कला और साहित्य



श्रद्धा (श्रद्धा यादव)
की कुछ कवितायें उत्तरवार्ता में प्रकाशित हुयी हैं जिन्हें मैं यहाँ दे रहा हूँ।
(सौजन्य "उत्तरवार्ता " श्री अमलेश प्रसाद जी ने प्रकाशित की हैं।)
कविताएं - दलितवाद, एमएच 370 और बुद्धिजीवी: श्रद्धा यादव

Amalesh Prasad (Editore)
1. दलितवाद
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ब्राह्मणवाद की तरह
कुकुरमुत्ता-सा पनपने लगा है
दलितवाद
जहाँ निरंकुशता है जाति की
पहले बताओ जाति
फिर संवेदनाओं की बात होगी
जो न होगे तुम दलित
तो बांधो विचारों की पोटली
और खोजो कोई और खेत
जहाँ बीजो, पनपाओ
विचारों के बीज
तुम दलितों के लिए
अछूत
दलित और गैर-दलित की
साहित्यिक दुनिया में
दलितवाद की शक्ल में
इस नवब्राह्मणवाद की पैदाइश
चेताती है बार-बार
बुद्ध के शरणागत दलितों
संकीर्ण मत बनो
पनपों, फलो फूलो और फ़ैल जाओ
सभी नस्लों की नसों में
अमृत बनकर
विष पी कर
फूल खिलानेवाले हाथ
गालियों पर भी
मुस्कुरानेवाले होंठ
वज्र से भी कठोर
है जिन का शरीर
फूल से भी कोमल है
जिन का मन
सवर्णो की तरह नहीं
उनसे श्रेष्ठ हो तुम
घृणा पर बसे उनके साम्राज्य को
तोड़कर
बनाओ एक नया समाज
जिसमें कुकुरमुत्ता और गुलाब को मिले
एकसमान सम्मान।
- श्रद्धा यादव
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2. एमएच 370
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गुमशुदा है आसमाँ में
या जमींदोज हो गया
या समा गया है चुपचाप
सागर की अतल गहराइयों में
आदमी अपनी ही खोज को
खोज रहा है यहाँ वहां
पूरे संसार में
कहीं नहीं मिला अब तक नामोनिशां
कितने अरमानों ने भरी थी उड़ान
आखिरी उस दिन
अगले पल से अनजान
हँसी ठिठोली में
बीत रहा था सफर
क्या जाने क्या हुआ
क्या घटा क्या बढ़ा
वह गुम कहाँ हुआ
अब तक नहीं आई खबर
चिंता नहीं टीन की छत
और फर्श की
चिंता है असंख्य
टिमटिमाती जिंदगियों की
जो रोज आती जाती हैं
वायु की गति से
जान हथेली पर लिए
घूमता है हर शख्स
सड़क पर, हवा में, पानी पर
साइकिल से लेकर हवाई जहाज तक
हर मानव अपनी ही खोज की गति पर सवार
जोखिम में डालता है
प्रतिपल अपने प्राण।
-श्रद्धा यादव
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3. बुद्धिजीवी
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सोचने को कुछ भी सोच सकते हैं
हवा पहाड़ पानी कोई बाधा नहीं
शीत घाम से परे पंछी-सी सोच
कभी इस फुनगी पर तो कभी उस पार
भटकती भटकाती बीहड़ों में रास्ता बनाती
कितनी हलकी लगती है सोचने में सोच
पर जब वही सोच थोड़ा सिमट जाती है
घर की ढ़हती दीवार और अपनों पर टिक जाती है
रोटी दाल की चिंता धीरे-धीरे गहराती है
प्रेम प्यार और कोमल कल्पनाएं विलीन हो जाती हैं
तब वही फूलसी हलकी सोच भारी हो जाती है
यह भारी सोच और भारी होती जाती है
जब पडोसी कान या घर बनता है
रिश्तेदार के घर जश्न मनता है
अपना बच्चा खुरचन के लिए तरसता है
तब मेरी सोच मुझे विद्रोही ब ना डालती है
चोरी डाके के सारे पाठ पढ़ा डालती है
तब मैं बाबू बनकर घूसखोरी करता हूँ
बनिया बनकर जमाखोरी करता हूँ
डाकू बनकर डकैती करता हूँ
नेता बनकर देश लूटता हूँ
सोच मुझे सब कुछ बना डालती है
कुछ नहीं बनाती तो अच्छा आदमी नहीं बनाती
इस अच्छे आदमी को जब
मैं सड़क पर रिक्शा खींचते देखता हूँ
पीठ पर बोझ उठाते देखता हूँ
तो आत्मग्लानि में शराब का ग्लास गटक जाता हूँ
तब जाके मैं सारी चिंताओं को गटक
अपनी सोच को हल्का बनाते हुए
वज़नी बातों का दम्भ भरनेवाला
बुद्धिजीवी कहलाता हूँ।
-श्रद्धा यादव
राजभाषा विभाग
गृहमंत्रालय, भारत सरकार



प्रतिभाएं 

यादव समाज का योगदान विविध क्षेत्रों में रहा है जिनको उपेक्षा का शिकार रहना पड़ा है हमारी कोशिस है की हम उन्हें प्रकाशित करें !

ऐसी ही एक प्रतिभा रहे हैं स्व.कन्हैया लाल आर यादव 
स्व.कन्हैया लाल आर यादव
सी यन कालेज आफ फाईन आर्ट अहमदाबाद में प्राध्यापक रहे हैं।
मूलतः यह उत्तर प्रदेश के रहे हैं
वहां का हर व्यक्ति यादव सर कहकर उन्हें सम्बोधित कर रहा था।
अमृत पटेल, भवर सिंह पवार या रतिलाल कन्सोडरिया ने 
जो बताया उसके आधर पर मेरी कोशिस है उनके बारे में और जानकारी हासिल करूँ ?
  



(क्रमशः)

अखिल भारतीय कला उत्सव गाजियाबाद-2013


कलाधाम-डी.ब्लाक, कवि नगर, गाजियाबाद 













































मनुष्य को समृद्ध, सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाने मे ज्ञान-विज्ञान के विकास के साथ ललित कलाओ की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। छोटे से कैनवास पर अपनी कालजयी कलाकृतियो मे अनेक बार कुशल चित्रकारो ने इतना कुछ कह दिया है, जिसे पूरे उपन्यास मे भी नही समेटा जा सकता।
यह एक सुखद संयोग है कि गाजियाबाद विगत कई वर्षो से कला जगत मे अपनी पहचान दर्ज करा रहा है। देश -विदेश के जाने माने रचनाकारो द्वारा गाजियाबाद मे सम्पन्न की जाने वाली अनेक चित्रकला कार्यशाला यहां की नई पीढ़ी मे कलाओ के प्रति उत्साह एवं आकर्षण उत्पन्न कर रही है। चित्रकला प्रदर्शनी, कला उत्सव एवं गाजियाबाद महोत्सव जनपद की तस्वीर बदलने मे सहायक सिद्ध हो रहे है। कला की विभिन्न विधाओ के विकास एवं विस्तार हेतु उपयुक्त स्थान की लम्बे समय से महसूस की जा रही आवश्यकता को पूरा करने की दिशा मे कलाधाम का निर्माण कराया गया है। कलाधाम की स्थापना से कलाकार, कलाप्रेमी , बुद्धिजीवी एवं समस्त जनपदवासी ललित कलाओ से रूबरू हो सकेंगे तथा समय-समय पर देश के ख्यातिलब्ध कलाकारो के जनपद आगमन पर उनके रचना संसार से अवगत हो सकेगे।
विगत वर्षांे मे आयोजित हुई सफल अखिल भारतीय एवं क्षेत्रीय कला प्रदर्शनियो एवं कार्यशालाओ की कड़ी मे इस वर्ष अखिल भारतीय कला उत्सव 2013 का आयोजन 25 फरवरी से 04 मार्च 2013 तक नव निर्मित कलाधाम मे संपन्न हुआ है। यह अखिल भारतीय कला उत्सव इस दिशा मे मील का पत्थर बनेगा ऐसा मुझे विश्वास है। आशा है सम्पूर्ण जनपदवासी इस आयोजन मे बढ़चढ़ कर शिरकत करेेगे एवं लाभान्वित होगे।

