चित्र; डॉ.लाल रत्नाकर |
राहुल गांधी जीतनी उम्र में देश चलाने की बात सोच रहें हैं या उनके चापलूस ऐसा सोच रहे इस देश को लूटने के लिए, उनसे ज्यादा प्रतिभावान आजतक बेरोजगार है और अपना घर भी बसाने की नहीं सोच पा रहा है. इस अपढ़ आदमी को चापलूस देश सौपना चाह रहे हैं, मतिभ्रष्ट हो गए हैं जो ऐसा सोच रहे हैं.
यदि सवाल कांग्रेस और देश का है तो कांग्रेस पार्टी को प्रतिबंधित कर देना चाहिए की ये किसी भी चुनाव में हिस्सा नहीं लेगी क्योंकि अब यह वो कांग्रेस पार्टी है नहीं है जिसने देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी. अब यह सोनिया गाँधी की प्राइवेट कंपनी हो गयी हैं, जिसके नए प्रेसिडेंट राहुल गांधी का रास्ता बनायेंगे ! बी बी सी ऐसा लिखे तो उसके मायने होते हैं, इन्ही मायनों में प्रणव दा ऐसा करें या करेंगे आश्चर्यजनक नहीं है . अब तक का इनका कोई ऐसा इतिहास नहीं रहा है.दुनिया में इनकी क्या छवि है निचे के लेख में संलग्न है-
"नई दिल्ली। ब्रिटेन के समाचार पत्र द इंडिपेंडेंट ने हाल ही में प्रधानमंत्री को सोनिया गांधी की कठपुतली कहा, तो अब ब्रिटेन के ही एक समाचार पत्र ने नए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को फिक्सर करार दिया है। समाचार पत्र द टाइम्स ने लिखा है कि नए राष्ट्रपति ने अगली गांधी पीढ़ी का रास्ता खोला शीर्षक से समाचार लिखा है। इसमें कहा गया है कि प्रणब मुखर्जी के लिए पॉवर ब्रोकर जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है।
समाचार पत्र लिखता है कि प्रणब मुखर्जी को तोड़ तोड़ करके राष्ट्रपति बनाया गया है। भारत के नेताओं ने एक दक्ष फिक्सर को राष्ट्रपति बनाकर कांग्रेस के लिए गांधी परिवार की पांचवी पीढ़ी को मतदाताओं के सामने उतारने के रास्ता साफ कर दिया है। पत्र आगे लिखता है कि राष्ट्रपति का पद एक रस्मी पद है। अगर 2014 के लोकसभा चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला (जिसकी पूरी संभावना है) तो प्रणब मुखर्जी गठबंधन की बातचीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
प्रणब को राष्ट्रपति बनाने के बाद अब इस बात की पूरी संभावना है कि राहुल गांधी को महत्वपूर्ण पद दे दिया जाए। राहुल गांधी चुनाव में जीत दिलाने वाले नेता के रूप में नाकामयाब रहे हैं लेकिन उनके समर्थकों का मानना है कि प्रदेशों के चुनावों में उनकी नाकामयाबी को तब भूलाया जा सकता है, जब उन्हें कांग्रेस का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर उतारा जाएगा।"
यदि हम इस आलेख को ही आधार मान लें तो भी राहुल गांधी से कोई चमत्कार नहीं होने जा रहा है जैसा की अब तक हुआ है एक भी कायदे के कांग्रेसी को इन्होने मौका नहीं दिया है सारे लुटेरे लगाए हैं, जिन्होंने जनता को राजतन्त्र की तरह लूटा है, यह बात जनता जान गयी है अबकी वह इनका इंतजाम करने जा रही है.
रही बात की जनता अब पांच वर्षों तक इंतज़ार तो करती है, पर वो जानही गयी है की ये पोलतिशियन चाहते ही है की ये जिन्दा कौम ही न रहे इसे मुर्दा बनाकर छोडो, जिससे यह कहावत चरितार्थ न हो कि "जिन्दा कौमें पांच वर्षों का इंतज़ार नहीं करती." यही कारण है की प्रायोजित तरीके से महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और सामजिक संतुलन को बनाए रखने में ही सारे कांग्रेसी अपना दिमाग खपाते रहते हैं. चाहे जब जातीय जनगरना का सवाल हो या बराबरी का हिस्सा देने का सवाल हो तब इन्हें विचित्र किस्म के लोग दिखाई देते हैं.निचे संलग्न किए गए अखबारों ने यही मुहीम चला रखी है.
अब एक पहलू और है की क्या करें सोनिया गाँधी जिस बेटे के लिए सारा खेल रच रही हैं वह वैसे तो काफूर होता जा रहा है, फिर भी कांग्रेसी हैं की मानाने को तैयार ही नहीं हैं .
