डॉ लाल रत्नाकर
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मित्रों राजनीती ही एक ऐसा माध्यम था जिससे अवाम की तकदीर बदली जा सकती थी, पर हुआ क्या ? यही सवाल निरंतर सालता रहता है. शिक्षा से सम्रिद्धि की परिकल्पना करना अब गुजरे जमाने की बात हो गयी है और अशिक्षा जिस तरह समृद्धि की सहचरी हुयी उसने राजनीती को ही नंगा करके रख दिया ? यह बातें देश की आज़ादी के बाद से ही हमारे लिए एक वाज़िब उत्तर की तरह तैयार है और समय समय पर सामने आती रही हैं। कथित तौर पर भ्रष्टाचार समाप्त करने की संस्थाए उसे बढ़ाने पर आमादा रही हैं बस उसके जो कारण हैं उनकी गिनती करना या कराना आसान नहीं है।
दरअसल मैं कई दिन से सोच रहा था कि अपने उन मित्रों को सम्बोधित करूं जो मेरे सामाजिक कुरीतियों के सांस्थानिक विरोध से मुझसे बाकायदा दुखी हैं या नाराज हैं । क्योंकि उन्हें उन कुरितियों में अपना सम्मान दिखता है जिनके चलते हम या हमारे लोग अपमानित होते रहते हैं । वे चाहते हैं की इसपर मुहँ न खोला जाय बल्कि उनके सम्मुख नतमस्तक होकर खड़ा रहा जाय।
अब जरा गौर करिये यदि आपको इस स्थिति में जाना या आना हो तो आप को कैसा लगेगा, हमने उन शातिरों को देखा जो इन स्थितियों का बेज़ा इस्तेमाल कर जातिगत तरीकों से अपने षड़यंत्र हमेशा करते रहते हैं । हमारे भोलेभाले लोग जब आपकी चालाकियों में फंसे होते हैं तो वे आपको बहुत रास आते हैं पर जब प्रतिकार करते हैं तब आप या आपके लोग उन्हें तहस नहस करने का घिनौना से घिनौना काम करते हैं, कितने है जो बच पाते हैं ।
पहलवान नरसिंह यादव के साथ जो हुआ उसमें जो शरीक हैं वे कौन हैं ? पूरा देश जानता है ।
मेरे साहस और मेरी सामाजिक सोच में जातिवाद होता तो मेरी जाति के लोग उनकी तरफ न दिखते जो हमें अपमानित होता हुआ देखना चाहते हैं । इसलिए हम जातिवादी नहीं हैं बल्कि जातिवाद के कट्टर विरोधी हैं जिसमें आपका घाटियां, चरमपंथी ऐतिहासिक जातिवाद भी है, क्या यह सच नहीं है की आपने जातिवाद के नाम पर घाटियां से घाटियां व्यक्ति को समाज से विमुख किया जो आपका स्वजातीय रहा हो ? उसके लिए आपने क्या कुछ नहीं किया ?
मेरे मित्रों ! मुझे आप से प्रेम है पर जिन्होंने भी जिस किसी भी तरह की चालाकियों से समाज को कमजोर किया है असभ्य बनाया, अपमानित किया, सेवक बनाया, मानवता को तार तार किया है यदि वे आपके स्वजातियों में सुमार हैं तो उनकी रक्षा में किस किस तरह का सरोकार शामिल है आपका । आपने ऐसे कितनों को चिन्हित किया है जाती के नाम पर ?
आईये आप हमारी बुरईयों को बताईये और अपनी सुनिये ? क्योंकि चोरों की तरह मुंह छिपाने से अब हमारी बात नहीं बनेंगी, क्योंकि सच तो आपको भी पता है ।
क्योंकि आपका यह जुमला सारा सच कह देता है रत्नाकर जी आप को तो सब पता है ?
