिनेट का प्रस्ताव भले ही इसे भारत की आत्मा की स्वाधीनता का दिवस कहे, हम अब भी 22 जनवरी 2024 को दूसरे गणतंत्र की स्थापना का दिवस नहीं कह सकते. मूल संविधान को औपचारिक रूप से निरस्त करने को रोकने की लड़ाई अभी भी बाकी है. आने वाला लोकसभा चुनाव इस लड़ाई का पहला मोर्चा होगा. लेकिन चुनाव का नतीजा चाहे जो भी निकले, हम इस नई राजनीतिक व्यवस्था की सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते. हम मूलगामी पुनर्विचार की चुनौती को अब आगे के दिनों पर और नहीं टाल सकते.
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हमें शुरूआत इस कड़वे सच को मान कर करनी होगी कि हम स्वयं भारत के प्रथम गणतंत्र की मौत के अपराधी हैं. आरएसएस और बीजेपी को उस बात के लिए दोष देना बेकार है जो उनका मूल मकसद रहता आया है. जिम्मेवारी तो उनकी है जिन्होंने भारत के प्रथम गणतंत्र के प्रति निष्ठा रखने की सौगंध उठायी थी. सेक्युलरवाद का प्रतिबद्धता की राजनीति से धीरे-धीरे ढहकर सुविधा की राजनीति में बदलते जाना हमारे प्रथम गणतंत्र को मटियामेट करने का दोषी है. सेक्युलर राजनीति का औद्धत्य, जनता-जनार्दन से इसका विलगाव, लोगों से उनकी बोली-बानी में बतियाने से उसका इनकार सेक्युलरवाद के विचार को अवैध बनाने का जिम्मेवार है. हम ये बात नहीं भूल सकते कि यह प्राणघाती अघात भरपूर चेतावनी की उस घटना के तीस साल बाद लगा है जिसे बाबरी मस्जिद का विध्वंस कहा जाता है. पूरे तीस साल तक सेक्युलर ढर्रे की राजनीति इस प्रमाद में टालमटोल करती रही कि यह रोग खुद ही गायब हो जायेगा या फिर जाति की राजनीति इसकी काट कर लेगी. यदि सेक्युलर राजनीति आज धूल चाट रही है तो इस दुरवस्था के लिए इसके अपने कर्म-अपकर्म के पाप ही जिम्मेदार हैं.
जो चीज राजनीति के हाथों से गंवायी गई वह चीज राजनीति के हाथों से ही हासिल की जा सकती है. आज हमारे पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं. हम जो मूल संविधान के तरफदार हैं वे अब अपने ही देश में एक संकटग्रस्त विचारधाराई अल्पसंख्यक बनकर रह सकते हैं, जब-तब सांकेतिक विरोध जताकर जी बहला सकते हैं. या फिर हम एक निर्भीक और दमदार गणतांत्रिक राजनीति की प्राण प्रतिष्ठा करें.
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ऐसी गणतांत्रिक राजनीति का दोधारी होना जरूरी है. एक तरफ इस राजनीति को सांस्कृतिक-वैचारिक लड़ाई का रूप लेना होगा. यह लड़ाई लंबी होगी— आगे दो-तीन दशकों तक चलने वाली. इस लड़ाई की शुरूआत भारतीय राष्ट्रवाद, अपनी सभ्यतागत विरासत, अपनी भाषाओं और हिन्दू-धर्म समेत अपनी तमाम परंपराओं पर दावेदारी जताने से होनी चाहिए. इस लड़ाई के पास भारत के लिए एक नया स्वप्न होना चाहिए, सामाजिक पिरामिड के निचले हिस्से के लोगों की आशाओं को मुखरित करती विचारधाराई धुरी होनी चाहिए. इसके लिए हमें बीसवीं सदी के वैचारिक द्वंद्व, मसलन साम्यवादी, समाजवादी और गांधीवादी के बीच का द्वंद्व, को पीछे छोड़ना होगा. हमें बीसवीं सदी के सभी उदार, समतामूलक और उपनिवेश विरोधी विचारों को जोड़कर उनसे एक स्वराज 2.0 जैसी नई विचारधारामें गूंथना होगा.
