बिहार में ‘स्वर्ण काल’ बनाम ‘जंगलराज’
उर्मिलेश
बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार जिस एक जुमले का सबसे अधिक प्रयोग हुआ, वह है-‘जंगलराज’। भाजपा ने इसे अपना अहम चुनाव मुद्दा बनाकर जोर-शोर से प्रचारित किया कि ‘महागठबंधन’ के जीतने का मतलब होगा-बिहार में ‘जंगलराज’ की वापसी। उसके मुताबिक नीतीश कुमार भले ही गठबंधन के मुख्यमंत्री हों, सत्ता की मुख्य शक्ति होंगे लालू प्रसाद यादव, जो जंगलराज के प्रतीक हैं।’ मीडियाकर्मियों और प्रतिपक्षी-राजनीतिज्ञों के बाद इधर कुछ लेखक-इतिहासकारों में भी लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के शासनकाल को इसी जुमले से संबोधित करने का फैशन सा चल गया है। अभी कुछ दिनों पहले इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने लालू-राबड़ी राज के लिये इस जुमले का इस्तेमाल किया। सवाल उठना लाजिमी है, जिस पैमाने या आधार पर उन्होंने उक्त कार्यकाल को ‘जंगलराज’ का विशेषण दिया, क्या वे आधार या पैमाने देश के अन्य राज्यों में मौजूद नहीं हैं, जिन्हें उन्होंने शायद ही कभी जंगलराज के रूप में संबोधित किया हो? फिर यह विशेषण सिर्फ बिहार के लिये क्यों? यह इतिहासकार की तथ्य-आधारित सोच है या मनोगत व्याख्या?
‘जंगलराज’ के विशेषण को सही और जायज ठहराने के लिये रामचंद्र गुहा ने अपने लेख में एक बहुचर्चित हत्याकांड का उल्लेख किया है। वह नृशंस हत्या थी-पटना विश्वविद्यालय की प्रोफेसर और इतिहासकार पापिया घोष की। 3 दिसम्बर,2006 को हुई इस नृशंस हत्या के लिये लिये गुहा ने लालू-राबड़ी के ‘जंगलराज’ को जिम्मेदार ठहराया। गत 17 अक्तूबर को दिल्ली सहित कई राज्यों से छपने वाले एक अखबार में उन्होंने पापिया के नामोल्लेख के बगैर महिला इतिहासकार हत्याकांड की चर्चा की है। संभवतः यही लेख कुछ अंगरेजी अखबारों में भी छपा। निस्संदेह, यह संदर्भ इतिहासकार पापिया घोष की हत्या का ही है, क्योंकि उस दौर में पापिया के अलावा किसी अन्य इतिहासकार की पटना में हत्या नहीं हुई। लेकिन गुहा जिस हत्याकांड का जिक्र कर रहे हैं, वह लालू-राबड़ी के ‘जंगलराज’ के दौरान हुआ ही नहीं। आश्चर्यजनक कि पेशेवर इतिहासकार होने के बावजूद गुहा ने सन 2006 के दौरान हुए पापिया हत्याकांड को ‘लालू-राबड़ी जंगलराज’ के दौरान हुआ बता दिया, जबकि उस वक्त नीतीश कुमार की सरकार थी! अगर यह इतिहासकार की तथ्य-पड़ताल सम्बन्धी लापरवाही नहीं तो फिर बहुत तुच्छ किस्म की बौद्धिक बेईमानी है! बेहतर होगा, गुहा इतिहास पर शोधपरक लेखन करें या क्रिकेट पर लिखें, समकालीन राजनीति पर अपनी अधकचरी समझ का कचरा न फैलायें!
अपने लेख में लब्धप्रतिष्ठ इतिहासकार ने बिहार भाजपा और तत्कालीन उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी की भी जमकर तारीफ की है। लेख की मूल प्रस्थापना वही है, जो अपवादों को छोड़ दें तो इन दिनों आमतौर पर बिहार के सवर्ण हिन्दू, समृद्ध शहरी या गांव के सवर्ण भूस्वामी की दिखती है। रामचंद्र गुहा की तरह वे भी नीतीश और भाजपा गठबंधन जारी रहने के पैरोकार हैं। नीतीश-सुशील यानी जद(यू)-भाजपा गठबंधन न होने से आहत गुहा अपना दुख इन शब्दों में व्यक्त करते हैं, ‘मुझे बिहार के लोगों और बिहार राज्य से बहुत लगाव है, इसलिये मैं कुछ महीनों की घटनाओं को बहुत दुख से देखता रहा हूं। एक राज्य, जिसमें नीतीश कुमार-सुशील मोदी की जुगलबंदी बहुत कुछ कर सकती थी, वह उनके अलगाव का फल भुगत रहा है। सर्वेक्षण बता रहे हैं कि यह कांटे का चुनाव है। चुनाव में जो भी जीते, बिहार की जनता पहले ही हार चुकी है।’ शोकाकुल गुहा इस बात से दुखी हैं कि नीतीश ने जंगलराज की ‘अमंगल शक्तियों’ से क्यों हाथ मिला लिया! यह लेख इस बात का ठोस प्रमाण है कि एक विद्वान इतिहासकार भी तथ्य और ठोस साक्ष्यों की अवहेलना करके हमारे जैसे समाज में किस तरह जातिगत-वर्णगत पूर्वाग्रहों या पूर्वाग्रह भरी दलीलों से प्रभावित हो सकता है! यही नहीं, वह अपनी सेक्युलर सोच के उलट वर्णगत आग्रहों के दबाव में सांप्रदायिकता की सबसे प्रतिनिधि राजनीतिक शक्ति मानी जाने वाली सियासी जमातों को भी सुशासन की शाबासी दे सकता है! ऐसे लोग बंगलुरू से बलिया, पटियाला से पटना, मदुरै से मुजफ्फरपुर, नैनीताल से नालंदा और वाराणसी से वैशाली तक फैले हुए हैं। कई भाषाओं के अखबारों में छपे अपने लेख में गुहा आगे कहते हैं, ‘ अगर महागठबंधन जीतता है तो नीतीश कुमार मुख्यमंत्री होंगे। राजग ने किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाया है लेकिन वे जीते तो शायद अपने सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति को मुख्य़मंत्री बनायेंगे। लेकिन नीतीश कुमार और सुशील मोदी मिलकर जो कर सकते थे, वह अकेले-अकेले नहीं कर सकते।’(‘जनता पहले ही हार चुकी है’,‘हिन्दुस्तान’,17अक्तूबर,2015)। बिहार में भी एक तबका कह रहा है कि नीतीश अच्छे हैं पर उन्होंने लालू(या ललुवा!) से क्यों हाथ मिलाया? दरअसल, ये वहीं वर्ग हैं, जो हर हालत में भाजपा के जरिये बिहार की सत्ता पर अपना वर्चस्व बरकरार रखना चाहते हैं। उन्हें लग रहा है कि नीतीश-लालू गठबंधन के फिर से सत्ता में आने पर उनका वह वर्चस्व कायम नहीं रहेगा। वह अपने प्रभाव की ऐसी सरकार चाहते हैं जो शंकरबिघा, बथानी टोला और लक्ष्मणपुर बाथे जैसे नृशंस हत्याकांडों के लिये जिम्मेदार रणवीर सेना और उसके आकाओं को लगातार माफ करती-कराती रहे। वह ऐसी सरकार चाहते हैं, जिसके तहत भूमि सुधार की कोई भी सार्थक कोशिश कामयाब न हो सके। क्या गुहा को नहीं मालूम कि बिहार में सुशील मोदी की अगुवाई वाली भाजपा के मंत्रियों और उनसे अनुप्रेरित कुछ अफसरों के कुचक्र और दबाव के चलते ही नीतीश सरकार राज्य के तीन बड़े मामलों में ठोस फैसला नहीं ले सकी? यह तीन मामले थे-1. अमीरदास आयोग, जो शंकरबिघा, लक्ष्मणपुर बाथे और बथानी टोली जैसे नृशंस हत्याकाडों की पृष्ठभूमि मे रणवीर सेना के साथ राजनीतिज्ञों की मिलीभगत आदि की जांच के लिये पूर्ववर्ती राबड़ी देवी सरकार द्वारा गठित किया गया था 2. भूमि सुधार के लिये स्वयं नीतीश सरकार द्वारा गठित डी बंदोपाध्याय कमेटी की सिफारिशों पर अमल का मामला 3. शिक्षा में सुधार के लिये मुचकुंद दुबे कमेटी की रिपोर्ट की सिफारिशें लागू करना। यह तीनों काम नहीं हो सके। हमारी जानकारी है कि इन तीनों मामलों में भाजपा के कई दबंग मंत्रियों ने सरकारी फैसले को रोका और उसमें सुशील मोदी स्वयं भी शामिल थे। जद(यू) के कुछ मंत्रियों-विधायकों का भी इस लाबी को समर्थन मिला। नीतीश कमजोर पड़ गये और यह तीनों काम नहीं हो सके, जो बिहार का भाग्य बदल सकते थे। इसके पहले लालू के पहले कार्यकाल में भी भूमि-सुधार जैसे मुद्दे पर ज्यादा कुछ नहीं हुआ। उस सरकार को भी भूस्वामियों की मजबूत लाबी से समझौता करना पड़ा था। ऐसे मामलों में भाजपा के विरोध की वजह जानना राकेट साइंस की गुत्थी जानने जैसा नहीं है। बिहार में अब सवर्ण समुदायों, खासकर भूस्वामियों और समृद्ध लोगों की नुमायंदगी भाजपा ही कर रही है। उसने 90 के बाद बड़ी चतुराई से कांग्रेस से उसका यह स्थान छीन लिया। ऐसी स्थिति में क्या रामचंद्र गुहा अपने लेख में वर्चस्वादी वर्ग की आवाज नहीं बनते दिख रहे हैं?