                                                                संतोष कुमार यादव                                                                        आई॰ए॰एस॰                                                             
अध्यक्ष - गाजियाबाद विकास प्राधिकरण  गाजियाबाद 
संरक्षक
                                                       अखिल भारतीय कला उत्सव  गाजियाबाद-2013  

इस बार के कला उत्सव की कई उपलब्धियां रहीं जिनमे प्रमुख रूप से 

मिडिया को कई एंगेल से लोगों ने संभाला की उसका रुझान कला के उत्कर्ष पर केन्द्रित होने के बजाय इधर उधर की चिंताओं को लेकर अधिक/ज्यादा चिंता को उजागर किया।

इस बार के कला उत्सव में देश भर से आये कलाकारों ने जिस तरह से काम किया उससे यह देश के किसी भी कला कार्यशाला को पीछे छोड़ने में कामयाब रहा .

एम् एम् एच कालेज के निकले छात्रों की मौलिक रचनाओं ने लोगों का ध्यान केन्द्रित करने में कामयाबी हासिल की . कार्यशाला का इंतजाम भी चित्रकला के विद्यार्थियों ने बखूबी संभाला .

प्रोफ़ेसर राम गोपाल यादव ने गाजियाबाद को कला के क्षेत्र में अग्रणी होने की उम्मीद जताई . 
उत्सव के संरक्षक श्री संतोष कुमार यादव एवं उनके सहयोगियों ने हर मोड़ पर इसे नायब होने की शक्ल दी .
कार्यक्रम के संयोजकत्व के नाते इस तरह का एहसास होता रहा, पर सुखद यह है की तमाम साजिशों और बदतमीजियों के बावजूद समारोह की गरिमा प्रभावित नहीं हुयी . पूरा कार्यक्रम कला सृजन की प्रक्रिया को प्राप्त किया .


रचनाधर्मिता की अनुभूति और अलौकिक सत्य का सृजन अनुकृति से नहीं चिंतन मनन और ह्रदय के गर्भ से नि;सृत होता है,एहसास की कमी और मन की उछ्रिन्खलता से अक्सर रचनाएँ जड़वत हो जाती हैं जिस सृजन प्रक्रिया ने इस शहर में पिछले दिनों कई दिनों तक चली, लोगों के मन मोह ली, ये केवल तात्कालिक नहीं हैं बल्कि युगों युगों तक इनका असर रहेगा, जिन मनीषियों ने इस विचार का समर्थन किया है निश्चित तौर पर वह सांस्कृतिक इतिहास रच रहे हैं, उन्हें आने वाली पीढियां नमन करेंगी .