शायद आपको बहुत दिक्कत हो सकती है, हमारी बात सुनते हुये क्योंकि हमारे यहां अनेकों प्रकार के वे लोग हैं जो अनेकों तरह की बनावटी बातें तो कर रहे हैं व्यवस्था की जबकि साड़ी अव्यवस्था उन्ही की देन है पर मैं उन लोगों की बात कर रहा हूं जो किसी न किसी तरह अनर्गल तरीके से धनार्जन कर रहे हैं या किए हुए हैं और अब वह समाज में राजनीति करने के लिए आगे आये हैं और आ रहे हैं ? आखिर उनका उद्देश्य क्या है ?
मुझे नहीं पता इस तरह के लोगों का राजनीति में आना और राजनीतिकों को धनार्जन कराना और उसके बदले लूटने के अलावा उनका कोई और रिस्ता भी है या नहीं समाज को वे इसी तरह से धनार्जन की प्रवृत्ति की ओर मेहनत और इमानदारी के बदले लगाना चाह रहे हैं ? क्योंकि आज का नौजवान श्रम से भाग रहा है और भ्रष्टाचार के अनेक हथकंडे इन्ही राजनीतिकों की कारस्तानियों की तरह अख्तियार कर रहा है ? क्या यही भ्रष्टाचार की पाठशाला तो नहीं है ? जिसमें आज के समाज की नैतिकता उस समाजवाद को समर्पित तो नहीं हो रही है और आज का समाजवाद भ्रष्टाचारियों के इर्द गिर्द मरता हुआ मंडरा नहीं रहा है ?
अफसोस हो रहा है यह कहते हुए की जिन तरीकों से सदियों से ब्राह्मणों एवं उनके भाइयों ने समाज को अपने कर्मों से कुकर्मों से अपने लिए अनेकानेक पाखंडों से बॉध रखा था और करीब करीब इतनी जाग्रति तक वैसे ही बनाये हुए है इसे इस तरह कह सकते हैं फसा रखा था, और अभी भी वही कर रहा है।
लेकिन जो लोग जनता से वोट लेकर उनके उस साम्राज्यवाद को हटाने आये थे अब वे भी उसी के शिकार है ! आज हमारे ही लोग अनेक षडयंत्र करके केवल और केवल अपने परिवार और कुछ उन्हीं ब्राहमणवादियों को लाभ पहुंचा रहे हैं। जिनके खिलाफ लडने के वादे के कारण जनता ने उन्हें चुना है ?
अगर हम गौर करेंगे तो सत्ता के खेल में देश को खोखला करने के अलावा उसे समृद्ध बनाने का न तो कोई उपाय है और न ही कोई योजना !
इसीलिए यह पंक्तियाँ गुनगुनाईये और मगन हो जाइये ?
अगर हम गौर करेंगे तो सत्ता के खेल में देश को खोखला करने के अलावा उसे समृद्ध बनाने का न तो कोई उपाय है और न ही कोई योजना !
इसीलिए यह पंक्तियाँ गुनगुनाईये और मगन हो जाइये ?
सत्ता का रंग देखा है क्या, नहीं देखा तो देख लिजिये ?
चुनाव की तैयारियों में उनके रंग निखर आते हैं !
बरसात के समय के कुछ परम्परागत जीवों की तरह चुनाव की तैयारियों में उनके रंग निखर आते हैं !
सरसों के खेतों की पीत फुलवारी की तरह !
ज़ुबान का रंग रंगीन और स्वाद मधुर हो गया है
और अब स्वभाव भी विनम्र हो गया है।
और अब स्वभाव भी विनम्र हो गया है।
इनके हिसाब किताब में व्यय बढ़ गया है ।
आय का स्रोत कम हो गया है जीत की उम्मीद में
जिस दिन दौड़ा दौड़ाकर ये भीड़ हमें भी मारने के लिये लायी जायेगी,
क्या उस दिन भी किसी मीडिया की टी आर पी बढ़ाने में,
मेरा मारा जाना जायज और किसी चैनल की ख़बर बन पायेगा,
या मैं मर जाऊँगा या मारा जाऊंगा और मेरे संगी साथी
इसलिये मेरे क़रीब नहीं आयेंगे क्योंकि मैं उनके हिसाब से ठीक नहीं था !