अंत में फिर ‘जंगलराज’ के जुमले की तरफ लौटते हैं। यह सही है कि लालू-राबड़ी राज के कुछ बरस प्रशासनिक स्तर पर बहुत बुरे थे। लेकिन एक सच यह भी है कि सन 1990-94 के बीच लालू सरकार ने दलित-पिछड़ों-आदिवासियों(झारखंड तब बिहार का हिस्सा था) में गजब का भरोसा पैदा किया। सामंती उत्पीड़न में कमी आई। उन्हें खेतीयोग्य जमीन नहीं मिली, आर्थिक तौर पर भी कोई बड़ी मदद नहीं मिली। लेकिन एक भरोसा मिला कि पहले की कांग्रेसी सरकारों से यह कुछ अलग किस्म की सरकार है। उन्होंने अपने को ‘इम्पावर्ड’ महसूस किया। अल्पसंख्यक समुदाय ने भी बेहतर माहौल का एहसास किया। राज्य सरकार, प्रशासनिक निकायों, जिला बोर्डों, निगमों, ठेकों, शिक्षण संस्थानों और अन्य इकाइयों में दलित-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों की नुमायंदगी बढ़ी। ‘दिग्विजयी रामरथ’ पर सवार देश भर में घूम रहे लालकृष्ण आडवाणी जब बिहार पहुंचे तो लालू ने उन्हें यह कहते हुए गिरफ्तार कर लिया कि यह ‘दंगा-रथ’ है, सांप्रदायिक सद्भाव के हक में इसे रोका गया। इस तरह के कुछ बड़े सकारात्मक कदम तो उठे। लेकिन समावेशी विकास, आधारभूत संरचनात्मक निर्माण और बदलाव के बड़े एजेंडे नहीं लिये गये। इसके बावजूद लोग खुश थे। सन 1995 के चुनाव में लालू को मिले प्रचंड बहुमत का यही राज था। दूसरे कार्यकाल में सरकार से लोगों की ठोस आर्थिक अपेक्षायें बढ़ीं। इस दिशा में जो कदम जरूरी थे, वे भी नहीं उठाये जा सके। लालू के जेल जाने के बाद उनकी पत्नी राबड़ी देवी, जिनके पास राजनीति या प्रशासन में एक दिन का भी अनुभव नहीं था, मुख्यमंत्री बनीं और इस तरह सत्ता की चाबी लालू के दो सालों और पसंदीदा अफसरों के पास आ गयी। उत्पात और खुराफात की शुरुआत यहीं से हुई। प्रशासनिक भ्रष्टाचार और अपराध में बढ़ोत्तरी हुई। उनके दोनों सालों ने अंधेरगर्दी मचा दी। लेकिन यह कहना कि शाम ढलते ही पटना या बिहार के अन्य़ शहरों में लोगों का आवागमन ठप्प हो जाता था या कि दूकानों में आये दिन सामानों की लूट होती रहती थी या कि किसी लड़की को कहीं से भी उठा लिया जाता था, अतिशयोक्तिपूर्ण है और इस तरह की बातें सिर्फ कुछ वर्ग-वर्ण विशेष के निहित-स्वार्थी तत्व ही कहते हैं। बिहार अपराध-मुक्त पहले भी नहीं था। आज भी नहीं है। लेकिन एकेडेमिक्स, शीर्ष अफसरशाही और मीडिया में प्रभावी खास लोगों के सहयोग से ‘जंगलराज’ का जुमला देखते-देखते राष्ट्रव्यापी प्रचार पा गया। आज महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ या यूपी में लेखकों से लेकर आम लोगों की निशानदेही के साथ हत्याएं या उन पर हमले हो रहे हैं। क्या इनके प्रशासन को भी ‘जंगलराज’ कहा जा रहा है? बिहार के दूसरे प्रीमियर और पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के राज में तो दलित-पिछड़ों को ठीक से जीने और अपने को व्यक्त करने की भी आजादी नहीं थी। सियासत और सरकार में इन वर्गों की नुमायंदगी नगण्य थी। जातिवाद और भ्रष्टाचार का इस कदर बोलबाला था कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष अबुल कलाम आजाद को अपनी ही पार्टी की सरकार और उसके प्रीमियर श्रीकृष्ण सिंह के खिलाफ गांधी-नेहरू-राजेंद्र प्रसाद को रिपोर्ट सौंपनी पड़ी थी। जुल्मोसितम के बारे में पुराने शाहाबाद के ‘आयरकांड’ की कहानी रोंगटे खड़ी करती है। बाद के दिनों के कांग्रेसी शासन में रूपसपुर चंदवा, अरवल और दनवारबिहटा जैसे असंख्य दलित-आदिवासी हत्याकांड सिलसिला बन गये। हर साल चार-पांच बड़े हत्याकांड होते थे। पर मीडिया और एकेडेमिक्स के बड़े पंडित उस काल को बिहार का ‘स्वर्णराज’ या ‘स्वर्णकाल’ कहते हैं। अब इसे क्या कहेंगे? इतिहासकार इन बातों को समझें या ना समझें, आम लोग समझते हैं। बिहार में इस वक्त एक इतिहास बनता नजर आ रहा है। हम सबको बिहार के आम लोगों के विवेक पर भरोसा करना चाहिये, जिन्होंने वक्त-बेवक्त देश को हमेशा रास्ता दिखाया है----‘बिहार शोज द वे!’
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28अक्तूबर,2015
urmilesh218@gmail.com
बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार जिस एक जुमले का सबसे अधिक प्रयोग हुआ, वह है-‘जंगलराज’। भाजपा ने इसे अपना अहम चुनाव मुद्दा बनाकर जोर-शोर से प्रचारित किया कि ‘महागठबंधन’ के जीतने का मतलब होगा-बिहार में ‘जंगलराज’ की वापसी। उसके मुताबिक नीतीश कुमार भले ही गठबंधन के मुख्यमंत्री हों, सत्ता की मुख्य शक्ति होंगे लालू प्रसाद यादव, जो जंगलराज के प्रतीक हैं।’ मीडियाकर्मियों और प्रतिपक्षी-राजनीतिज्ञों के बाद इधर कुछ लेखक-इतिहासकारों में भी लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के शासनकाल को इसी जुमले से संबोधित करने का फैशन सा चल गया है। अभी कुछ दिनों पहले इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने लालू-राबड़ी राज के लिये इस जुमले का इस्तेमाल किया। सवाल उठना लाजिमी है, जिस पैमाने या आधार पर उन्होंने उक्त कार्यकाल को ‘जंगलराज’ का विशेषण दिया, क्या वे आधार या पैमाने देश के अन्य राज्यों में मौजूद नहीं हैं, जिन्हें उन्होंने शायद ही कभी जंगलराज के रूप में संबोधित किया हो? फिर यह विशेषण सिर्फ बिहार के लिये क्यों? यह इतिहासकार की तथ्य-आधारित सोच है या मनोगत व्याख्या?