दूसरी तरफ, हमारे पास नये तर्ज की राजनीति होनी चाहिए. विरोध की राजनीति की जगह प्रतिरोध की राजनीति अपनानी होगी. सामान्य ढर्रे के चुनावी और संसदीय विपक्ष की राजनीति अब सबसे महत्वपूर्ण नहीं है. गणतांत्रिक राजनीति को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा. विभिन्न दलों को बांटने वाली पुरानी लकीर राजनीति की नई दुनिया के लिए प्रासंगिक नहीं. मौजूदा संकट के मद्देनजर सियासी जुड़ाव की जमीन में कुछ ऐसा बदलाव होना चाहिए मानो भू-चाल आया हो और सारा कुछ एक नये रूपाकार में गढ़ा जा रहा हो. जो लोग गणतंत्र की आत्मा के प्रति सच्चे हैं उन्हें आपस में घुल-मिल कर एक राजनीतिक धारा में बदलना होगा. चूंकि चुनाव अब पूर्व-निर्धारित नतीजों वाले जनमत-संग्रह में बदल गये हैं इसलिए संसद की चुनावी राजनीति की बजाय सड़क पर आंदोलन धर्मी प्रतिरोध नई स्थिति में कहीं ज्यादा कारगर है. लेकिन प्रतिरोध की ऐसी राजनीति पर भी दबाव होंगे क्योंकि लोकतांत्रिक रीति से विरोध जताने के जमीन सिकुड़ती जायेगी. प्रतिरोध की राजनीति को नई लेकिन लोकतांत्रिक और अहिंसक राह और नई तरकीब ढूंढ़नी होगी.
इन दिनों सोशल मीडिया पर एक मजाक चल रहा है कि चलो, इस गणतंत्र दिवस का जश्न धूमधाम से मनायें क्योंकि कहीं ऐसा ना हो कि यह आखिरी गणतंत्र दिवस साबित हो. लेकिन विडंबना यह है कि यह चुटकुला जिस लम्हे सोशल मीडिया पर घूमना शुरू हुआ उसी लम्हे यह पुराना भी पड़ चुका था. यह छब्बीस जनवरी अब हमारे लिए एक मृत गणतंत्र की बरसी मनाने का दिन हो सकता है, या फिर देश के प्रथम गणतंत्र पर अपनी दावेदारी पुनः जताने के राष्ट्रीय संकल्प का दिन!
गणतंत्र दिवस मुबारक हो !
(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से एक हैं और राजनीतिक विश्लेषक हैं. उनका एक्स हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
राम मंदिर अभिषेक के साथ, भाजपा ने कैसे नेहरू, अंबेडकर की विरासत को नष्ट कर दिया है - और संविधान को नुकसान पहुंचाया है
संविधान द्वारा गणतंत्र को स्वयं को धर्म से अलग करने का आदेश दिया गया है। भारत के प्रति प्रतिशोधपूर्ण दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने के लिए आरएसएस-भाजपा गठबंधन द्वारा लोगों की आस्था को हथियार बनाया गया है
डी. राजा
यदि मोहन भागवत देश के लिए अपनी मानसिकता थोपना चाहते हैं तो संविधान का क्या होगा ?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने 26 जनवरी को लोगों से 'भाईचारा' (भाईचारा) के साथ रहने का आग्रह किया और कहा कि भारत में कुछ वर्षों में 'विश्व गुरु' (विश्व नेता) बनने की क्षमता है।
पिनाराई विजयन, मुख्यमंत्री, केरल |
इस आयोजन पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए, विजयन, जिनकी पार्टी समारोह में भाग लेने के निमंत्रण को अस्वीकार करने वाली पहली पार्टी थी, ने कहा, “अब, यह उस समय आ गया है जब एक धार्मिक पूजा स्थल के उद्घाटन को एक उत्सव के रूप में मनाया जा रहा है। राज्य घटना. हममें से अधिकांश को अनुष्ठानों में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया है। उन लोगों के रूप में जिन्होंने हमारे संविधान को संरक्षित करने और संरक्षित करने का संकल्प लिया है, आइए हम इस आयोजन में भाग लेने से इनकार करके और अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को निभाकर इसके धर्मनिरपेक्ष चरित्र के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि करें, ”उन्होंने कहा।