पर वे गिने चुने लोग जो मुझे समझते थे वो मेरे मरने को ख़बर कैसे कहेंगे
क्योंकि वे इतने भले हैं जो अफ़वाहों की कभी फ़िकर ही नहीं करते?
शायद मुझे इस मुल्क में होने का कोई हक़ ही नहीं है क्योंकि यहॉ ?
शायद मुझे इस मुल्क में होने का कोई हक़ ही नहीं है क्योंकि यहॉ ?
वे लोग ही रह सकते हैं जो सबकी सबकी कहते हैं और खिलखिलाकर हँसते हैं !
वे जघन्य अपराध करते हैं और अपराधियों की परिभाषा भी गढ़ते हैं!
वे ख़बर नवीसों के रिश्तेदार हैं इसलिये ख़बर नहीं बनते अपराध करते ही हैं ?
यह समकालीन सच है, इन्हें मुँह मत खोलने दो ये तो ज़हर उगलता है।
चलो राष्ट्रवादियों की हरकतें ऐसी ही होती रहेंगी इन्हें देशप्रेमी कहते रहो ?
तब ये तुम्हें जीने लायक हक़ भी नहीं देंगे क्योंकि तुम इनके लिये गुलाम हो !
हम या हमारे जैसे ख़तरनाक हो इनके संस्कार विकारग्रस्त हैं ये मत कहो !
क्योंकि ये भ्रष्ट तरीके से धर्म, जाति, ज्ञान,अज्ञान, धनधान्य के ये संरक्षक हैं !
तभी तो हम सदियों से इनके मुग़ालते और व्यवस्था के ग़ुलाम बने हुये हैं?
आओ मेरे दोस्त इनकी तरह ही इन पर हमला करो हल्ला बोलो !
आख़िर "काटजू" जी बोल रहे हैं और गोमांस पर मुँह खोल रहे हैं न !
तुम डरे हुये हो इनके गढ़े हुये झूठे धर्म और महापाखंड से क्यों ?
हमने तुम्हें अपना नेता इसीलिये चुना था तुम भी इनकी तरह पाखण्डी बनो !
सामंन्त और कुसंस्कारी बन जाओ या व्यभिचारी बन जाओ ?
मेरे दोस्त तुम्हें अपना नेता कहने की हिम्मत चुकती जा रही है
क्योंकि सच या तो बुढ़ा हो चला है, जवान झूठा होता जा रहा है ?
मौत के मातम में शरीक होने की बजाय पाखण्ड से घबरा रहा है !
ज़रा सोचो जिसका भाई, पति, पिता मार डाला हो पाखंडियों ने !
उसी पर पाखंड की परत दर परत रूपये से चढ़ा रहे हो !
मेरे दोस्त पटेल / राम स्वरूप वर्मा और लोहिया को पढ़ो !
उनका गढ़ा हुआ समाज है जिसे तुम लुटा रहे हो पाखंडियों को
ये पाखण्डी तुम्हारे विनाश के ताने बाने बुन रहे हैं भाई क़रीने से !
हम दुखी हैं, हम उदास हैं, हम भयभीत हैं उनके विचारों के मर जाने से!
चली गई रसातल में सियासत उनकी जिनका हमने सहारा लिया था !
तुम धूर्त निकले हमने विश्वास ही क्यों तुम्हारा किया था ?
