5 नव॰ 2018

मेरे भोले भाले भाइयों एवं बहनों !

मैं जानता हूँ मेरे विचार मेरे ही लोगों को रास नहीं आयेंगे ! लेकिन मेरा विश्वास है कि यदि एकबार हम भावनाओं और समाज की रूढ़ियों से किनारा कर ले तो हम समाज को बदल सकते हैं ! कईबार हमारा समाज रूढ़ियों को अन्यमनस्क भाव से इसलिये ढो रहा होता है क्योंकि उसके पास अपना कहने को कुछ भी नहीं बचा है जिसके कारण अपने खिलाफ बनाये गए उसके त्योहारों और परम्पराओं को वह उस समाज से बढ़ चढ़ कर अपने को  विकसित दिखाने के चक्कर में उनकी परम्पराओं का शिकार हो रहा है जिन्होंने उससे ठगी करने के लिये सदियों से यह परम्परायें गढ़ी है । और यही कारण है की वह हर लड़ाई उससे हार जाता है। 

( चित्र ; डॉ.लाल रत्नाकर )


परम्परा कैसी कैसी ?
दशहरा,दिवाली,होली,छठ !
जन्माष्टमी जैसे त्योहार की परम्परा !
कब से चली चली आ रही है ?
और कब तक चलती रहेगी ?
इसी तरह ?

क्या कभी आपने सोचा ?
शायद नहीं, और न ही सोचने की
ज़रूरत ही समझा/समझी आपने !
किसी त्योहार के दिन को क्या ?
आपने उसे नकारा या नकारी ?
ज़रा विचार करिये ?
क्या खोया क्या पाया आपने ?

मिठाईयॉ ड्राई फ़्रूट नये परिधान !
या और कुछ !
पर आपने खोया अपना विश्वास !
वशीभूत कर लिया आपको उसने
अगले साल के इस उत्सव के लिये !
यह कौन है जो आपको डरा रहा है ?
कभी सोचा आपने !

उसका व्यापार और
उसका पाखण्ड मिलकर !
रोज़ रोज़ नये नये परिवर्तन कर रहा है ।
मगर आपको समझ में ही नहीं आ रहा है !
उसका षड्यन्त्र !
यही तो है जिसके बल पर
आप उसके गुलाम हो सदियों से !

आज भी समय है विचार करने का !
क्या कभी आपने इसपर सोचा ?
सही सही आकलन करिये अपने मन और
मन में पैठे परम्परा के नाम पर विराजमान !
अपने अंदर के शत्रु को !


डा.लाल रत्नाकर

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