“धर्म एक निजी मामला है और भारतीय संविधान ने यह कहने में कोई शब्द नहीं कहा है कि सभी व्यक्ति स्वतंत्र रूप से धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने के अधिकार के समान हकदार हैं। उन लोगों के रूप में जिन्होंने भारत के संविधान को बनाए रखने की शपथ ली है, हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारे क्षेत्र के प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से यह अधिकार प्राप्त हो। साथ ही, हम किसी एक धर्म को अन्य सभी से ऊपर प्रचारित नहीं कर सकते, या किसी एक धर्म को दूसरे धर्म से कमतर नहीं आंक सकते। जैसा कि हमारे पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अक्सर कहा था, भारतीय धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है धर्म और राज्य को अलग करना... यह उस समय से एक बड़ा विचलन है जब हमारे संवैधानिक पदाधिकारी धार्मिक आयोजनों में भाग लेने से सतर्क रहे हैं क्योंकि इससे हमारे ऊपर कलंक लगेगा। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में साख, ”उन्होंने कहा।
विजयन ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता "भारत के लोकतांत्रिक गणराज्य की आत्मा" है। “यह हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के दिनों से ही एक राष्ट्र के रूप में हमारी पहचान का हिस्सा रहा है। जो लोग अलग-अलग धर्मों के थे और जो धर्म का हिस्सा नहीं थे, उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लिया था। यह राष्ट्र समान रूप से सभी लोगों और भारतीय समाज के सभी वर्गों का है।”
दिसंबर में सीपीआई (एम) सोमवार को अभिषेक समारोह में शामिल होने का निमंत्रण ठुकराने वाली पहली विपक्षी पार्टी थी। पार्टी महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा कि यह आयोजन "लोगों की धार्मिक मान्यताओं का सीधा राजनीतिकरण था, जो संविधान के अनुरूप नहीं है।"
“जहां तक भारतीय संविधान और सुप्रीम कोर्ट का सवाल है, उन्होंने बहुत स्पष्ट रूप से कहा है कि राज्य किसी विशेष धर्म को नहीं मानेगा या कोई धार्मिक संबद्धता नहीं रखेगा। इस उद्घाटन समारोह में जो हो रहा है वह यह है कि इसे प्रधान मंत्री, यूपी सीएम और संवैधानिक पदों पर बैठे अन्य लोगों के साथ एक राज्य-प्रायोजित कार्यक्रम में बदल दिया गया है... इसलिए, इन परिस्थितियों में, मुझे इस कार्यक्रम में शामिल नहीं हो पाने का अफसोस है,'' येचुरी पिछले महीने कहा था.
सीपीआई (एम) नेता और पोलित ब्यूरो सदस्य बृंदा करात ने भी एक धार्मिक कार्यक्रम का राजनीतिकरण करने के लिए समारोह की आलोचना की थी। “हम धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करते हैं लेकिन वे एक धार्मिक कार्यक्रम को राजनीति से जोड़ रहे हैं… यह एक धार्मिक कार्यक्रम का राजनीतिकरण है। यह सही नहीं है,'' करात ने पिछले महीने कहा था।
पार्टी ने एक बयान में अपने इस विश्वास को रेखांकित किया था कि धर्म एक व्यक्तिगत पसंद है, साथ ही कहा कि यह "बेहद दुर्भाग्यपूर्ण" है कि "भाजपा और आरएसएस ने एक धार्मिक समारोह को राज्य प्रायोजित कार्यक्रम में बदल दिया है"। “हमारी नीति धार्मिक मान्यताओं और प्रत्येक व्यक्ति के अपने विश्वास को आगे बढ़ाने के अधिकार का सम्मान करना है। बयान में कहा गया है कि धर्म एक व्यक्तिगत पसंद है, जिसे राजनीतिक लाभ के साधन के रूप में नहीं बदला जाना चाहिए।
हालांकि कांग्रेस ने भी घोषणा की है कि उसके शीर्ष नेता इस प्रतिष्ठा समारोह में शामिल नहीं होंगे, क्योंकि यह आरएसएस-भाजपा का कार्यक्रम बन जाएगा, लेकिन उसने इस अवसर को मनाने का जिम्मा अपनी सरकारों और नेताओं पर छोड़ दिया है। जबकि सिद्धारमैया सरकार ने अधिकांश राज्यों के विपरीत, उस दिन छुट्टी की घोषणा करने से इनकार कर दिया, मुख्यमंत्री सोमवार को एक मंदिर कार्यक्रम में उपस्थित थे।