-डॉ.लाल रत्नाकर

संयोजक 

अखिल भारतीय कला उत्सव  गाजियाबाद-201 3  


कला और समाज में शैक्षिक भविष्य की समस्या
डा.लाल रत्नाकर 

                     समकालीन कला पर विचार करने से पहले हमें भारतीय कलाओं के क्रमिक विकास के परिदृश्य को समझना होगा, जैसा कि सर्वज्ञात है कि सदियों से कला जगत का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है। अतः जब भी किसी तरह के विकास की बात होगी और उनमें कला के विकास अवधारणओं की चर्चा हो या नहो फिर भी कलाओं की उपस्थिति तो अनिवार्य होगी ऐसे में भारत के सम्पूर्ण कला विकास को नजरअंदाज करना बेमानी ही होगा। यहां यह नहीं कहा जा सकता कि कलाओं के वर्गीकरण के पूर्व जो कलात्मकता आज इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है वह सहज आ जाती रही होगी अपितु उसके ज्ञान को देने की प्रविधियों को नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता। कलाओं के समय समय की प्रगति एवं अवरोध इस प्रभावी भावना के निष्पादन में कालचक्र का अपना महत्व होता है अतएव इसमें उनकी दुरूहता जितनी भी आड़े आयी हो उससे उसकी रचना प्रक्रिया के कौशल को कमतर करके देखना हो सकता है आज प्रासांगिक न हो पर इसके रचना के कौशल ने कभी अपने को समाप्त नहीं होने दिया है, ज्ञान के इस अद्भुत स्वरूप पर मनीषियों की दृष्टि सम्भव है बहस को स्थान दिया हो पर रचना प्रक्रिया की जटिलता को जिन रचनाकारों ने गौरवशाली बनाया वास्तव में वास्तविक योगदान उनका है। 
                    उत्तरोत्तर नकारात्मक रवैये को यदि त्यागते हुए वैश्विक कला इतिहास पर दृष्टि डालें तो यह तथ्य करीने से प्रमाणित होते हैं कि धर्म समाज और राज्य कला विकास की प्रक्रिया को जितना प्रभावित करते हैं उससे कहीं ज्यादा रचनाकार का कौशल। विज्ञान, साहित्य एवं परम्पराएं जब जब धर्म और समाज के पक्ष और प्रतिपक्ष में आती हैं तो उदारता अनुदारता अनिवार्य रूप से कलाओं की रचनात्मकता को प्रभावित करती हैं। यहां शिक्षा का महत्वपूर्ण स्वरूप भी सहज ही सम्मुख आता है जब हम भारतीय शिक्षा व्यवस्था के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं। इस अप्राकृतिक प्रक्रिया के चलते मौलिक प्रक्रिया के विस्तार की वजाय प्रतिरूपण और अलंकारिकता के वैभव का ही विस्तारित कला का स्वरूप ही अधिक प्रचलित हो पाया, यही कारण है कि कलाएं सामाजिक स्वरूप में स्वीकार्य तो रहीं पर उतनी विकसित न हो पाने का कारण कहीं न कहीं असमानता और मानसिक दिवालियेपन की कहानी कहती नजर आती हैं। यदि यह सब व्यवस्थित और उनमुक्त मौलिकता की स्थिति में होता तो भारतीय कला का गौरवशाली स्वरूप इतिहास के ही नहीं वर्तमान में भी दुनिया को दिशा देता। 
                     इतिहास के गर्भ में पल रहे भारत का कला वैभव विखरा पड़ा है, ठीक उसी तरह जैसे यहां का सामाजिक स्वरूप। जब भी हम इसका विस्तार और निरपेक्ष अध्ययन करेंगे तो अनोखा सच सम्मुख आएगा। इन्हीं विविधताओं को समेटे यहां का गौरवशाली समाज सदियों की मानसिक गुलामी एवं बदहाली में डूबा यह महान रचनाकार अपनी सीमाओं में सिमटा, देश की अनन्य बाधाओं, हमलों, लूट-खसोट और अराजकताओं के मध्य जो कुछ कर पाया वह यहां के साम्राज्यों मठाधीशों की जागिर के रूप में महफूज है। वह अपनी कहानी इतिहास के पन्नों की जुबानी भले ही वयां न कर पाया हो पर किसी न किसी रूप में उसकी दशा पर जिक्र आ ही जाता है यथा ताजमहल जैसी विश्वविख्यात रचनाकार के हाथों के कलम कर दिये जाने के उद्धरण भी मौजूद हैं। यहां भी कलाकार की वास्तविक दशा के रूप में निश्चित तौर पर जो यातना जाहिर हो रही है कमोवेश यही दशा आज तक बनी हुई है। अतः भारत अपनी कलाओं के विविध स्वरूपों की वजह से अपनी पहचान बनाने में सम्पूर्ण संसार में कामयाब जरूर हो रहा है, पर उसके निहितार्थ अलग हैं। यही कारण है कि दुनिया के विविध देशों में भारतीय कलाएं आज चर्चा में ही नहीं उनकी मांग भी बनी हुई हैं पर यदि इनके समग्र विकास की प्रतिबद्धता भी पारदर्शी होती तो कुछ और बात होती। हो सकता है कि यह उल्लेख कष्टकारी और अव्यवहारिक लगे जो अपने आप में उक्त तथ्यों को ही बल प्रदान करेगा आज नहीं तो कल।      
                   फिर भी इतिहास बताता है कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विकास की जो प्रक्रिया प्रारम्भ हुई और उनमें में जितनी विधाएं यशस्वी हुई हैं, उनमें ललित कलाओं का महत्वपूर्ण स्थान एवं योगदान रहा है। भारत का हर युग अपने समय में किसी न किसी रूप में कलाओं को समेटे हुए है, यहां पर समुचित रूप से देखा जाय तो निश्चित रूप से कलाओं से पटा पड़ा है। पर दुखद है कि जितना   ध्यान जाना था वह सम्भवतः नहीं जा पाया है। वैसे तो भारत के गौरवशाली इतिहास में यह उल्लेख है कि समय समय पर इन विधाओं पर ध्यान रहा है, जिसके कारण कलाओं की स्थिति विविध संकटों के समय में भी कुछ न कुछ नूतन ही प्राप्त किया है। यही कारण है कि भारतीय समाज के सांस्कृतिक परिवेश में व्यक्ति को साहित्य, संगीत  और कलाओं के बिना पशुवत रूप में देखा जाता रहा हो वहां कला की महत्ता स्वतः समृद्ध हो जाती है, यथा उसे प्रमाणित करते हुए ये पंक्तियां उक्त अवधारणा को पुख्ता ही करती हैं- 
                    साहित्य संगीत कला विहिनः। साक्षात् पशु पुक्छ विषाण हीनः।। 
                    यही कारण है कि भारतीय मानस कला रूपों को अपने जीवन के हर हिस्से में आभूषण के समान सजोकर रखा है शिलाखण्डों से लेकर देह तक का उपयोग इसके लिए किया गया है, भारतीय मानस का यही कला प्रेम विविध रूपों में प्रस्फुटित हुआ है, गीत संगीत नृत्य चित्र मूर्ति एवं स्थापत्य आदि में तथा दैनिक उपयोग की विविध सामग्रियां जिनमें आभूषणादि के अतिरिक्त नाना प्रकार के उपयोगिता की सामाग्रियों के अलंकारिक संसाधनों में ये विविध कला रूप प्रचुरता से प्राप्त होते हैं। यही कारण है कि लोक और विशिष्ट में कला अभिप्रायों की तमाम समता दृष्टिगोचर होती है। जिसको कालान्तर में पुनः नवीनतम तरीके से सामंजस्य के साथ प्रयुक्त किया गया है। यहां प्रयुक्त कलात्मकता की विवेचना भी महत्व की है, जिसमें कालान्तर में बहुत परिवर्तन देखने को मिला है, यहां पर यह महत्वपूर्ण है कि जिन कलारूपों की रचना समाज को प्रतिविम्बित करती थी वह धीरे धीरे विलुप्त हो रही है। यहां यह महत्वपूर्ण है कि सामाजिक पहचान में भी कलाएं बहुत सहयोगी थीं जो चुपचाप अपना काम करती रहती थीं। 