(जारी........)
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वाह दादा अब आप 'राष्ट्रपति' के ओहदे पर बैठे हो और लोकतंत्र की रक्षा के लिए, जिस देश ने आज़ादी ही विरोध प्रदर्शनों से हासिल की हो उसके 'राष्ट्रपति' के यह बयान हतप्रभ करने वाला है -
लगातार विरोध प्रर्दशन अव्यवस्था को बढ़ावा दे रहे हैं: प्रणब
मंगलवार, 14 अगस्त, 2012 को 22:08 IST तक के समाचार
सक्रिय राजनीति की ओर बढ़े प्रियंका गांधी के कदम | |||
नई दिल्ली/अमर उजाला ब्यूरो | |||
Story Update : Sunday, August 05, 2012 12:26 AM | |||
प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में लाने से पहले सियासत में उनकी भूमिका तय करने की तैयारी हो गई है। दरअसल, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की गैर मौजूदगी में रायबरेली की कमान प्रियंका के हाथों में होगी। वह यहां के लोगों की फरियाद सुनेंगी। भले ही सोनिया की अनुपस्थित में प्रियंका के काम का दायरा रायबरेली तक सीमित होगा, मगर प्रियंका के कंधों पर दी गई यह जिम्मेदारी 2014 के लोकसभा चुनावों की जंग में उतरने से पहले ‘होमवर्क’ के तौर पर देखी जा रही है।
कांग्रेसी सूत्रों के अनुसार जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया किन्हीं वजहों से उपलब्ध नहीं होंगी, तो उनके संसदीय क्षेत्र के लोगों की फरियाद सुनने के लिए प्रियंका जनता दरबार लगाएंगी। सूत्रों का कहना है कि रायबरेली में हाल में दौरे के दौरे सोनिया को वहां के लोगों ने इसकी गुजारिश की थी। लोगों की शिकायत थी कि जब वह खराब तबीयत और अन्य वजहों से उपलब्ध नहीं हो पाती हैं तो प्रियंका उनकी बातों को सुन लें। ऐसे में उनकी समस्याओं को जल्द दूर किया जा सकेगा। लोगों का यह भी कहना था कि प्रियंका सिर्फ चुनाव के समय ही उनके सामने नजर आती हैं। दिल्ली लौटने पर सोनिया ने इस बात पर विचार विमर्श किया। बाद में फैसला लिया गया कि उनकी गैर मैजूदगी में प्रियंका रायबरेली का कामकाज देखेंगी। कांग्रेस को है जरूरत इस कदम के बड़े राजनीतिक मायने निकाले जा रहे है। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में जब कांग्रेस का सियासी ग्राफ नीचे को झुकता दिख रहा है, तो ऐसे में प्रियंका के करिश्मे की पार्टी को सख्त जरूरत है। गाहे-बगाहे कांग्रेसी भी प्रियंका को सक्रिय राजनीति में उतारने की मांग करते रहे हैं। ऐसे में अब एक तरफ राहुल गांधी की बड़ी भूमिका तय की जा रही है तो दूसरी तरफ प्रियंका की सियासी भूमिका की शुरुआत को भी अमलीजामा पहनाया जा रहा है। सोनिया की चिंता है रायबरेली प्रियंका से जुड़े इस फैसले को रायबरेली सीट को लेकर सोनिया गांधी की चिंता के रूप में भी देखा जा रहा है। इस साल हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में जिले से पार्टी का एक भी विधायक चुनकर नहीं आया था। पार्टी के खिलाफ माहौल इस कदर बिगड़ चुका हैं कि हरचंदपुर को छोड़कर पार्टी के विधायक नंबर दो पर भी नहीं आ सके थे। जिले की पांच में से चार सीटें सपा ने जीती थीं। यह आंकड़ा कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब है। 2014 के चुनाव में इस सीट को बनाए रखना कांग्रेस के लिए चुनौती है। इसलिए सोनिया ने अपने घर को मजबूत करने की पहल तेज कर दी है। |
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राष्ट्रपति प्रणब का सपना
एक क़िस्सा है. एक गड़रिया था. वह भेड़ चराते हुए जब एक टीले पर जाकर बैठ जाता था तो उसका बातचीत करने का अंदाज़ बदल जाता था. वह जनहित और न्याय की बातें करने लगता था.टीले से उतरता तो फिर वही गड़रिया का गड़रिया.
धीरे-धीरे वह लोकप्रिय होता गया. एक दिन लोगों को शक हुआ कि टीले में ही कुछ है. उन्होंने टीले को खुदवाया तो उसने नीचे से विक्रमादित्य का सिंहासन निकला.
लोगों को समझ में आ गया कि अनपढ़ गड़रिया उस टीले पर बैठकर इतनी ज्ञान की बातें क्यों किया करता था.
वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने एक बार कहा था कि जिस तरह उस टीले के नीचे विक्रमादित्य का सिंहासन था, उसी तरह से रायसीना की पहाड़ी को खोद के देखा जाए तो किसी पुराने राजा का सिंहासन निकलेगा.
प्रभाष जोशी ने कहा कि कुछ तो ऐसा है जिसकी वजह से वहाँ पहुँचकर हर व्यक्ति की भाषा एक जैसी हो जाती है.
रायसीना पहाड़ी वही बड़ा सा टीला है जिस पर राष्ट्रपति भवन स्थित है.
ये किस्सा याद आया राष्ट्रपति के रूप में कार्यभार ग्रहण करते हुए दिए गए प्रणब मुखर्जी के भाषण को सुनकर.
उन्होंने कहा कि भूख से बड़ा अपमान कोई नहीं है और वे चाहते हैं कि ग़रीबों का इस तरह से उत्थान किया जाए कि जिससे ग़रीबी शब्द आधुनिक भारत के शब्दकोश से मिट जाए.
प्रणब मुखर्जी चार दशकों से भी अधिक समय से भारतीय राजनीति की मुख्य धारा में हैं.
वे उस समय भी सत्ताधारी दल का हिस्सा थे, जब प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी ने 'ग़रीबी हटाओ' का नारा दिया था.
वे उस घटना के भी गवाह हैं जब प्रधानमंत्री के रूप में राजीव गांधी ने कहा था कि केंद्र से भेजे गए एक रुपए में से जनता तक 15 पैसे ही पहुँचते हैं.
वे उस समय भी सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा थे, जब वित्तमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह देश के दरवाज़े आर्थिक उदारीकरण के लिए खोल रहे थे और महात्मा गांधी को उद्धरित करते हुए आखिरी आदमी की बात कर रहे थे.
वे उस समय भी सरकार में थे जब योजना आयोग की एक रिपोर्ट बता रही थी कि देश में 80 प्रतिशत लोग 20 रुपए प्रतिदिन से भी कम में गुज़ारा कर रहे हैं.
संयोगवश वे उस समय भी सत्ता से जुड़े हुए थे जब योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में शपथ पत्र देकर कहा कि जो शहरी 32 रुपए और जो ग्रामीण 26 रुपए रोज़ कमाता है, वह ग़रीब नहीं है.
इन चार दशकों में कई और ज़िम्मेदारियों के अलावा एक बार वित्त राज्यमंत्री, दो बार वित्तमंत्री और एक बार योजना आयोग के उपाध्यक्ष रह चुके प्रणब मुखर्जी को ग़रीबी और भूख पर इस तरह द्रवित होते किसी ने नहीं देखा.
उनके पेश किए हुए बजटों में किसी ने ग़रीबी और भूख़ को ख़त्म करने के क्रांतिकारी उपायों की झलक नहीं देखी.
बल्कि उनकी छवि देश के कॉर्पोरेट प्रतिष्ठानों के प्रिय मित्र की ही रही और यह कोई संयोग नहीं है कि कॉर्पोरेट प्रतिष्ठानों की छवि कम से कम ग़रीबों के हितचिंतकों की नहीं है. यह भी संयोग नहीं है कि टीम अन्ना उनके ख़िलाफ़ आरोपों का एक मोटा पुलिंदा लिए घूम रही है.
पहले प्रणब मुखर्जी ऐसी जगहों पर थे जहाँ से वे सरकार की नीतियों को प्रभावित कर सकते थे, चाहते तो ग़रीबों का भला कर सकते थे, भूख को मिटा सकते थे, लेकिन अफ़सोस कि वे ऐसा न कर पाए न ऐसा करने की कोशिश करते हुए दिखे.
अब वे जहाँ हैं वहाँ से वे ज्ञानोपदेश ही दे सकते हैं और आज के बाद वही कह सकेंगे जिस पर मंत्रिमंडल की स्वीकृति की मुहर लगी होगी.
ऐसे में उनके भाषण का एक और वाक्य याद आता है, जिसे उनके प्रायश्चित की तरह देखा जा सकता है, "कभी-कभी पद का भार व्यक्ति के सपनों पर भारी पड़ जाता है."
क्या कहें कि प्रणब मुखर्जी पर चार दशकों में एक भी ऐसा मौक़ा नहीं आया जब उनका सपना उनके पद भार के बोझ तले दबा न हो.
अब जो पद उनके पास है वह सपने तो दिखा सकता है लेकिन उसे पूरा करने में रत्ती भर भी मदद नहीं कर सकता.
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राहुल गांधी का रास्ता बनाएँगे प्रणब मुखर्जी?
सोमवार, 23 जुलाई, 2012 को 14:45 IST तक के समाचार
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