मेरे मित्रों कोई भी जाती जाती के कारण मुर्ख, धूर्त, अपराधी, दुराचारी, भ्रष्ट और व्यभिचारी नहीं होती उसके अनेक कारण हैं जो उसे संघर्ष विमुख कराती है और संघर्ष करने का साहस देती है। ऐसे ही एक व्यक्ति हैं रमा शंकर यादव "विद्रोही"-
तुम धूर्त निकले हमने विश्वास ही क्यों तुम्हारा किया था ?
मेरे मित्रों कोई भी जाती जाती के कारण मुर्ख, धूर्त, अपराधी, दुराचारी, भ्रष्ट और व्यभिचारी नहीं होती उसके अनेक कारण हैं जो उसे संघर्ष विमुख कराती है और संघर्ष करने का साहस देती है। ऐसे ही एक व्यक्ति हैं रमा शंकर यादव "विद्रोही"-
मान्यवर;
कौन कहता है यादव काबिल नहीं होता ?
कथित रूप से यादवों में काबिलियत की कमी है, यह आम बात है पर मैं आपको एक कवि की रचनाएँ परोस रहा हूँ जो दुनिया के किसी भी कवि से बड़े कवि होने का हक़ रखते रहे हैं !
पर कैसे उन्हें जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ने पागल करार कर आजीवन बनवासी बना दिया हो ?
जबकि लोग कहते नहीं थकते उत्तर प्रदेश में "यादवों" की सरकार है और वे घोर जातिवादी हैं जबकि ऐसा नहीं है उन्हें यादवों और काबिल यादवों से बेहद चिढ है ?
पर मैं आपसे जानना चाहता हूँ क्या इन्हें किसी पुरस्कार का हकदार नहीं होना चाहिए था या अब माँना जा सकता है ?
देश में द्विजों की सत्ता इन्हें भले नकार दे पर जिसके लिए उत्तर प्रदेश की सरकार पर आरोप हैं की जातिवादियों की सरकार है, पर कितने नाम हैं जो पूरे प्रदेश में अपनी जगह सर्वोच्च स्थान पर रखते हैं पर यादव होने के नाते उनका मूल्यांकन ही नहीं हुआ ? क्या मौजूदा सरकार की नज़र में केवल चापलूसों की ही जगह बची है यथा ;
रमाशंकर यादव 'विद्रोही'
जन्म: 03 दिसम्बर 1957, निधन: 08 दिसम्बर 2015
उपनाम "विद्रोही"
जन्म स्थान : फिरोज़पुर, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश
कुछ प्रमुख कृतियाँ : नई खेती (कविता-संग्रह)
अपनी कविता की धुन में छात्र जीवन के बाद भी विद्रोही जी ने जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी (जेएनयू) कैंपस को ही अपना बसेरा माना। वे कहते थे, "जेएनयू मेरी कर्मस्थली है। मैंने यहाँ के हॉस्टलों में, पहाड़ियों और जंगलों में अपने दिन गुज़ारे हैं।" वे बिना किसी आय के स्रोत के छात्रों के सहयोग से किसी तरह कैंपस के अंदर जीवन बसर करते रहे हैं।
रचना ;
मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।
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बिना सुरती के सबेरे कुछ होता ही नहीं
नहीं होता सुरती खाने के बाद भी
क्योंकि सबेरे कुछ होने के लिए
सोने के पहले भी कुछ होना चाहिए।
तो ऐसे थे विद्रोही जी ! जिनका लेखन समाज के उस स्वरुप की व्याख्या करता है जो स्वाभाविक और यथार्थ है !
तो ऐसे थे विद्रोही जी ! जिनका लेखन समाज के उस स्वरुप की व्याख्या करता है जो स्वाभाविक और यथार्थ है !
कितने पुराने प्रयोग कर रहे हैं हमारे राजनेता ;
कम्बल हो या लैपटॉप, सायकिल, स्मार्ट फोन, बालिका विद्याधन, यह सब कारनामें इन्हें भिखारी बनाते हैं, इनके लिए रोजगार तो हैं नहीं
क्रमश :
क्रमश :
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