                    इन कला रूपों के निर्माण की प्रक्रिया में कला शिक्षा की प्रक्रिया पर गौर करें तो अधिकांश में परम्परागत गुरू-शिष्य या पारिवारिक परम्परा में यह कलाएं आगे बढ़ीं जिससे सांस्कृतिक सम्पन्नता आयीं जिसे हम अपने भारतीय समाज के विविध जातीय कार्यों के पेशेवर विविधता के रूप में भी देख पाते हैं। यही इनके सीखने के केन्द्र रहे हैं जो इन्हें परम्परा से पीढ़ी दर पीढ़ी इसके सम्पन्न स्वरूप प्रदान करते आए हैं। जितने भी उदाहरण मिलते हैं सबमें इन्हीं परम्परागत रूप से दी जाने वाली शिक्षा आज भी महत्वपूर्ण है। इसीलिए गुरू शिष्य परम्परा या घरानों के रूप में जिन्हें इसका सम्मान मिला वे इस विधा और ज्ञान के प्रसार में निश्चित रूप से समर्पित लोग थे। जिन्हें उनके कौशल की वजह से ही जाना गया। यही कारण है कि वो आज भी उन्हीं महत्वपूर्ण रूपों मे मौजूद है। 
                   इस परम्परा को आगे बढ़ाने और परवान चढ़ाने में जो कलाकार आगे आए उन्होने पीछे मुड़कर नहीं देखा, यथा कला के नये आयाम, नए प्रतिमान, नये मायने और नवीन तकनिकियों की खोजकर उनका भरपूर प्रयोग किए। यही कारण है कि समकालीन कला अपने विविध स्वरूपों में नजर आनी प्रारम्भ हुई। अब कला के मायने केवल और केवल पुरातन अर्थ समेटे रूपाकार न रहकर विविध अवस्थाओं व्यवस्थाओं को चिन्हित कर उनपर कलाकृतियों का सृजन हुआ। बृहत्तता और सूक्षमता का सामंजस्य एक साथ सामने आया, वसुदेव कुटुम्बकम की अवधारणा बलवती हुयी। चिन्तन की दिशा बदली, विषय बदले, माध्यम बदले। यही कारण है कि गुरू-शिष्य कहीं न कहीं मन्द पड़ी स्वतन्त्र विचारों का प्रसफुटन होना प्रारम्भ हुआ जिससे पारिवारिक परम्परा भी कमजोर हुई। यही कला कालान्तर में समकालीन कला के रूप में प्रतिस्थापित हुई और उसके कलाकारों ने समकालीन विचारों को लेकर विविध तकनीकियों का उपयोग कर एक नयी धारा की शुरूआत हुई है।
                    कालान्तर में इनके चलते अनेक तरह बदलाव के साथ नवीन परिवर्तनों ने विभिन्न प्रकार के माध्यमों को भी आजमाया और इनके विभिन्न शिक्षण केन्द्रों में भी इस नए बदलाव की शुरूआत हुई। जो विभिन्न स्कूलों के रूप में सामने आए विशेषकर ब्रिटिश शासन काल में जिन पश्चिमोन्मुखी कला शिक्षण की शिक्षा को प्रारम्भ किया गया उनमें पारंगतता के उपरान्त भी केवल कला की पराधीनता की जिस विधा को भारतीय कला के स्थानापन्न करने के लिए जिन अनेक स्कूलों की स्थापना हुई थी वहीं धीरे धीरे नवीन अवधारणा ने जगह बनाई। उनकी उपस्थिति आज हमारे सम्मुख जिस रूप में है वह कितनी सुखद है उसका मूल्यांकन अलग तरह से किया जाना चाहिए। पर इनकी प्रासांगिकता तत्कालीन दौर में जो भी रही हो पर आज उनका स्वरूप काफी बदल गया है। जबकि संगीत और नृत्य के अनेक घराने आज भी अपनी महत्ता कायम किए हुए हैं। 
                    क्योंकि कला शास्त्रों से बहुुत पहले की चीज है अतः कलाओं की मूल्य दृष्टि एवं मानवीय उपयोगिता का सवाल हमेशा सृजन की संभावनाओं को स्थान प्रदान करता है, यही कारण है कि रचनाओं की विविधता का शास्त्रीय स्वरूप तय किए जाने के बाद भी वह उन नियमों को तोड़ती रही हैं। ‘‘रचनात्मकता का संबन्ध साक्षर या शिक्षित होने से जरा भी नहीं। सांस्कृतिक दृष्टि से नितांन्त असंस्कृत महाकवि र्भृहरि के पात्र,’’ बहुत से शिक्षितों के हाल सब जानते हैं।’’ 
                    कलाओं की मूल्य दृष्टि-हेमन्त शेष की पुस्तक उद्धृत यह अंश कला शिक्षा के स्वरूप को परिलक्षित करता है अब सवाल यह है कि कला आन्दोलनों की स्थिति को कला शिक्षा से कैसे जोड़ा जाय, यही भारतीय कला आन्दोलन की प्रासांगिकता को चिन्हित कराने में सहायक होगा जबकि समकालीन कलाकारों की सूची में जिन नामों को शरीक किया गया है उनपर सवाल उठेगे कि उनके मानदण्ड क्या हैं ? उनको समझने के लिए कला के विकास की अवधारणाओं को समझना होगा जिनकी वजह से कला में बदलाव उत्पन्न हुए। 
                   अब तक कि कला प्रक्रिया में 1947 के प्रोग्रेसिव ग्रुप में-के0 एच0 आरा, एस0 के0 भाकरे, एम0 एफ0 हुसेन, एच0 ए0 गैडे, एस0 एच0 रजा, एस0 एन0 सूजा जिन छह कलाकारों को प्रोग्रेसिव ग्रुप में सुमार किया जाता है वह जिन विशेषताओं की वजह से जाने जाते हैं। परन्तु प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप का 1956 में विभाजन और स्वाभाविक रूप से दूर हुए फीका, समूह के कलाकारों को अपनी व्यक्तिगत शैली बनाने में व्यस्त थे. पीएजी के साथ जुड़े कलाकारों की सूची में लगभग सभी महत्वपूर्ण कलाकार लगभग 1950 में बंबई में काम कर रहे कलाकारों को भी शामिल किया जा सकता है। छह संस्थापक सदस्यों के अलावा, जुड़े कलाकारों मंे निम्न कलाकारों के नाम भी समिमलित हैं-वी.एस. गायतोंडे, कृष्ण खन्ना, अकबर पदमसी, तैयब मेहता, राम कुमार, बाल छाबड़ा के बीच भरोसा कर सकते हैं। यह प्रगतिशील समूह है, जो नए प्रतिभा को कोकून के बाहर उभरने में मदद किया था। कुछ तत्कालीन दौर के भारतीय कलाकारों की पीढ़ी जो पहले के कलाकारों ने जो उनके लिए मार्ग प्रशस्त करने के लिए उनकी अभिव्यक्ति के विविध प्रतिभाओं के मालिक है और भारतीय समकालीन कला के उन्नायक भी।        
                 आज कई ज्ञात अज्ञात भारतीय कलाकारों की व्यक्तिगत शैली है जिसे वे सक्षम करने में एवं आगे ले जाने में लगे हैं, और यह समाज में स्वीकृति प्राप्त करने के लिए निरन्तर यत्न कर रहे हैं। समकालीन कला आन्दोलन को आगे ले जाने में जिन कलाकारों ने अपना योगदान बेनामी या गुमनामी में किया है वह भी इस आन्दोलन के लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं। 
                वर्तमान दौर का कलाकार उनसे दूर तो हुआ है परन्तु कलामूल्यों को लेकर नहीं, जबकि नयी पीढ़ी के दौर में रचना प्रक्रिया के तौर तरीकांे ने कई नये आयाम कला को दिए हैं जिनमें स्थान विशेष का जिक्र किया जाना उतना महत्व का नहीं है जितना उनकी प्रक्रियाओं का यह कार्य कमोवेश देश के हर हिस्से में हुआ है। जिनकी वजह से भारतीय कला ने अपनी उपस्थिति कायम की है। 
              वहीं दूसरी ओर जहां बड़े संस्थानों के कलाकार अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहे और जिनसे ऐसा नहीं हुआ दोनो के अलग ग्रुपों ने कला जगत में अपनी छाप छोड़ी है उसका मूल्यांकन कब होगा इसकी घोषणा करना संभव नहीं है जब समकालीन व्यवस्था इन कलाओं के भविष्य से आंख मूंद लेती है तब कलाओं के पतन का दौर आरम्भ हो जाता है। 
              आगे समकालीन कला और कला शिक्षा पर नजर डालने पर कई तत्व सामने आते हैं जिनका उल्लेख यहां करना वाजिब होगा। आजादी के पूर्व और उसके उपरान्त जिस तरह से विविध क्षेत्रों में बदलाव शुरू हुए उनमें कला का स्थान भी महत्व का रहा है राष्ट्र्ीय कला अकादमी की स्थापना, विभिन्न विश्वविद्यालयों में कला शिक्षण की सुविधा तथा अनेक कला महाविद्यालयों की स्थापना। 