‘जंगलराज’ के विशेषण को सही और जायज ठहराने के लिये रामचंद्र गुहा ने अपने लेख में एक बहुचर्चित हत्याकांड का उल्लेख किया है। वह नृशंस हत्या थी-पटना विश्वविद्यालय की प्रोफेसर और इतिहासकार पापिया घोष की। 3 दिसम्बर,2006 को हुई इस नृशंस हत्या के लिये लिये गुहा ने लालू-राबड़ी के ‘जंगलराज’ को जिम्मेदार ठहराया। गत 17 अक्तूबर को दिल्ली सहित कई राज्यों से छपने वाले एक अखबार में उन्होंने पापिया के नामोल्लेख के बगैर महिला इतिहासकार हत्याकांड की चर्चा की है। संभवतः यही लेख कुछ अंगरेजी अखबारों में भी छपा। निस्संदेह, यह संदर्भ इतिहासकार पापिया घोष की हत्या का ही है, क्योंकि उस दौर में पापिया के अलावा किसी अन्य इतिहासकार की पटना में हत्या नहीं हुई। लेकिन गुहा जिस हत्याकांड का जिक्र कर रहे हैं, वह लालू-राबड़ी के ‘जंगलराज’ के दौरान हुआ ही नहीं। आश्चर्यजनक कि पेशेवर इतिहासकार होने के बावजूद गुहा ने सन 2006 के दौरान हुए पापिया हत्याकांड को ‘लालू-राबड़ी जंगलराज’ के दौरान हुआ बता दिया, जबकि उस वक्त नीतीश कुमार की सरकार थी! अगर यह इतिहासकार की तथ्य-पड़ताल सम्बन्धी लापरवाही नहीं तो फिर बहुत तुच्छ किस्म की बौद्धिक बेईमानी है! बेहतर होगा, गुहा इतिहास पर शोधपरक लेखन करें या क्रिकेट पर लिखें, समकालीन राजनीति पर अपनी अधकचरी समझ का कचरा न फैलायें!
अपने लेख में लब्धप्रतिष्ठ इतिहासकार ने बिहार भाजपा और तत्कालीन उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी की भी जमकर तारीफ की है। लेख की मूल प्रस्थापना वही है, जो अपवादों को छोड़ दें तो इन दिनों आमतौर पर बिहार के सवर्ण हिन्दू, समृद्ध शहरी या गांव के सवर्ण भूस्वामी की दिखती है। रामचंद्र गुहा की तरह वे भी नीतीश और भाजपा गठबंधन जारी रहने के पैरोकार हैं। नीतीश-सुशील यानी जद(यू)-भाजपा गठबंधन न होने से आहत गुहा अपना दुख इन शब्दों में व्यक्त करते हैं, ‘मुझे बिहार के लोगों और बिहार राज्य से बहुत लगाव है, इसलिये मैं कुछ महीनों की घटनाओं को बहुत दुख से देखता रहा हूं। एक राज्य, जिसमें नीतीश कुमार-सुशील मोदी की जुगलबंदी बहुत कुछ कर सकती थी, वह उनके अलगाव का फल भुगत रहा है। सर्वेक्षण बता रहे हैं कि यह कांटे का चुनाव है। चुनाव में जो भी जीते, बिहार की जनता पहले ही हार चुकी है।’ शोकाकुल गुहा इस बात से दुखी हैं कि नीतीश ने जंगलराज की ‘अमंगल शक्तियों’ से क्यों हाथ मिला लिया! यह लेख इस बात का ठोस प्रमाण है कि एक विद्वान इतिहासकार भी तथ्य और ठोस साक्ष्यों की अवहेलना करके हमारे जैसे समाज में किस तरह जातिगत-वर्णगत पूर्वाग्रहों या पूर्वाग्रह भरी दलीलों से प्रभावित हो सकता है! यही नहीं, वह अपनी सेक्युलर सोच के उलट वर्णगत आग्रहों के दबाव में सांप्रदायिकता की सबसे प्रतिनिधि राजनीतिक शक्ति मानी जाने वाली सियासी जमातों को भी सुशासन की शाबासी दे सकता है! ऐसे लोग बंगलुरू से बलिया, पटियाला से पटना, मदुरै से मुजफ्फरपुर, नैनीताल से नालंदा और वाराणसी से वैशाली तक फैले हुए हैं। कई भाषाओं के अखबारों में छपे अपने लेख में गुहा आगे कहते हैं, ‘ अगर महागठबंधन जीतता है तो नीतीश कुमार मुख्यमंत्री होंगे। राजग ने किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाया है लेकिन वे जीते तो शायद अपने सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति को मुख्य़मंत्री बनायेंगे। लेकिन नीतीश कुमार और सुशील मोदी मिलकर जो कर सकते थे, वह अकेले-अकेले नहीं कर सकते।’(‘जनता पहले ही हार चुकी है’,‘हिन्दुस्तान’,17अक्तूबर,2015)। बिहार में भी एक तबका कह रहा है कि नीतीश अच्छे हैं पर उन्होंने लालू(या ललुवा!) से क्यों हाथ मिलाया? दरअसल, ये वहीं वर्ग हैं, जो हर हालत में भाजपा के जरिये बिहार की सत्ता पर अपना वर्चस्व बरकरार रखना चाहते हैं। उन्हें लग रहा है कि नीतीश-लालू गठबंधन के फिर से सत्ता में आने पर उनका वह वर्चस्व कायम नहीं रहेगा। वह अपने प्रभाव की ऐसी सरकार चाहते हैं जो शंकरबिघा, बथानी टोला और लक्ष्मणपुर बाथे जैसे नृशंस हत्याकांडों के लिये जिम्मेदार रणवीर सेना और उसके आकाओं को लगातार माफ करती-कराती रहे। वह ऐसी सरकार चाहते हैं, जिसके तहत भूमि सुधार की कोई भी सार्थक कोशिश कामयाब न हो सके। क्या गुहा को नहीं मालूम कि बिहार में सुशील मोदी की अगुवाई वाली भाजपा के मंत्रियों और उनसे अनुप्रेरित कुछ अफसरों के कुचक्र और दबाव के चलते ही नीतीश सरकार राज्य के तीन बड़े मामलों में ठोस फैसला नहीं ले सकी? यह तीन मामले थे-1. अमीरदास आयोग, जो शंकरबिघा, लक्ष्मणपुर बाथे और बथानी टोली जैसे नृशंस हत्याकाडों की पृष्ठभूमि मे रणवीर सेना के साथ राजनीतिज्ञों की मिलीभगत आदि की जांच के लिये पूर्ववर्ती राबड़ी देवी सरकार द्वारा गठित किया गया था 2. भूमि सुधार के लिये स्वयं नीतीश सरकार द्वारा गठित डी बंदोपाध्याय कमेटी की सिफारिशों पर अमल का मामला 3. शिक्षा में सुधार के लिये मुचकुंद दुबे कमेटी की रिपोर्ट की सिफारिशें लागू करना। यह तीनों काम नहीं हो सके। हमारी जानकारी है कि इन तीनों मामलों में भाजपा के कई दबंग मंत्रियों ने सरकारी फैसले को रोका और उसमें सुशील मोदी स्वयं भी शामिल थे। जद(यू) के कुछ मंत्रियों-विधायकों का भी इस लाबी को समर्थन मिला। नीतीश कमजोर पड़ गये और यह तीनों काम नहीं हो सके, जो बिहार का भाग्य बदल सकते थे। इसके पहले लालू के पहले कार्यकाल में भी भूमि-सुधार जैसे मुद्दे पर ज्यादा कुछ नहीं हुआ। उस सरकार को भी भूस्वामियों की मजबूत लाबी से समझौता करना पड़ा था। ऐसे मामलों में भाजपा के विरोध की वजह जानना राकेट साइंस की गुत्थी जानने जैसा नहीं है। बिहार में अब सवर्ण समुदायों, खासकर भूस्वामियों और समृद्ध लोगों की नुमायंदगी भाजपा ही कर रही है। उसने 90 के बाद बड़ी चतुराई से कांग्रेस से उसका यह स्थान छीन लिया। ऐसी स्थिति में क्या रामचंद्र गुहा अपने लेख में वर्चस्वादी वर्ग की आवाज नहीं बनते दिख रहे हैं?
अंत में फिर ‘जंगलराज’ के जुमले की तरफ लौटते हैं। यह सही है कि लालू-राबड़ी राज के कुछ बरस प्रशासनिक स्तर पर बहुत बुरे थे। लेकिन एक सच यह भी है कि सन 1990-94 के बीच लालू सरकार ने दलित-पिछड़ों-आदिवासियों(झारखंड तब बिहार का हिस्सा था) में गजब का भरोसा पैदा किया। सामंती उत्पीड़न में कमी आई। उन्हें खेतीयोग्य जमीन नहीं मिली, आर्थिक तौर पर भी कोई बड़ी मदद नहीं मिली। लेकिन एक भरोसा मिला कि पहले की कांग्रेसी सरकारों से यह कुछ अलग किस्म की सरकार है। उन्होंने अपने को ‘इम्पावर्ड’ महसूस किया। अल्पसंख्यक समुदाय ने भी बेहतर माहौल का एहसास किया। राज्य सरकार, प्रशासनिक निकायों, जिला बोर्डों, निगमों, ठेकों, शिक्षण संस्थानों और अन्य इकाइयों में दलित-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों की नुमायंदगी बढ़ी। ‘दिग्विजयी रामरथ’ पर सवार देश भर में घूम रहे लालकृष्ण आडवाणी जब बिहार पहुंचे तो लालू ने उन्हें यह कहते हुए गिरफ्तार कर लिया कि यह ‘दंगा-रथ’ है, सांप्रदायिक सद्भाव के हक में इसे रोका गया। इस तरह के कुछ बड़े सकारात्मक कदम तो उठे। लेकिन समावेशी विकास, आधारभूत संरचनात्मक निर्माण और बदलाव के बड़े एजेंडे नहीं लिये गये। इसके बावजूद लोग खुश थे। सन 1995 के चुनाव में लालू को मिले प्रचंड बहुमत का यही राज था। दूसरे कार्यकाल में सरकार से लोगों की ठोस आर्थिक अपेक्षायें बढ़ीं। इस दिशा में जो कदम जरूरी थे, वे भी नहीं उठाये जा सके। लालू के जेल जाने के बाद उनकी पत्नी राबड़ी देवी, जिनके पास राजनीति या प्रशासन में एक दिन का भी अनुभव नहीं था, मुख्यमंत्री बनीं और इस तरह सत्ता की चाबी लालू के दो सालों और पसंदीदा अफसरों के पास आ गयी। उत्पात और खुराफात की शुरुआत यहीं से हुई। प्रशासनिक भ्रष्टाचार और अपराध में बढ़ोत्तरी हुई। उनके दोनों सालों ने अंधेरगर्दी मचा दी। लेकिन यह कहना कि शाम ढलते ही पटना या बिहार के अन्य़ शहरों में लोगों का आवागमन ठप्प हो जाता था या कि दूकानों में आये दिन सामानों की लूट होती रहती थी या कि किसी लड़की को कहीं से भी उठा लिया जाता था, अतिशयोक्तिपूर्ण है और इस तरह की बातें सिर्फ कुछ वर्ग-वर्ण विशेष के निहित-स्वार्थी तत्व ही कहते हैं। बिहार अपराध-मुक्त पहले भी नहीं था। आज भी नहीं है। लेकिन एकेडेमिक्स, शीर्ष अफसरशाही और मीडिया में प्रभावी खास लोगों के सहयोग से ‘जंगलराज’ का जुमला देखते-देखते राष्ट्रव्यापी प्रचार पा गया। आज महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ या यूपी में लेखकों से लेकर आम लोगों की निशानदेही के साथ हत्याएं या उन पर हमले हो रहे हैं। क्या इनके प्रशासन को भी ‘जंगलराज’ कहा जा रहा है? बिहार के दूसरे प्रीमियर और पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के राज में तो दलित-पिछड़ों को ठीक से जीने और अपने को व्यक्त करने की भी आजादी नहीं थी। सियासत और सरकार में इन वर्गों की नुमायंदगी नगण्य थी। जातिवाद और भ्रष्टाचार का इस कदर बोलबाला था कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष अबुल कलाम आजाद को अपनी ही पार्टी की सरकार और उसके प्रीमियर श्रीकृष्ण सिंह के खिलाफ गांधी-नेहरू-राजेंद्र प्रसाद को रिपोर्ट सौंपनी पड़ी थी। जुल्मोसितम के बारे में पुराने शाहाबाद के ‘आयरकांड’ की कहानी रोंगटे खड़ी करती है। बाद के दिनों के कांग्रेसी शासन में रूपसपुर चंदवा, अरवल और दनवारबिहटा जैसे असंख्य दलित-आदिवासी हत्याकांड सिलसिला बन गये। हर साल चार-पांच बड़े हत्याकांड होते थे। पर मीडिया और एकेडेमिक्स के बड़े पंडित उस काल को बिहार का ‘स्वर्णराज’ या ‘स्वर्णकाल’ कहते हैं। अब इसे क्या कहेंगे? इतिहासकार इन बातों को समझें या ना समझें, आम लोग समझते हैं। बिहार में इस वक्त एक इतिहास बनता नजर आ रहा है। हम सबको बिहार के आम लोगों के विवेक पर भरोसा करना चाहिये, जिन्होंने वक्त-बेवक्त देश को हमेशा रास्ता दिखाया है----‘बिहार शोज द वे!’
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28अक्तूबर,2015
urmilesh218@gmail.com
4 comments:
मिडिया का टूल है या वास्तविकता ;
मुलायम के जीजा ने डॉक्टर को पिटवाया
उत्तर प्रदेश सरकार जहां राज्य में गुंडागर्दी रोकने के दावे करती है वहीं सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के जीजा ने ही गुंडई दिखाते हुए एक मेडिकल सुपरिटेडेंट को पिटवा डाला।
जीजा अजयंत सिंह पर इटावा में तैनात डॉक्टर पवन प्रताप सिंह ने उनके साथ मारपीट करने का आरोप लगाया है। इतना ही नहीं अजयंत सिंह के रसूख के चलते पुलिस भी कोई कदम उठाने में संकोच कर रही है।
डॉक्टर को इतनी बुरी तरह पीटा गया है कि उन्हें काफी चोटें आई हैं जबकि झगड़ा सिर्फ कार खड़ी करने को लेकर हुआ था।
पवन प्रताप सिंह के मुताबिक उन्होंने अपनी कार अजयंत सिंह के मकान के गेट के सामने खड़ी कर दी थी। इससे नाराज अजयंत सिंह ने उन्हें अपने घर बुलाकर गुंडों से पिटाई करवा दी। यहां तक कि उनकी कार में भी तोड़फोड़ कर दी।
डॉक्टर इसमें बुरी तरह जख्मी हो गए हैं। डॉक्टर्स का कहना है कि उन्हें आठ चोटें आईं हैं और चोटें गंभीर हैं।
पवन प्रताप पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराने भी गए। पुलिस ने उनका मेडिकल तो करा दिया लेकिन एफआईआर दर्ज करने में अनाकानी की।
मुलायम सिंह के जीजा के घर के पास ही पवन प्रताप रहते हैं। उनके मुताबिक इस घटना से वह बहुत हैरान हैं। वह कहते हैं कि उन्होंने पिछले तीन सालों के दौरान अजयंत सिंह का इस इस तरह का व्यवहार नहीं देखा था। वे तो उन्हें एक सम्मानित व्यक्ति समझते थे।
उनका कहना है कि अजयंत सिंह एक स्कूल में प्रिंसिपल भी हैं और राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित हैं लेकिन जब शाम को पवन अपने घर पर चाय पी रहे थे तो अजयंत सिंह के घर से उन्हें कोई बुलाने आया। उनके घर जाने पर पवन के साथ मारपीट की गई।
जीजा अजयंत सिंह पर इटावा में तैनात डॉक्टर पवन प्रताप सिंह ने उनके साथ मारपीट करने का आरोप लगाया है। इतना ही नहीं अजयंत सिंह के रसूख के चलते पुलिस भी कोई कदम उठाने में संकोच कर रही है।
डॉक्टर को इतनी बुरी तरह पीटा गया है कि उन्हें काफी चोटें आई हैं जबकि झगड़ा सिर्फ कार खड़ी करने को लेकर हुआ था।
पवन प्रताप सिंह के मुताबिक उन्होंने अपनी कार अजयंत सिंह के मकान के गेट के सामने खड़ी कर दी थी। इससे नाराज अजयंत सिंह ने उन्हें अपने घर बुलाकर गुंडों से पिटाई करवा दी। यहां तक कि उनकी कार में भी तोड़फोड़ कर दी।
डॉक्टर इसमें बुरी तरह जख्मी हो गए हैं। डॉक्टर्स का कहना है कि उन्हें आठ चोटें आईं हैं और चोटें गंभीर हैं।
पवन प्रताप पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराने भी गए। पुलिस ने उनका मेडिकल तो करा दिया लेकिन एफआईआर दर्ज करने में अनाकानी की।
मुलायम सिंह के जीजा के घर के पास ही पवन प्रताप रहते हैं। उनके मुताबिक इस घटना से वह बहुत हैरान हैं। वह कहते हैं कि उन्होंने पिछले तीन सालों के दौरान अजयंत सिंह का इस इस तरह का व्यवहार नहीं देखा था। वे तो उन्हें एक सम्मानित व्यक्ति समझते थे।
उनका कहना है कि अजयंत सिंह एक स्कूल में प्रिंसिपल भी हैं और राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित हैं लेकिन जब शाम को पवन अपने घर पर चाय पी रहे थे तो अजयंत सिंह के घर से उन्हें कोई बुलाने आया। उनके घर जाने पर पवन के साथ मारपीट की गई।
शर्म करो बेनी प्रसाद !
बेनी बाबू को क्या हो गया है क्या केंद्र के सारे मंत्री अपणा आपा खो चुके हैं और अनाप सनाप बक रहे हैं -कितना दुह्खद है जिस सपा और बसपा के बल पर बाबू बेनी प्रसाद वर्मा केंद्र में मंत्री बने बैठे हैं और मुलायम सिंह जैसे व्यक्ति को इस तरह कहना और उनका मंत्री मंडल में बने रहना क्या कांग्रेस की साजिस नहीं है ;
मेरी मांग है ?