              इस बीच की कला उपलब्धियां और उनका मूल्यांकन किया जाय तो अनेक महत्वपूर्ण तथ्य प्रकाश में आते हैं। उन मनिषियों ने जिन्होंने भारतीय कला तत्वों एवं तकनीकी ज्ञान की स्थाई स्थापना के अध्ययन की नींव डाली होगी। परन्तु आज ये संस्थान उस समय की आकल्पित उक्त अवधारणा के उन स्वरूपों में जिस उत्थान की परि कल्पना की गयी थी उसका स्वरूप क्या हो गया है वह विचारणीय है।  उनकी अवधारणओं का जो प्रस्फुटन हुआ वह उन विकासशील स्वरूपों में न होकर जिन स्वरूपों में हुआ है वह किसी भी तरह भारतीय कला का प्रतिनिधित्व नहीं करता। यहां विशेषकर बंगाल, बड़ौदा और मुंम्बई को लिया जा सकता है। परन्तु थोक में जिन कला प्रक्रिया को अनेक महाविद्यालयों में अपनाया जा रहा है, जिनकी दशा दिशा को समझने के लिए अनेक कला शिक्षण संस्थानों का नाम लिया जा सकता है। 
              इनके अतिरिक्त आधुनिक कला के बहाने समकालीन दौर की कला प्रक्रियाओं से विमुख अनेक शिक्षण संस्थानों की स्थिति तो और भी सोचनीय है। जिस तरह इनके शिक्षण साम्राज्य स्थापित हुए उनके कर्णधारों ने कला को नहीं किसी और विन्दु को महत्वपूर्ण करके जिस अ-कला को ही बढ़ाया गया  है। यह भयावह दौर कला की इस वर्तमान स्थिति को इस स्थिति तक लाने में निश्चित तौर पर एक जटिल प्रक्रिया के अधीन आकर या होकर जहां तक पहुंचा है उसके अनेक उदाहरण हमें मिलते हैं। जिसके प्रभावी या अ-प्रभावी प्रभाव का मूल्यांकन कब होगा, कहना कठिन है। इसके और भी कारण हैं जिनमें विभिन्न प्राथमिक विद्यालयों की जटिल कला शिक्षा व्यवस्था या यूं कहें कि व्यवसायिक अवस्था के कारण मौलिक पद्धतियों की वजाय निहायत व्यवसायिक आधार ने जो कमजोर आधार खड़ा किए हैं वह शैक्षिक प्रक्रिया को प्रभावित करने में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यदि हम इसका अध्ययन निम्न विन्दुओं के आधर पर करें तो जो परिणाम सामने आएंगे उन्ही से सच्चाई का आकलन किया जा सकता है। यथा-  विद्यार्थी,शिक्षक,पाठ्यक्रम,क्लास,स्ंासाधन,परीक्षा प्रणाली एवं व्यवस्थागत मानसिकता का मूल्यांकन किया जाना आज की समकालीन कला के स्वरूप को स्पष्ट करता है। 
             जिनका मतलब सीधे सीधे कलाओं को दयनीय बनाकर अपनी चेरी बनाना मात्र रह गया है। यही कारण है कि इस तरह के संस्थान कलाओं की वजाय कलाओं की अनुकृति कराने के केन्द्र मात्र बनकर रह गए हैं। यही नहीं अब तो इनकी यही व्यवस्था गुरूशिष्य की परम्परा बन गयी है। इनके उदाहरण हमें अनेक कला शिक्षकों के रोने धोने में दिखाई ही दे जाता है यथा आजकल के बच्चों के पास वक्त ही नहीं है क्लास में ही नहीं आते हैं, गांव के बच्चे न जिनके पास सामग्री होती है और न ही उन्हें समझ, उनके गार्जियन भी ऐसे हैं, इसलिए पाठ्यक्रम ऐसा रखिए जिससे काम आसानी से निकल जाए। और आश्चर्य जनक यथार्थ से रूबरू होना पड़ा है इस कला शिक्षा के जिम्मेदार शिक्षक होने का अरमान रखने के कारण। यहां उस यथार्थ की वानगी - स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर के कल शिक्षण की आवश्यक सुविधाओं पर नजर डालें तो उनका कोई मानदण्ड लिखित रूप में कहीं उपलब्ध नहीं है, पर प्रयोगात्मक कक्षाओं की सामान्य व्यवस्था अनेक उन्नत कला महाविद्यालयों तक में उपलब्ध नहीं है जो अपने आप में एक बड़ी विडम्बना है।           
              यदि इनके विस्तार की बात की जाए तो उत्तरोत्तर उन प्रवृत्तियों को ही बढ़ावा मिल रहा है जिसमें कला मूल्यों एवं उनकी मौलिकताओं का अभाव है। इनके स्पष्ट कारण जो दिखाई दे रहे हैं उनमें कला की शिक्षण संस्थाएं, उपयुक्त संसाधन और निपुड़ ज्ञानदाताओं की अनुपलब्धता भी महत्वपूर्ण हिस्सा है। इनसे भी महत्वपूर्ण यह है कि कलाकार बनने के लिए शिक्षा ग्रहण कर रहे शिक्षार्थी जो हैं वह या तो डिग्री के लिए अच्छे अंक पाने के लिए किसी न किसी प्रकार अपने कोर्स पूरे करते हैं। जबकि वे सब कलाकार के पाकर नौकरी के लिए। इसके विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि जितने कलाकार इन क्षेत्रों में दिखाई देने चाहिए थे वास्तविकता उनसे परे हैं। जो इस प्रकार के कलाकार हैं वह सतह पर कितने नजर आते हैं उन परिक्षेत्रों में जहां पर कला के ऐसे संस्थान हैं। अनेक कला महाविद्यालयों में इन स्थितियों से भिन्नता दिखाई तो देती है। 
              यही कारण है कि जिस स्थान पर कला को होना चाहिए था आज वहां नहीं है। इन्ही कारणों से आज की कला शिक्षा में जिन मूल्यों की प्रतिस्थापना होनी चाहिए थी कहीं न कहीं उनका संकट उपस्थित है। पर नित नए संस्थान जन्म ले रहे हैं जहां केवल और केवल यह हो रहा है कि शिक्षण प्रशिक्षण की कला का विकास तो हो रहा होगा पर कला के शिक्षण प्रशिक्षण की कला मूल्यों एवं उनकी मौलिकताओं का अभाव है यही कारण है कि सारी प्रक्रियाएं ठहरी हुयी सी प्रतीत हो रही हैं। हो सकता है कल कोई कला जिज्ञासु आए और इनको झकझोरने की कोशिस करे। फिर इनकी नींद टूटे और कला सृजन की संभावनाओं की भी इन्हे भी चिन्ता हो जो केवल और केवल नौकरियों वाली कला शिक्षा, उपाधियां उपलब्धियों की जगह ले ली हैं ।
लेखक का परिचय 
अध्यक्ष 
असोसिएट प्रोफ़ेसर 
चित्रकला विभाग , एम्.एम्.एच.कालेज  गाजियाबाद
(चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ से सम्बद्ध)
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लेखक का एक और आलेख 
आधी आबादी और मेरे चित्र 
डा. लाल रत्नाकर
                  दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आवादी मेरे चित्रों की पूरी दुनिया बनती है.
                  यही वह आवादी है जो सदियों से संास्कृतिक सरोकारों को सहेज कर पीढ़ियों को सौंपती रही है वही संस्कारों का पोषण करती रही है. कितने शीतल भाव से वह अपने दर्द को अपने भीतर समेटे रखती है और कितनी सहजता से अपना दर्द छिपाये रखती है. कहने को वह आधी आबादी है लेकिन षेश आधी आबादी यानी पुरूशों की दुनिया में उसकी जगह सिर्फ हाशिऐ पर दिखती है जबकि हमारी दुनिया में दुख दर्द से लेकर उत्सव-त्योहार तक हर अवसर पर उसकी उपस्थिति अपरिहार्य दिखती है जहां तक मेरे चित्रों के परिवेश का सवाल है, उनमें गांव इसलिए ज्यादा दिखाई देता है क्योंकि मैं खुद अपने आप को गांव के नजदीक महशूस करता हूॅं सच कहूॅ तो वही परिवेश मुझे सजीव, सटीक और वास्तविक लगता है. बनावटी और दिखावटी नहीं. 
                 बार-बार लगता है की हम उस आधी आवादी के ऋणी हैं और मेरे चित्र उऋण होने की सफल-असफल कोशिश भर है.