१.कांग्रेस बेनी प्रसाद वर्मा को तत्काल मंत्री पद से बर्खास्त करे.
2. यदि ऐसा नहीं किया जाता कांग्रेस की ओर से तो सपा कांग्रेस से समर्थन वापस ले और इसके विरोध में -
३.राष्ट्रपति से मांग करे की ऐसे असभ्य और 'बडबोले' मंत्री को तत्काल बर्खास्त करे.
4.नेताजी राष्ट्रीय गौरव हैं, उन्होंने देश में फैले साम्प्रदायिक वैमनस्य को रोका है.
५.जमीनी नेत्रित्व की मिशाल हैं नेता जी, जिन्होंने बेनी प्रसाद जैसों का विशवास किया है उन्हें मौक़ा दिया है पर वो मौका परस्ती के चलते मदांध हो गए हैं, हम इसकी सार्वजानिक निंदा करने का प्रस्ताव लाते है.
अमर उजाला की इस खबर से -
'पीएम हाउस में झाड़ू लगाने लायक भी नहीं मुलायम'
नई दिल्ली/इंटरनेट डेस्क | अंतिम अपडेट 3 जुलाई 2013 1:02 AM IST पर

केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा का बड़बोलापन कांग्रेस के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है।
इस बार बेनी ने सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव पर निशाना साधते हुए कहा कि मुलायम तो प्रधानमंत्री निवास में झाड़ू लगाने लायक भी नहीं हैं।
फैजाबाद में एक कार्यक्रम के दौरान बेनी ने कहा, 'मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। इसलिए उन्हें प्रधानमंत्री के निवास पर झाड़ू देने वाले की नौकरी पाने की कोशिश करनी चाहिए।'
सपा को खत्म कर देगी कांग्रेस
बेनी ने कहा कि समाजवादी पार्टी 'झूठ और छल' पर आधारित पार्टी है। कांग्रेस इस दल को खत्म कर देगी।
'मुलायम लड़ें तो करूंगा मुकाबला, दूंगा पटखनी'
इससे पहले भी बेनी प्रसाद, मुलायम सिंह पर कई बार आपत्तिजनक टिप्पणी कर चुके हैं। एक बार उन्होंने कहा था कि मुलायम सिंह के आतंकियों से संबंध हैं। इस बयान पर काफी हंगामा हुआ था।
बयान से कांग्रेस असहज
संसद के आगामी मानसून सत्र में जब केंद्र सरकार को खाद्य सुरक्षा विधेयक समेत तमाम बिलों को लेकर सपा के समर्थन की सख्त जरूरत है। ऐसे में केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद के विवादित बयान कांग्रेस और सरकार को मुश्किल में डाल सकते हैं।
'नशे में बोल रहे हैं बेनी, इलाज कराना होगा'
कांग्रेस के कई नेताओं का मानना है कि ऐसे विवादित बयान से न कांग्रेस का और न ही खुद उनका कोई भला होने वाला।
केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा का बड़बोलापन कांग्रेस के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है।
इस बार बेनी ने सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव पर निशाना साधते हुए कहा कि मुलायम तो प्रधानमंत्री निवास में झाड़ू लगाने लायक भी नहीं हैं।
फैजाबाद में एक कार्यक्रम के दौरान बेनी ने कहा, 'मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। इसलिए उन्हें प्रधानमंत्री के निवास पर झाड़ू देने वाले की नौकरी पाने की कोशिश करनी चाहिए।'
सपा को खत्म कर देगी कांग्रेस
बेनी ने कहा कि समाजवादी पार्टी 'झूठ और छल' पर आधारित पार्टी है। कांग्रेस इस दल को खत्म कर देगी।
'मुलायम लड़ें तो करूंगा मुकाबला, दूंगा पटखनी'
इससे पहले भी बेनी प्रसाद, मुलायम सिंह पर कई बार आपत्तिजनक टिप्पणी कर चुके हैं। एक बार उन्होंने कहा था कि मुलायम सिंह के आतंकियों से संबंध हैं। इस बयान पर काफी हंगामा हुआ था।
बयान से कांग्रेस असहज
संसद के आगामी मानसून सत्र में जब केंद्र सरकार को खाद्य सुरक्षा विधेयक समेत तमाम बिलों को लेकर सपा के समर्थन की सख्त जरूरत है। ऐसे में केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद के विवादित बयान कांग्रेस और सरकार को मुश्किल में डाल सकते हैं।
'नशे में बोल रहे हैं बेनी, इलाज कराना होगा'
कांग्रेस के कई नेताओं का मानना है कि ऐसे विवादित बयान से न कांग्रेस का और न ही खुद उनका कोई भला होने वाला।
इस बार बेनी ने सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव पर निशाना साधते हुए कहा कि मुलायम तो प्रधानमंत्री निवास में झाड़ू लगाने लायक भी नहीं हैं।
फैजाबाद में एक कार्यक्रम के दौरान बेनी ने कहा, 'मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। इसलिए उन्हें प्रधानमंत्री के निवास पर झाड़ू देने वाले की नौकरी पाने की कोशिश करनी चाहिए।'
सपा को खत्म कर देगी कांग्रेस
बेनी ने कहा कि समाजवादी पार्टी 'झूठ और छल' पर आधारित पार्टी है। कांग्रेस इस दल को खत्म कर देगी।
'मुलायम लड़ें तो करूंगा मुकाबला, दूंगा पटखनी'
इससे पहले भी बेनी प्रसाद, मुलायम सिंह पर कई बार आपत्तिजनक टिप्पणी कर चुके हैं। एक बार उन्होंने कहा था कि मुलायम सिंह के आतंकियों से संबंध हैं। इस बयान पर काफी हंगामा हुआ था।
बयान से कांग्रेस असहज
संसद के आगामी मानसून सत्र में जब केंद्र सरकार को खाद्य सुरक्षा विधेयक समेत तमाम बिलों को लेकर सपा के समर्थन की सख्त जरूरत है। ऐसे में केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद के विवादित बयान कांग्रेस और सरकार को मुश्किल में डाल सकते हैं।
'नशे में बोल रहे हैं बेनी, इलाज कराना होगा'
कांग्रेस के कई नेताओं का मानना है कि ऐसे विवादित बयान से न कांग्रेस का और न ही खुद उनका कोई भला होने वाला।
मुलायम और अखिलेश ने सैफई गांव को बना दिया ड्रीम सिटी, देखिए तस्वीरें
इटावा. कानपुर मंडल के अंतर्गत आने वाला जिला इटावा से 23 किलोमीटर दूर बसा सैफई गांव किसी उभरते हुए मेट्रोपॉलिटन सिटी से कम नहीं है। ये सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव का वही गांव है, जहां से निकल कर उन्होंने न केवल राजनीति के मैदान में अपनी एक पहचान बनाई, बल्कि सैफई को भारत के मानचित्र पर भी एक पहचान दिलाई।
अब मुलायम सिंह के पुत्र और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने पैतृक गांव सैफई को विश्व-पटल पर पहचान दिलाने के लिए प्रयासरत हैं। अखिलेश यादव के इसी प्रयास और सैफई में हो रहे विकास को देख कांग्रेस के नेता सलमान खुर्शीद ने सैफई की तुलना चाइना की राजधानी बीजिंग से कर दी है।
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काश उत्तर प्रदेश के हर जिले के लिए ये सोच रखते ये नेता बहुतेरे जिले जो विकास से कोसों दूर हैं, इनके गाँव के ही आस पास के अधिकाँश जिले ऐसे हैं जहाँ विकास की किरण तक ही नहीं पहुंची है, यदि ये कहा जाय की सैफई को गाँव ही रहने दिया जाता तो कोई बुराई नहीं थी. तब ही वह नेता जी का पैत्रिक गाँव ही रहता आप को आज भले ही यह भरोसा न हो पर इतिहास बताता है की यह गाँव एक दिन गाँव वालों के हाथों से निकल जाएगा और व्यापारी इसपर कब्जा कर लेंगे. फिर उन गाँव वालों का क्या होगा ?
रूठे आजम ने छोड़ा मंत्री पद का काम
Updated on: Thu, 30 Aug 2012 01:06 PM (IST)
जागरण ब्यूरो, लखनऊ। नगर विकास मंत्री मुहम्मद आजम खां का गुस्सा शात नहीं हुआ है। उन्होंने नगर विकास विभाग के काम से फिलहाल हाथ खींच लिए हैं। उन्होंने अफसरों को कोई फाइल न भेजने की हिदायत दी है। साथ ही कार्यालय में पड़ी पत्रावलियों को भी लौटा दिया है। उन्होंने कहा है कि जब तक विभाग में अनुशासनहीनता रहेगी तब तक उनके लिए विभागीय पत्रावलिया देखना संभव नहीं होगा। अखिलेश सरकार में पहला वाकया है जब किसी कैबिनेट मंत्री ने विभाग का काम देखना ही बंद कर दिया है। उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक आजम के निर्देश पर उनके निजी सचिव ने प्रमुख सचिव नगर विकास को एक पत्र लिखा है। पत्र में मंत्री के हवाले से कहा गया है कि विभाग में अनुशासनहीनता है। जब तक विभाग में अनुशासनहीनता रहेगी तब तक उनके लिए विभागीय पत्रावली देखना संभव नहीं होगा। मंत्री के निर्देशों का हवाला देते हुए निजी सचिव ने प्रमुख सचिव से कहा है किसी भी पत्रावली को मंत्री के आदेशार्थ प्रस्तुत न किया जाए। इसके साथ ही मंत्री के स्तर पर लंबित पत्रावलियों को वापस भेजने की भी बात कही गई है। इस पत्र को प्रमुख सचिव नगर विकास प्रवीर कुमार ने विभाग के सभी अधिकारियों को भेजा गया है। माना जा रहा है कि आजम ने सरकार पर दबाव बनाने के लिए यह कदम उठाया है। उन्होंने इसके जरिए यह भी संदेश देने की कोशिश की है कि लखनऊ के नगर आयुक्त प्रकरण को लेकर सत्ता शीर्ष की अपनी उपेक्षा से नाराज हैं। यह रवैया अख्तियार कर उन्होंने प्रकारान्तर से सत्ताशीर्ष को यह जताने का भी प्रयास किया है कि महकमे के अफसर यदि अनुशासनहीन हैं तो उन्हें ऊपर से शह मिल रही है। अगर उनकी बात नहीं मानी जाएगी तो वह विभाग कैसे चला पाएंगे।
http://yadukul.blogspot.in/ http://ratnakarart.blogspot.in/
यदुकुल 'ब्लॉग' का लिंक डॉ.लाल रत्नाकर यादव की कला के ब्लॉग का लिंक

कवि यादव,
उदय प्रताप सिंह यादव के लिंक-
(दैनिक भाष्कर से साभार)उदय प्रताप सिंह यादव के लिंक-
पतिदेव 'अखिलेश' को इस प्यार भरे नाम से पुकारती हैं डिंपल!
Source: एजेंसी | Last Updated 10:35(13/03/12)
कब हुआ प्यार और कब हुई शादी
बात 90 के दशक के आखिरी दौर की है, जब अखिलेश यादव को प्यार हो गया। उस वक्त वह 25 के हुआ करते थे और फुटबॉल के दीवाने थे। अखिलेश ऑस्ट्रेलिया से पढ़ाई पूरी करके वापस ही आए थे और उन्हें जिससे प्यार हुआ था, वह उत्तराखंड के पहाड़ों की रहने वाली 21 वर्षीय लड़की थी। घुड़सवारी का शौक रखने वाली और बेहद प्रतिभावान पेंटर डिंपल और मेटालिका (हार्ड रॉक) सुनना पसंद करने वाले अखिलेश। दोनों के बीच रोमांस चला और फिर नवंबर 1999 में अखिलेश और डिंपल की शादी हो गई।
परिवार और बच्चे
अखिलेश और डिंपल की शादी हुए करीब 12 बरस हो चुके हैं। आज दोनों के तीन बच्चे हैं - अदिति, टीना और अर्जुन। करीब से जानने वाले कहते हैं कि दोनों में लगाव बरकरार है। बीते 6 महीने अखिलेश चुनाव प्रचार में व्यस्त रहे। वह और डिंपल देर रात अचानक कॉफी शॉप जाने के शौकीन हैं, लेकिन चुनावी व्यस्तता के चलते पिछले कुछ वक्त से वे ऐसा नहीं कर सके। इस दरम्यान वे परिवार के साथ छुट्टियां बिताने विदेश भी नहीं जा सके।
यादव खानदान की बहू
डिंपल अब 33 बरस की हो चुकी हैं और राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादी के आदर्शों पर चलने वाले यादव खानदान में रच-बस चुकी हैं। वह अखिलेश को 'अखिलेश दादा' के नाम से पुकारती हैं, एडी उसका शॉर्ट फॉर्म है। वह एडी पर से अपना कंट्रोल खत्म करना और राज्य की फर्स्ट लेडी का रोल अदा करना भी सीख रही हैं। अब जबकि अखिलेश सीएम बनने वाले हैं, तो डिंपल इस बात को लेकर परेशान हैं कि वह परिवार को कितना वक्त दे पाएंगे? परिवार के एक करीबी सूत्र का कहना है कि उनके रिश्ते की मजबूती को जानते हुए यह सिर्फ कुछ वक्त की बात होगी, जब चीजें दोबारा अपनी जगह पर आ जाएंगी।
डिंपल का बैकग्राउंड
डिंपल रिटायर्ड आर्मी कर्नल एस. सी. रावत की बेटी हैं। डिंपल की दो बहने हैं। वह अपने परिवार के साथ कई शहरों में रहीं। पुणे में उनकी पैदाइश हुई। वह अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, बठिंडा, बरेली और लखनऊ जैसे शहरों में रहीं। उस दौरान उनमें घुड़सवारी का जुनून पैदा हुआ। ग्रैजुएशन खत्म करने के बाद वह किसी बड़ी कंपनी को जॉइन करने की उम्मीद कर रही थीं, लेकिन उनकी मंजिल तो कहीं और थी।
फिल्म 'नायक' के अनिल कपूर बन गए अखिलेश यादव!
(अमर उजाला से साभार)
केंद्र में नए मोर्चे के सूत्रधार बनेंगे मुलायम सिंह? | |||
नई दिल्ली/संजय मिश्र। | |||
Story Update : Sunday, March 11, 2012 1:32 AM | |||
उत्तर प्रदेश में सपा नेता अखिलेश यादव की ताजपोशी यूपीए के लिए आने वाले दिनों में मुश्किल भरी साबित हो सकती है। यूपी के सबसे युवा मुख्यमंत्री को सत्ता की कमान सौंपे जाने का गवाह बनने जा रहे लखनऊ में लिखी जाने वाली सियासी इबारत में दिल्ली के लिए संदेश साफ होगा।
अपने युवा पुत्र को सूबे की सत्ता सौंप कर मुलायम ने केंद्र में यूपीए और एनडीए से अलग एक नए मोर्चे के राजनीतिक ध्रुवीकरण का अहम सूत्रधार बनने का अघोषित ऐलान कर दिया है। नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, देवेगौड़ा से लेकर वामपंथी पार्टियों के साथ मिलकर मुलायम आने वाले दिनों में यूपीए के खिलाफ प्रेशर ग्रुप बनाते नजर आएंगे। केंद्र की परेशानी बढ़ेगीः शरद लखनऊ में 15 मार्च को अखिलेश के शपथ ग्रहण में नेताओं की जमघट में केंद्रीय सत्ता के समीकरण बदलने की सियासी ताकत रखने वाले यह चेहरे नजर आए तो यूपीए के पहरेदारों को एक फ्रंट के रूप में सतह पर आ रहे संकट को समझने में ज्यादा देर नहीं लगेगी। जद-यू प्रमुख शरद यादव ने तो शनिवार को कहा भी कि केंद्र के लिए परेशानी और बढ़ेगी तथा यहां सत्ता के समीकरण भी बदलेंगे। इस बयान में मुसलिमों का भारी समर्थन हासिल कर चुके मुलायम के साथ आने की जद-यू नेता की आतुरता की झलक मिल रही है। मौके की तलाश में हैं कई नेता कांग्रेस और भाजपा से दूरी बनाए रखने वाले दो अहम क्षेत्रीय क्षत्रप, उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और टीडीपी नेता व आंध्र के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू तो तीसरे मोर्चे का किनारा पहले से ही ढूंढ़ रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा को भी तीसरे खंभे की तलाश है। जद-एस के महासचिव कुंअर दानिश अली ने तो साफ कहा कि देवेगौड़ा लगातार गैर कांग्रेस और गैर भाजपा वाले तीसरे फ्रंट की वकालत करते रहे हैं। यूपी में सपा की जीत के बाद मुलायम इसकी धुरी बनेंगे। केरल और पश्चिम बंगाल में सत्ता गंवाकर ‘पैदल’ हुए वामपंथियों के लिए भी मुलायम की यह पहल संजीवनी बन सकती है। वामपंथी