नारीजाति की तरंगे-

               मेरे चित्रों की ‘नारीजाति की तरंगे’ शीर्षक से इन दिनों एक चित्र प्रदर्शनी ललित कला अकादमी, रवीन्द्र भवन की कलादीर्घा 7 व 8 में 19 मार्च 2011 तक चली। 
               इस चित्र प्रदर्शनी में नारीजाति की तरंगे विषय को केन्द्र में रखकर चित्रों का चयन करके उन्हें प्रदर्शित किया गया है जिनमें भारतीय नारीजाति की विविध आयामी स्वरूपों का दृश्याकंन किया गया है जिनमें-यह दिखाने का प्रयत्न किया गया है जिनमें जिस रूप में स्त्रियां जन्म से लेकर अब तक आकर्शित, प्रभावित और उत्प्रेरित करती आयी हैं परंतु इनकी अपनी व्यथा है जो पढ़ना बहुत ही सरल होता है. आप मान सकते हैं कि मैं पुरुषों को उतनी आसानी से नहीं पढ़ पाता हूं । मैने बेशक स्त्रियों को ही अपने चित्रों में प्रमुख रुप से चित्रित किया है, क्योकि मुझे नारी सृजन की सरलतम उपस्थिति के रूप में परिलक्षित होती रहती है कहीं कहंी के फुहड़पन को छोड़ दंे तो वे आनन्दित करती आयी हैं जिसे हम बचपन से पढ़ते सुनते और देखते आए हैं यदि हम यह कहें कि नारी या श्रृंगार दोनों में से किसी एक को देखा जाए तो दूसरा स्वतः उपस्थित होता है ऐसे में सृजन की प्रक्रिया वाधित नहीं होती वैसे तो प्रकृति, पशु, पक्षी, पहाड,़ पठार और पुरूश कभी कभार बन ही जाते हैं. परन्तु शीतलता या सुकोमल लता के बदले किसी को चित्रित किया जा सकता है तो वह सम्भवतः नारी ही है.
                 मेरी स्त्रियां सीता नहीं हैं कृश्ण की राधा नहीं है और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं ये स्त्रियां खेतों खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली जिन्हें वह अपना राम और कृष्ण समझती हैं लक्ष्मीबाई जैसे नहीं लेकिन अपनी आत्म रक्षा कर लेती हैं वही मुझे प्रेरणा प्रदान करती हैं।
                 मेहनतकश लोगों की कुछ खूबियां भी होती हैं जिन्हें समझना आसान नहीं है यदि उन्हें चित्रित करना है तो उनके मर्म को समझना होगा उनके लय उनके रस के मायने जानना होगा, उनकी सहजता उनका स्वाभिमान जो पूरी देह को गलाकर या सुखाकर बचाए हैं दो जून रूखा सूखा खाकर तन ढक कर यदि कुछ बचा तो धराउूं जोड़ी का सपना और सारी सम्पदा समेटे वो जैसे नजर आते हैं वैसे होते नहीं उनका भी मन है मन की गुनगुनाहट है जो रचते है अद्भूद गीत संगीत व चित्र जिन्हें लोक कह कर उपेक्षित कर दिया जाता है उनका रचना संसार और उनकी संरचना मेरे चित्रों में कैसे उपस्थित रहे यही प्रयास दिन रात करता रहता हूं. उनके पहनावे उनके आभूषण जिन्हें वह अपने हृदय से लगाये रात दिन ढ़ोती है वह सम्भव है भद्रलोक पसन्द न करता हो और उन्हें गंवार समझता हो लेकिन इस तरह के आभूषण से लदी फदी स्त्रियां उस समाज की भद्र मानी जाती है ये भद्र महिलाएं भी मेरे चित्रों में सुसंगत रूपों में उपस्थित रहती हैं मेरे ग्रामीण पृष्ठभूमि के होने मतलब यह नहीं है कि मैं और भी विषय का वरण अपनी सृजन प्रक्रिया के लिये नहीं कर सकता था पर मेरे ग्रामीण परिवेश ने मुझे पकड़े रखा ऐसा भी नहीं मैंने छोटी सी कोशिश भर की है उनको समझने की।
                  जिस स्त्री का मेरी कला से सरोकार है मूलतः वह रंगों के प्रति सजग होती है उसे प्रारम्भिक रंगो से गजब का लगाव है जिन्हे वह सदा वरण करती हैं,मूलतः ये मूल रंग इनके मूल में बसे होतेे हैं यथा लाल पीला नीला बहुत आगे बढ़ी तो हरा बैगनी और नारंगी इसके सिवा उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं वह सीधे सीधे कुछ अलग ही संदेष सम्प्रेषित करते हैं इन रंगो मे प्रमुख हैं काला और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं .
                  इन रंगो के साथ उसका सहज जुडाव उसे प्रकृति और सत्य के समीप रखता है, उत्सव एवं पारम्परिक मान्यताएं भी इन चटख रंगो को अंगीकृत करते हैं।
                  आज के बदलते दौर में हमारी स्त्री उतनी प्रभावित नहीं हो रही है, लेकिन अगली पीढ़ी सम्भव है तमाम बदलते सरोकारों को स्वीकारे लेकिन निकट भविष्य में मूलतः जो खतरा दिखाई दे रहा है वह यह है कि इस आपाधापी में उसकी अपनी पहचान ही न खो जाए.समकालीन दुनिया के बदलते परिवेष के चलते आज बाजार वह सामग्री परोस रहा है जो उस क्षेत्र तो क्या उस पूरे परिवेश तक की वस्तु नही है इसका मतलब यह नही हुआ कि मैं विकास का विरोधी हूं लेकिन जिन प्रतीकों से मेरा रचना संसार समृद्ध होता है उसमें आमूल चूल परिवर्तन एक अलग दुनिया रचेगा जिससे सम्भवतः उस परिवेश विशेष की निजता न विलुप्त हो जाए।
                  सहज है वेशकीमती कलाकृतियां समाज या 

आमजन के लिए सपना ही होंगी मेरा मानना इससे भिन्न 
है जिस कला को बाजार का संरक्षण मिल रहा है उससे कला उन्नत हो रही है या कलाकार सदियों से हमारी कलायें जगह जगह विखरी पड़ी हैं अब उनका मूल्यांकन हीे भी तो उससे तब के कलाकारों को क्या लाभ. आज भी जिस प्रकार से बाजार कला की करोड़ो रूपये कीमत लगा रहा है बेशक उससे कलाकारों को प्रोत्साहन मिलता है वह उत्साहित होता है लेकिन यह खोज का विषय है कि यह करोड़ो रूपये किन कलाकारों को मिल रहे हैं. कम से कम समाज ने तो इसे सुन सुन कर कलाकार को सम्मान देना आरम्भ कर दिया है कल तक जहां कला को कुछ विशेष प्रकार के लोगों का काम माना जा रहा था आज हर तबके के लोग कलाकार बनने की चाहत रखते हैं इससे कलाकार की समाज में प्रतिष्ठा बढ़ी है। 

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artistratnakar@gmail.कॉम
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कला और कलाकार
डॉ. लाल रत्नाकर
डॉ.लाल रत्नाकर का जन्म जौनपुर में १२ अगस्त १९५७ को हुआ, इन्होंने कला विषय में गोरखपुर विश्वविद्यालय स्नातक, कानपुर विश्वविद्यालय से परास्नातक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी से प्रोफेसर आनंद कृष्ण के निर्देशकत्व में 'पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक कला' पर पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। १ अक्टूबर १९९२ को गाजियाबाद में एम्.एम्.एच. कालेज के चित्रकला विभाग में कार्य प्रारंभ किया जहाँ वे सहायकर प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं।

उनकी पहली एकल प्रदर्शनी '१९९६' में ललित कला अकादमी की रवीन्द्र भवन कला दीर्घा ७-८ में हुई जिसमें जलरंग, तैलरंग, एक्रेलिक तथा रेखांकन प्रदर्शित किये गए थे। इसके बाद दिल्ली में १९९८ में आईफेक्स में, ललित कला अकादमी में, मुंबई की जहाँगीर आर्ट गैलेरी में, कोलकाता की बिरला अकादमी आफ आर्ट एंड कल्चर में, हैदराबाद की स्टेट आर्ट गैलरी और सी सी एम बी हैदराबाद में, फिर बेंगलौर में कार्यशाला और प्रदर्शनियों का क्रम जारी है। उन्होंने गाजियाबाद में कला उत्सव का राष्ट्रीय सिलसिला २००४ से आरम्भ किया है। और २००७ में 'कला धाम' का निर्माण किया।

दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आवादी डा. लाल रत्नाकर के कला संसार की पूरी दुनिया है। यही वह आवादी है जो सदियों से सांस्कृतिक सरोकारों को सहेज कर पीढ़ियों को सौंपती रही है वही संस्कारों का पोषण करती रही है. कितने शीतल भाव से वह अपने दर्द को अपने भीतर समेटे रखती है और कितनी सहजता से अपना दर्द छिपाये रखती है. लाल रत्नाकर के चित्रों में महिलाओं की ये विशेषताएँ मुखरता से उभर कर आती हैं। उनके पात्र प्रमुख रूप से ग्रामीण आंचल से लिये गए हैं।
दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आवादी डा. लाल रत्नाकर के कला संसार की पूरी दुनिया है। यही वह आबादी है जो सदियों से सांस्कृतिक सरोकारों को सहेज कर पीढ़ियों को सौंपती रही है और संस्कारों का पोषण करती रही है। कितने शीतल भाव से वह अपने दर्द को अपने भीतर समेटे रखती है और कितनी सहजता से अपना दर्द छिपाये रखती है, यह सब लाल रत्नाकर की कलाकृतियों में मुखरता से उभर कर आता है। उनके पात्र प्रमुख रूप से ग्रामीण आंचल से लिये गए हैं। हालाँकि पुरुषों का चित्रांकन उन्होंने बहुत कम किया है पर जहाँ कहीं वे उनकी तूलिका से आकार लेते हैं संपूर्ण भारतीय ग्रामीण वैभव के साथ प्रदर्शित होते हैं।
उनके पात्र मेहनतकश वर्ग के हैं। उनके पहनावे उनके आभूषण और उनके उपयोग की वस्तुएँ सभी को डॉ रत्नाकर कलात्मक संवेदना के साथ प्रस्तुत करते हैं। तोते और बैलों और घोड़ों का वे विभिन्न रंगों में सजीव चित्रण करते हैं। चक्की लाठी घड़े, पहिये, हल आदि उनके चित्रों में आकर्षक रूप में स्थान पाते हैं। उनके रंग चटकीले हैं, जो उत्सवी रौनक छोड़ते हैं  और दर्शकों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इस विषय में वे कहते हैं- "जिस स्त्री का मेरी कला से सरोकार है मूलतः वह रंगों के प्रति सजग होती है उसे प्रारम्भिक रंगो से गजब का लगाव है जिन्हे वह सदा वरण करती हैं, मूलतः ये मूल रंग इनके मूल में बसे होते हैं यथा लाल पीला नीला बहुत आगे बढ़ी तो हरा बैगनी और नारंगी इसके सिवा उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं वह सीधे सीधे कुछ अलग ही संदेश सम्प्रेषित करते हैं इन रंगो मे प्रमुख हैं काला और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं।"

३० जनवरी २०१२

आधी आबादी और डॉ लाल रत्नाकर

दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आवादी मेरे चित्रों की पूरी दुनिया बनती है. ..
डॉ लाल रत्नाकर
Dr.LAL RATNAKARयही वह आवादी है जो सदियों से संास्कृ तिक सरोकारों को सहेज कर पीढि़यों को सौंपती रही है वही संस्कारों का पोषण करती रही है. कितने शीतल भाव से वह अपने दर्द को अपने भीतर समेटे रखती है और कितनी सहजता से अपना दर्द छिपाये रखती है. कहने को वह आधी आबादी है लेकिन षेश आधी आबादी यानी पुरूशों की दु निया में उसकी जगह सिर्फ हाशिऐ पर दिखती है जबकि हमारी दु निया में दु ख दर्द से लेकर उत्सव-त्योहार तक हर अवसर पर उसकी उपस्थिति अपरिहार्य दिखती है जहां तक मेरे चित्रो ं के परिवेश का सवाल है, उनमें गांव इसलिए ज्यादा दिखाई देता है क्योंकि मैं खु द अपने आप को गांव के नजदीक महशूस करता हूॅं सच कहूॅ तो वही परिवेश मु झे सजीव, सटीक और वास्तविक लगता है. बनावटी और दिखावटी नहीं.
बार-बार लगता है की हम उस आधी आवादी के ऋणी हैं और मेरे चित्र उऋण होने की सफल-असफल कोशिश भर है.  मेरे चित्रों की ‘नारीजाति की तरंगे’ नारीजाति की तरंगे’ शीर्ष क से इन दिनों एक चित्र प्र दर्श नी ललित कला अकादमी, रवीन्द्र भवन की कलादीर्घा 7 व 8 में 19 मार्च 2011 तक चलेगी, प्र दर्शनी प्रातः 11 बजे से सायं 7 बजे तक खु ली रहती है।
और डॉ लाल रत्नाकर के चित्र इस चित्र प्रदर्षनी में नारीजाति की तरंगे विषय को केन्द्र में रखकर चित्रों का चयन करके उन्हें प्र दर्शि त किया गया है जिनमें भारतीय नारीजाति की विविध आयामी स्वरूपों का दृश्याकंन किया गया है जिनमें-यह दिखाने का प्र यत्न किया गया है जिनमें जिस रूप में स्त्रियां जन्म से लेकर अब तक आकर्शि त, प्र भावित और उत्प्रेरित करती आयी हैं परंतु इनकी अपनी व्यथा है जो पढ़ना बहुत
ही सरल होता है. आप मान सकते हंै कि मैं पु रुषों को उतनी आसानी से नहीं पढ़ पाता हूं । मैने बेशक स्त्रियो ं को ही अपने चित्रों में प्र मु ख रुप से चित्रित किया है, क्योकि मु झे नारी सृ जन की सरलतम उपस्थिति के रूप मे ं परिलक्षित होती रहती है कहीं कहं के फुहड़पन को छोड़ दंे तो वे आनन्दित करती आयी हैं जिसे हम बचपन से पढ़ते सुनते और देखते आए हैं यदि हम यह कहें कि नारी या श्रृंगार दोनों में से किसी एक को देखा जाए तो दूसरा स्वतः उपस्थित होता है ऐसे में सृ जन की प्र क्रि या वाधित नहीं
होती वैसे तो प्र कृ ति, पशु , पक्षी, पहाड,़ पठार और पुरूश कभी कभार बन ही जाते हैं . परन्तु शीतलता या सुकोमल लता के बदले किसी को चित्रित किया जा सकता है तो वह सम्भवतः नारी ही है.
मेरी स्त्रियां सीता नहीं हैं कृ श्ण की राधा नहीं है और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं ये स्त्रियां खेतों खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली जिन्हें वह अपना राम और कृष्ण समझती हैं लक्ष्मीबाई जैसे नहीं लेकिन अपनी आत्म रक्षा कर लेती हैं वही मु झे प्र ेरणा प्र दान करती हैं।
मेहनतकश लोगों की कु छ खूबियां भी होती हैं जिन्हें समझना आसान नहीं है यदि उन्हें चित्रित करना है तो उनके मर्म को समझना होगा उनके लय उनके रस के मायने जानना होगा, उनकी सहजता उनका स्वाभिमान जो पूरी देह को गलाकर या सु खाकर बचाए हैं दो जून रूखा सूखा खाकर तन ढक कर यदि कु छ बचा तो धराउूं जोड़ी का सपना और सारी सम्पदा समेटे वो जैसे नजर
आते हैं वैसे होते नहीं उनका भी मन है मन की गुनगुनाहट है जो रचते है अद् भूद गीत संगीत व चित्र जिन्हें लोक कह कर उपेक्षित कर दिया जाता है उनका रचना संसार और उनकी संरचना मेरे चित्रों में कैसे उपस्थित रहे यही प्र यास दिन रात करता रहता हूं. उनके पहनावे उनके आभू षण जिन्हें वह अपने हृदय से लगाये रात दिन ढ़ोती है वह सम्भव है भद्र लोक पसन्द न करता हो और उन्हें गंवार समझता हो ले किन इस तरह के आभूषण से लदी फदी स्त्रियां उस  समाज की भद्र मानी जाती है ये भद्र 2 महिलाएं भी मेरे चित्रों में सु संगत रूपों में उपस्थित रहती हैं मेरे ग्रमीण पृ ष्ठभूमि के होने मतलब यह नहीं है कि मैं और भी विषय का वरण अपनी सृजन प्र क्रि या के लिये नहीं कर सकता था पर मेरे ग्रमीण परिवेश ने मु झे पकड़े रखा ऐसा भी नहीं मैंने छोटी सी कोशिश भर की है उनको समझने की।
और डॉ लाल रत्नाकर के चित्र
जिस स्त्री का मेरी कला से सरोकार है मूलतः वह रंगों के प्र ति सजग होती है उसे प्र ारम्भिक रंगो से गजब का लगाव है जिन्हे वह सदा वरण करती हैं,मूलतः ये मूल रंग इनके मूल में बसे होते े हैं यथा लाल पीला नीला बहु त आगे बढ़ी तो हरा बैगनी और नारंगी इसके सिवा उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं वह सीधे सीधे कुछ अलग ही संदेष सम्प्र ेषित करते हैं इन रंगो मे
प्र मु ख हैं काला और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं .
इन रंगो के साथ उसका सहज जुडाव उसे प्रकृ ति और सत्य के समीप रखता है, उत्सव एवं पारम्परिक मान्यताएं भी इन चटख रंगो को अंगीकृ त करते हैं।  आज के बदलते दौर में हमारी स्त्री उतनी प्र भावित नहीं हो रही है, लेकिन अगली पीढ़ी सम्भव है तमाम बदलते सरोकारों को स्वीकारे लेकिन निकट भविष्य में मूलतः जो खतरा दिखाई दे रहा है वह यह है कि इस आपाधापी मे ं उसकी अपनी पहचान ही न खो जाए.समकालीन दु निया के बदलते परिवेष के चलते आज बाजार वह सामग्र ी परोस रहा है जो उस क्षेत्र तो क्या उस पूरे परिवेश तक की वस्तु नही है इसका मतलब यह नही हु आ कि मैं विकास का विरोधी हूं लेकिन जिन प्रतीकों से मेरा रचना संसार समृ द्ध होता है उसमें आमूल चूल परिवर्त न एक अलग दु निया रचेगा जिससे सम्भवतः उस परिवेश विशेष की निजता न विलु प्त हो जाए।
सहज है वेशकीमती कलाकृ तियां समाज या आमजन के लिए सपना ही होंगी मेरा मानना इससे भिन्न है जिस कला को बाजार का संरक्षण मिल रहा है उससे कला उन्नत हो रही है या कलाकार सदियों से हमारी कलायें जगह जगह विखरी पड़ी हैं अब उनका मूल्यांकन हीे भी तो उससे तब के कलाकारों को क्या लाभ. आज भी जिस प्रकार से बाजार कला की करोड़ो रूपये कीमत लगा रहा है बेशक उससे कलाकारों को प्र ोत्साहन मिलता है वह उत्साहित होता है लेकिन यह खोज का विषय है कि यह करोड़ो रूपये किन कलाकारों को मिल रहे हैं. कम से कम समाज ने तो इसे सु न सु न कर कलाकार को सम्मान देना आरम्भ कर दिया है कल तक जहां कला को कु छ विशेष प्र कार के लोगों का काम माना जा रहा था आज हर तबके के लोग कलाकार बनने की चाहत रखते हैं इससे कलाकार
की समाज में प्र तिष्ठा बढ़ी है…………
डॉ लाल रत्नाकर
पिछले दिनों मेरे चित्रों की एक प्रदर्शनी ललित कला अकेडमी नई दिल्ली  की गैलरी सात और आठ में आयोजित हुयी जिसमें अनेक गणमान्य अतिथि शरीक हुए जिन्होंने कुछ न कुछ मेरे चित्रों के विषय में लिखा है . उनके विचारों को यहाँ दे रहा हूँ -