के करीबी रहे हैं मुलायम यह देखना दिलचस्प होगा कि मुलायम अपने पुराने वामपंथी दोस्तों को तरजीह देते हैं या बंगाल में ममता बनर्जी की ताकत का साथ लेकर केंद्रीय राजनीति में अपने बढ़े रसूख का फौरी अहसास कराते हैं। वैसे सियासी मिजाज के हिसाब से मुलायम और वामपंथी ज्यादा करीब हैं। नीतीश-जयललिता पर रहेगी नजर गैर कांग्रेस और गैर भाजपा गठबंधन की राजनीति जोर पकड़ती है तो इसमें जयललिता भी पीछे नहीं रहेंगी। चौथे मोर्चे ने अपनी रफ्तार पकड़ी तो फिर नीतीश कुमार और जयललिता भी एनडीए को झटका देने से गुरेज नहीं करेंगे। यूपी के बदले सत्ता समीकरण से संसद के अंदर और बाहर यूपीए के खिलाफ वजूद में आ रहे एक बड़े प्रेशर ग्रुप की संभावना से सत्ता के गलियारों में कोई भी इनकार नहीं कर रहा। हलचल पर केंद्र की नजर पॉलिसी पैरालिसिस (नीतिगत फैसला लेने में अक्षमता) के चपेट में आ चुकी यूपीए सरकार को जनता के लिए बेकार साबित करने की कोशिश में यह प्रेशर ग्रुप जुट जाए तो अचरज नहीं होना चाहिए। इस बदले समीकरण के बाद केंद्र के रणनीतिकारों की नजरें अब लखनऊ से लेकर चंडीगढ़ तक गड़ी हैं कि आखिर किसकी ताजपोशी में कौन-कौन नेता शामिल होता है और यह साथ कितनी दूर तक जा सकता है। |
मुलायम के ‘मिशन दिल्ली’ पर खामोश वामपंथी | |||
नई दिल्ली/ब्यूरो। | |||
Story Update : Sunday, March 25, 2012 12:28 AM | |||
उत्तर प्रदेश के सियासी अखाड़े में बेहद मजबूत बनकर उभरे मुलायम सिंह यादव के मध्यावधि चुनाव के अनुमान पर सपा से करीबी बढ़ा रहे वामपंथी भी मुहर लगाने से बच रहे हैं। ‘मिशन दिल्ली’ पर निगाहें लगाए सपा सुप्रीमो ने बयान के जरिये भले ही समय पूर्व चुनाव की अटकलें बढ़ा दी हों, लेकिन वामपंथी दलों में इस पर खामोशी है।
प्रकाश करात ने इस बारे में चुप्पी साध रखी यूपीए-एक के जमाने में चौड़ी हुई सपा-माकपा रिश्तों की खाई को पाटने की पिछले दिनों कोशिश करते दिखे माकपा महासचिव प्रकाश करात ने इस बारे में चुप्पी साध रखी है। ठीक यही हाल भाकपा का है। कांग्रेस तो इसे केंद्र की सत्ता में दबदबा बढ़ाने की मुलायम की दूरगामी रणनीति से जोड़कर देख रही है। समय पर चुनाव में ही फायदा दिख रहा कांग्रेस की कोशिश यही है कि तृणमूल और राकांपा जैसे यूपीए के सहयोगियों को सपा प्रमुख के सुर से सुर मिलाने से रोका जाए। दरअसल पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की लोकप्रियता का पारा गिरने का इंतजार कर रहे कामरेडों को समय पर लोकसभा चुनाव में ही फायदा दिख रहा है। ममता भी फिलहाल मुलायम के आकलन पर मौन हैं, लेकिन बंगाल में अपने जादू के उतरने से पहले ‘दीदी’ फिर चुनावी दंगल में उतरने को तैयार हो सकती हैं। कामरेडों का लोकसभा से भी ‘सफाया’ करने की दीदी की बेताबी समझी भी जा सकती है। ममता की मंशा को भांप चुका वामपंथी कुनबा संभवत: इसी कारण मध्यावधि चुनाव के आकलन पर कन्नी काट रहा है। समय पूर्व आम चुनाव को लेकर सपा नेताओं को आगाह कर मुलायम ने अगर तमाम सियासी पार्टियों की टोह लेने की कोशिश की है तो जद-यू से भी उन्हें निराशा हाथ लगी है। जद-यू नेता शरद यादव ने मध्यावधि चुनाव की संभावना को एकदम नकार दिया है। |
मुलायम सिंह के ‘धोबीपाट’ पर सभी चित | |||
नई दिल्ली/एजेंसी। | |||
Story Update : Wednesday, March 07, 2012 2:45 AM | |||
पहलवानी का शौक रखने वाले समाजवादी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव का पसंदीदा दांव ‘धोबीपाट’ है। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में बसपा, भाजपा और कांग्रेस को पटखनी देकर सबसे बड़े नेता के रूप में उभरे यादव को जवानी के दिनों में कुश्ती का शौक रहा है।
यादव पूरे प्रचार के दौरान संयत रहे चुनावों के दौरान उन्होंने सभी प्रमुख प्रतिद्वंद्वियों पार्टियों को अन्य मुद्दों पर उलझाए रखा और मतदाताओं के बीच भ्रष्टाचार और अव्यवस्था का मुद्दा उठाकर वोट मांगते रहे। धोबीपाट दांव में प्रतिद्वंद्वी पहलवान को अन्य चालों में उलझाकर कमर से पकड़ा जाता है और कंधे तक उठाकर जमीन पर पटक दिया जाता है। यादव पूरे प्रचार के दौरान संयत रहे। उन्होंने अन्य नेताओं की तरह अनर्गल प्रलाप नहीं किया और चुनाव प्रचार में अलग चाल बरकरार रखी। कांग्रेस महासचिव और स्टार प्रचारक राहुल गांधी ने जब सपा का कथित चुनावी घोषणा पत्र को मंच पर जनता के सामने फाड़ा तो यादव ने संयम बरता और कहा, ‘राहुलजी युवा है और वह कुछ भी कर सकते हैं।’ सपा प्रमुख ने पूरे चुनाव के दौरान एक बार भी सत्ता समीकरणों पर बात नहीं की और न ही किसी दल के साथ मिलकर सरकार बनाने के संकेत दिए। मुलायम अगर यूपी की सता संभालते हैं तो वह चौथी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बनेंगे। मायावती के तंज का दिया करारा जवाब उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती द्वारा की गई तल्ख टिप्पणी का सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने पांच साल बाद अपने ही अंदाज में करारा जवाब दिया। वर्ष 2007 के चुनावों में बसपा को मिली भारी कामयाबी के बाद मायावती से जब मुलायम पर किसी कार्रवाई के बारे में पूछा गया तो उन्होंने दंभ में चूर होकर कहा था, ‘मरे हुए को क्या मारना।’ मुलायम ने मंगलवार को सपा को शानदार जीत दिलाकर बसपा प्रमुख को मुंह की खाने पर मजबूर कर दिया। |
राहुल से कुछ सवाल
तवलीन सिंह | |||||||||||||||||||||||||||||
Story Update : Sunday, July 04, 2010 9:47 PM | |||||||||||||||||||||||||||||
पिछले दिनों भारत के युवराज साहब का जन्मदिन था। राहुलजी, क्योंकि अकसर देश के देहाती क्षेत्रों की धूल खाया करते हैं, गरीबों के गरीबखानों में कई-कई रातें गुजारते हैं, जन्मदिन की खुशी में विदेश यात्रा पर निकल पड़े। उनकी गैरहाजिरी में उनके भक्तों ने हर तरह से उनका जन्मदिन मनाया। मंदिरों में उनकी लंबी उम्र के लिए दीये जलाए गए, खास पूजन हुए, किसी जयपुरवासी ने राहुल चालीसा लिख डाली, युवाओं ने रक्तदान किया, आतिशबाजियां हुईं, कविताएं पढ़ी गईं और देश के अखबारों में उनकी खूब तारीफें पढ़ने को मिलीं।
राहुलजी की लोकप्रियता इतनी है कि हम पत्रकारों पर स्वाभाविक ही असर होना ही था। सो, भारतीय मीडिया में आपको राहुलजी के प्रशंसक ज्यादा और आलोचक कम मिलेंगे। दूसरी बात यह है कि हम पत्रकारों में एक अनकही मान्यता-सी है, राहुलजी देश के अन्य युवराजों से कहीं ज्यादा अच्छे हैं। भारत में युवराजों की बहार-सी आई हुई है, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक। कश्मीर में अगर उमर अब्दुल्ला हैं, तो पंजाब में सुखबीर सिंह बादल और उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव। दक्षिणी राज्यों की तरफ देखें, तो तमिलानाडु में करुणानिधि के कई वारिस हैं, जिनमें दो भावी युवराज आजकल गद्दी के लिए झगड़ रहे हैं। आंध्र की गद्दी को हासिल करने के लिए जूझ रहे हैं स्वर्गवासी मुख्यमंत्री, वाईएसआर रेड्डी के पुत्र जगन। युवराजों की इस भीड़ में राहुलजी हीरे की तरह चमकते हैं, शायद इसलिए हम भारतीय पत्रकारों के मुंह से आप एक शब्द आलोचना का नहीं सुनेंगे, राहुलजी को लेकर। विदेशी पत्रकारों की लेकिन और बात है। अपने युवराज साहब के जन्मदिन पर भी वे आलोचना करने में लगे रहे। पहले तो अमेरिका के प्रसिद्ध ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने राहुलजी का मजाक उड़ाते हुए लिखा कि भारत देश उनकी विरासत है और वह जब चाहे, उसको हासिल कर सकते हैं। ब्रिटेन के ‘इकोनॉमिस्ट’ अखबार ने ऐसी ही धुन आलापते हुए लिखा कि राहुल गांधी का वाहन है भारत देश, जिसको आजकल मनमोहन सिंह चला रहे हैं, लेकिन राहुलजी जब चाहें, अपनी गाड़ी की चाबी वापस मांग सकते हैं। दोनों अखबारों ने आलोचना की कि राहुलजी इतनी अहम जगह पर विराजमान होने के बावजूद अभी तक आर्थिक और राजनीतिक नीतियों को लेकर मौन हैं। अभी कोई नहीं जानता कि उनके राजनीतिक-आर्थिक विचार क्या हैं। सच पूछिए, तो यह पढ़कर एक जिम्मेदार राजनीतिक पंडित होने के नाते मैं खुद गहरी सोच में पड़ गई। वास्तव में, राहुलजी देश के सबसे बड़े नेता हैं, आजकल। उनका कुसूर नहीं कि कांग्रेस पार्टी उनकी खानदानी कंपनी बनकर रह गई है और वह इस कंपनी के सीईओ हैं। न ही इसमें उनका कोई कुसूर है कि भारत के अन्य राजनीतिक दलों का आज बुरा हाल है। मार्क्सवादी दलों के अलावा भारतीय जनता पार्टी ही एक पार्टी है, जिसमें अभी तक खानदानी कंपनी की परंपरा नहीं चली है। उनके पास भावी नेता भी है, जिनका नाम नरेंद्र मोदी है, लेकिन गुजरात दंगों के कारण राष्ट्रीय स्तर पर उनकी छवि अच्छी नहीं है। ऐसी स्थिति में राहुलजी का प्रधानमंत्री बनना तकरीबन तय है, लेकिन अभी तक देशवासियों को बिलकुल नहीं मालूम है कि भारत की समस्याओं के बारे में वह क्या सोचते हैं। कुछ सवाल हैं, जिनके जवाब उनसे मांगना हमारा अधिकार है। राहुलजी जब गरीबों के घरों में रातें गुजारते हैं, तो वहां से सीखते क्या हैं? क्या कभी उनको खयाल आता है कि भारत का आम आदमी ६० वर्षों की स्वतंत्रता के बाद भी क्यों गरीब है? क्यों नहीं हम उसको दे पाए हैं, पीने के लिए साफ पानी और सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी? क्यों देश के अधिकतर किसान आज भी बारिश के पानी पर निर्भर हैं? गांव-गांव जब घूमते हैं इतने उत्साह से राहुल भैया, तो कभी सोचते हैं कि सड़कें इतनी टूटी-फूटी क्यों हैं? बिजली क्यों नहीं मिलती है, आम आदमी को २४ घंटे? एक छोटे मकान का सपना क्यों आम भारतीय देखता रहता है उम्र भर? ये चीजें बुनियादी हैं, अन्य देशों के आम लोगों को अकसर उपलब्ध हैं, तो क्या कारण है कि लाखों-करोड़ों रुपये के निवेश के बावजूद हमारे देश में आम आदमी आज भी बेहाल है? राहुलजी जब दिल्ली की सड़कों पर घूमते हैं और लाल बत्तियों पर देखते हैं, तो चिलचिलाती धूप या बर्फ जैसी ठंड में छोटे बच्चों को काम करते देखकर क्या उनका दिल दुखता है? क्या उनको कभी यह खयाल आता भी है कि देश पर उनके परनाना ने राज किया, दादी ने राज किया, पिता ने राज किया और उनके बाद उनकी अम्मा की बारी आई। पिछले ६२ वर्षों में भारत पर तकरीबन उन्हीं के परिवार का राज रहा है, तो क्यों देश का इतना बुरा हाल है आज भी कि आम आदमी का जीवन विकसित पश्चिमी देशों के जानवरों से बदतर है? अधिकार है, दोस्तों, हमको इन थोड़े से सवालों के जवाब मांगने का अपने भावी प्रधानमंत्री से। -------------------------------- उत्तर प्रदेश के चुनाव ने राहुल ही नहीं कांग्रेस की असली तस्वीर सामने ला दी है, पर इसका जो नुकसान दलित और पिछड़े समाज का होने जा रहा है इसकी भरपाई बहुत ही मुश्किल होगी. सारे पिछड़े शासक अपने कार्यकाल में 'उन लोगों की रक्षा में लगे रहते हैं जो उनके असली दुश्मन होते हैं.' इनको क्या हो गया है -
Apr 01, 09:48 pm
मीरगंज/मछलीशहर (जौनपुर) : कैबिनेट मंत्री पारसनाथ यादव ने कहा कि आगामी 2014 में मुलायम सिंह यादव को देश का प्रधानमंत्री बनाना है। अभी से सब लोग लग जाए। जिस तरह से सूबे में समाजवादी पार्टी की पूर्ण बहुमत में सरकार बनी है उसी तरह से लोकसभा के चुनाव में लग कर देश की सरकार बनानी है। उक्त बातें उन्होंने सुभाष इण्टर कालेज कटवार में रविवार को नवनिर्मित भौतिक विज्ञान प्रयोगशाला कक्ष के उद्घाटन अवसर पर कही।
कार्यक्रम में मौजूद परती भूमि विकास राज्य मंत्री जगदीश सोनकर से मुखातिब होते हुए कहा कि बरसठी मेरा घर है यहां के लोगों का ध्यान देते रहना। जगदीश सोनकर ने कैबिनेट मंत्री को भरोसा दिलाया कि क्षेत्र की जनता के साथ विश्वासघात नहीं होगा। कार्यक्रम में शेषनाथ यादव, मिलिन्द यादव, रमाकान्त यादव, प्रबंधक महेन्द्र यादव, प्रधानाचार्य रघुनाथ यादव, प्रमोद यादव लाले आदि मौजूद रहे। संचालन रमापति पटेल ने किया।
उधर प्रदेश शासन में कैबिनेट मंत्री पारसनाथ यादव ने जनता से रूबरू होते हुए चक मुबारकपुर गांव में कहा कि अधिकारी सेवा भावना से कार्य करें दलीय निष्ठा एवं जाति पाति से दूर रहें। साथ ही कार्यकर्ताओं को भी संयम बरतने की नसीहत दी है। पंधारी लाल यादव के पैतृक गांव चक मुबारकपुर में आयोजित जनसभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा कि गांव की सड़कें पांच वर्ष में खराब हो गयी कोई भी मरम्मत का कार्य नहीं हुआ। अध्यक्षता केदारनाथ यादव पूर्व प्रमुख ने तथा संचालन पंधारी लाल यादव ने किया। कार्यक्रम में रामनरेश यादव, कृपाशंकर तिवारी, विजय बहादुर सिंह, संजय शर्मा, ओम प्रकाश सिंह, सुभाष सिंह प्रधानाचार्य, सुशील दूबे, इशरत परवीन आदि मौजूद रहे। इस मौके पर ग्रामीणों ने तहसीलदार के स्थानान्तरण की मांग करते हुए ज्ञापन सौंपा।
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(इनकी नियति साफ़ नहीं है यह सांसद भी बनने के फ़िराक में हैं, अपने किसी परिवार जन को यह उप देना छह रहे होंगे अथवा लोक सभा के चुनाव से क्या लेना देना. इनका.)
(संपादक)
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October 8 at 8:41pm ·
लालू-शासन को 'जंगल राज' कहने वालों के अपने ठोस तर्क हो सकते हैं पर उस दौर के बिहार में अल्पसंख्यक जितना सुरक्षित महसूस करता रहा होगा उसकी कोई मिसाल स्वतंत्र भारत में नहीं मिलती | 1984 के सिख संहार और 2002 के गुजरात पोग्राम जैेसी शासन नियोजित बर्बरता को अपवाद मान कर छोड़ भी दीजिये तब भी अहमदाबाद, भागलपुर, हाशिमपुरा, मुम्बई, मुजफ्फरनगर जैसे सैकड़ों प्रसंग हैं जो किसी जंगल राज में ही संभव हैं | दलित एवं स्त्री अपमान के रोजाना घटने वाले हिंसक प्रसंग तो गिने भी नहीं जा सकते |
मोदी जी, वाकई दादरी से प्रशासनिक सबक लेना है तो राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से नहीं, बिहार के भूतपूर्व जेलयाफ्ता मुख्यमंत्री लालू यादव से सीखिये !