“महिलाओं के एसे रूप जो आजकल नज़र नहीं आते, औरतें जो तरक्की की खान हैं, लेकिन अपने को व्यक्त नहीं कर पा रहीं; उनकी समग्र शक्ति और रचना का दर्शन करने के लिए डॉ.लाल रत्नाकर बधाई के पात्र हैं.”

श्री संतोष भारतीय - संपादक ‘चौथी दुनिया’


“वर्तमान परिदृश्य में मिडिया अथवा कला जगत में भारत को देख पाना कुछ मुश्किल हो गया है ! डॉ.लाल रत्नाकर के चित्रों भारत, भारत का ग्रामीण जीवन, ग्रामीण परिवेश देखकर ख़ुशी हुयी . महिलाओं की छवियों को  विविध रूपों , आयामों में देखना एक सुखद अनुभव रहा . बहुत २ बधाई एवं शुभकामनाएं .

डॉ.लक्ष्मी शंकर वाजपेयी - केंद्र निदेशक ‘आकाशवाणी’ नई दिल्ली
Pl. go on – as vibrantly as you can !
डॉ.अशोक वाजपेयी
अध्यक्ष ‘ललित कला अकादमी’ नई दिल्ली
मैं रत्नाकर के चित्रों का प्रसंशक हूँ.
श्री उदय प्रताप सिंह
कवि एवं चिन्तक
ग्राम्य परिवेश में औरतों की भाव-भंगिमाएं, जिसमें वहां की अनेक विसंगतियां उभरती हैं , देखना ! सचमुच सुखद है. कुछ नए चित्रों और रेखांकनों में जीवन जिस तरह अभिव्यक्त है, वह कम सराहनीय नहीं . बधाई ! शुभकामनायें!
श्री हीरा लाल नागर
अहा ! जिंदगी
डॉ.रत्नाकर की कला प्रदर्शनी लोक जीवन का रंगोत्सव है . लोक मुहावरे की पकड़ और आधुनिकता के प्रयोग ने इनके कलाकर्म को विशिष्ट बनाया है. बधाई !
श्री प्रदीप सौरभ
पत्रकार एवं साहित्यकार
श्रमशील ग्रामीण  महिलाएं – एक लुप्त होती हुयी प्रजाति – रत्नाकर जी की दृष्टि और संवेदना की दाद दे रहा हूँ . नुह की नाव की तरह कुछ बचा लिया जाय भविष्य के लिए—–!
श्री संजीव -१८-३
साहित्यकार एवं कार्यकारी संपादक ‘हंस’
स्त्री विहीन लोक जीवन की कल्पना ही असंभव है . आप ने इसी जीवन की विभिन्न छवियों को, जीवन की श्रम संस्कृति को जिस तरह रचा है, उसके लिए बार बार बधाई .


पत्रकार एवं साहित्यकार


श्री राम कुमार ‘कृषक’

अद्भुत
प्रो.प्रमोद कुमार यादव
स्कूल आफ लाइफ साइंस
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
It is an excellent expression of women & village in unique colour compositions reminding Gandhiji’s concept of India; a federation of seven lakh villages, the cultural spirit of India.
प्रो.पी. सी. रथ
स्कूल आफ लाइफ साइंस
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली

ये रंग – रेखाएं
जैसे बोल उठेंगी
अभी अभी
जिवंत , संवेद्य
मैं महसूस कर सकता हूँ इनमें
अपनी और
कल मैंने आपकी पेंटिंग देखीं थीं। अभिभूत हूँ उन्हें देख कर। अन्य चित्र प्रदर्शनियों के समान आपकी चित्र प्रदर्शनी फर्नीचर की दुकान समान नहीं थीं। लाल रत्नाकर जी के चित्रों से रू ब रू होते ही आप एक सम्मोहन में बंध जाते हैं मानो। पेंटिंग के पात्र-दृश्य-रंग-ब्रुश स्ट्रोक मानो सांस लेते हैं आपके साथ। उनके दर्द में आप उदास होने लगते हैं, उनके उल्लास में आप मानो नाचने के लिए आतुर होने लगते है। पेंटिंग्स के बीच में खड़े हो कर लगता है मानो किसी भूले-बिसरे मित्र ने अचानक आप को छू लिया हो और धीरे से मानों कान में कहा हो-” इतने दिन बाद आए ! मैं कब से प्रतीक्षा कर रहा था/रही थी ” रंग मानो आपके अंतस में पैठ कर आपको सराबोर कर देते है। ब्रुश स्ट्रोक ऐसे कि लगे मानो अभी भी पात्रों को सहला रहे हों। जीवन की कठोरता, दारिद्र्य में भी पात्रों,दृश्यों,रंग, संयोजन की कोमलता बनी रहती है। मैं अभिभूत हूँ। धन्यवाद रत्नाकर जी.
अपनी माटी की गंध.
कितने अपने आस पास है .
डॉ.चन्द्र देव यादव
हिंदी विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया नई दिल्ली
श्री उमराव सिंह जाटव
हिन्दी लेखक हैं

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