14 सित॰ 2009

आधी आवादी और हमारा समाज तथा आजादी की करामात

डॉ.लाल रत्नाकर 



पिछले दिनों शिक्षक दिवस मनाया जाना था पर जब आवश्यक ही नहीं लगा डॉ. सर्वपल्ली सर राधाकृष्णन जी के जन्म दिवस पर ''शिक्षक दिवस '' ०५ सितम्बर २००९ पर चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में आयोजित गोष्ठी में डॉ. सर्वपल्ली सर राधाकृष्णन का नाम लिया जाना और न ही उनका चित्र लगाया जाना |
पिछले दिनों एक लेख रविवार.कॉम पर पढ़ा जो जिन्ना पर था जिसमे हरदेनिया साहब ने जिन्ना को याद कराके भारत की धर्मं निरपेक्षता का राग अलापा है,जिसमे सबसे ख़राब बात यह है की सदियों के पुराने ख्यालों को फिर से रोना रोया है न ही आज की समझ है और न ही विवेचना की, आज क्या हो रहा है|
हम तो जुल्म करेंगे और तुम्हे रोने भी नहीं देंगे ?
हजारों सालों का इतिहास और आजाद भारत का चरित्र - दोनों ही अजीब सम्बन्ध है, रजा रानी की कहानी और अमिर होते जाने की त्रासदी, यही हाल रहा तो जीने की लालसा भी पूरी हो जायेगी भी तो भी क्या होगा वही पाण्डेय जी दुबे जी मिश्रा जी इतने काबिल और .................रोज रोज डूबता देश |  
 श्रीयुत एस.एल.हरदेनिया के विचारों में जिस धर्मनिरपेक्षता का जिक्र है, वह भारतीय परिभाषा हो सकती है, जिस तरह की धर्म निरपेक्षता यहाँ सदियों से चलन में है,उसके चलते यहाँ दुनिया के वह धर्म जो भी यहाँ राज्य करने की इक्छा किये वह सब यहाँ राज्य किये | क्या कभी आपने सोचा भारत की धर्म निरपेक्षता ......? जिसने सदियों इस देश के असंख्य लोगो को धर्म के नाम पर जानवरों जैसा जीवन जीने के लिए विवस किया, उन्हें ही जानवरों के समान खटाया उनकी मेहनत के बल पर ऊँची - ऊँची अन्तालिकाएं, महल,सड़के,नहर,और पुल खड़े किये,पर यदि कुछ नहीं खडा किया तो श्रमजीवियों के लिए जीने का आर्थिक श्रोत | 

यदि अविभाजित देश के ढांचे को देखा जाये तो पता चलेगा की अकेले ज्ञान से ही वंचित ही नहीं किया? बल्कि भेदभाव की इतनी बड़ी दिवार खड़ी की कि वह आज तक नही टूट पा रही है| जिसने भी जितने भी प्रयास हुए सब बिफल हो गए क्यों? किसकी नियति ख़राब थी? ठीक है जिन्होंने हिन्दू होने के भ्रम में सदियों से यातनाए सही दुःख भोगे पर हिन्दू बने रहे, मुझे याद है स्वामी सत्य प्रकाश 'सरस्वती'(डॉ.सत्य प्रकाश श्रीवास्तव-अध्यक्ष रसायन शास्त्र विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय ) ने अमेठी प्रवास में एक बार बातचीत में हिन्दू बर्बरता का जिक्र करते हुए कहे थे कि 'जब पाकिस्तान बन गया और जिसने जिस मुल्क का वरन किया वह अमन से क्यों नहीं जी रहा है उनके दुश्मन कौन है ?'

जिनको हीरो बनाने में जसवंत जी लगे थे तब तक वह ठीक थे 'एक नए लौह पुरुष का निर्माण हो रहा था - संयोग से वह ईमारत समय से पहले ही ढह गयी'' जसवंत जी तब तक वही थे | पटेल लौह पुरुष थे पर दुसरे लौह पुरुष का निर्माण का खेल गुजरात के लिए मजाक नहीं था गुजरात के लोग सांसद भी बनाते है और अपने ही लौह पुरुष के पैरलल इन्हें खडा होने देते है कितने सज्जन है ''इन्हें पहचानो ''?

रही बात जिन्ना कि तो जिन्ना इस साजिस के हिस्से न बनते यदि नेहरू जी को धर्म निरपेक्षता का पता होता? जो भी हुआ वह न होता न देश बटता और न ही धर्म का बोलबाला होता जब राज्य धर्म से चलता था तब धर्म के नियम चलते थे, धर्मनिरपेक्ष राज्य तब धर्म के नाम पर बटवारा तो दलितों के देश का क्या हुआ, पिछडों का देश कहाँ गया ? यह तो द्विजों का देश ही होकर रह गया है | इस साजिस के खिलाफ कौन खडा हो रहा है,जसवंत जी गए ज़माने कि ढोल बजा रहे,अब मुसलमान को मुसलमान तो रहने दीजिये? यदि संभव हो तो जो अगला बटवारा कि कार्य योजना बन रही है उस पर कुछ सोचिये ?





रविवार . कॉम  से साभार - 


संवाद

ब्राह्मणों को ज्ञान-पिशाच कहना चाहिए

सुप्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव से गीताश्री की बातचीत

पिछले दिनों वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने रविवार के साथ बातचीत में भारतीय क्रिकेट में जातीय कौशल के योगदान को रेखांकित करने के क्रम में सिलीकॉन वैली का संदर्भ उठाते हुए वायवीयता, बाह्मण, ब्राह्मणवाद, अमूर्तता और कौशल को लेकर अपने विचार रखे थे. इसे महज संयोग कहा जाए कि उस साक्षात्कार के कुछ ही दिन बाद सुप्रसिद्ध कथाकार और 'हंस' के संपादक राजेन्द्र यादव ने भी अपने एक वक्तव्य में जाने-अनजाने इसी स्थापना पर मुहर लगाई कि ब्राह्मणों मेंअध्यात्म और तत्वज्ञान के बारीक विश्लेषण का हुनर होता है और ये कविता करने में काम आता है. ये हुनर उनमें जातिवादी व्यवस्था के जरिए विरासत में मिली बौद्धिक संपदा की बदौलत आता है.
इन्हीं मुद्दों को केंद्र में रख कर राजेंद्र यादव जी से यह बातचीत की गयी.

राजेन्द्र यादव

 आपकी वर्गीय चेतना इन दिनों कुछ थकी मांदी और पस्त होती जान पड़ रही है. अब तक हम जिस राजेन्द्र यादव को जानते थे, उससे एकदम अलग नज़र आ रहे हैं. जिनकी वर्गीय चेतना में जातीय प्रश्नों की ध्वनियां मुखर हो रही है. क्यों ?

उदय प्रकाश पर जाति का आरोप है (आदित्यनाथ के प्रसंग में) उन्होंने जिस तरह से ओबीसी वगैरह के मुद्दे को उठा कर मुझे उससे जोड़ने की कोशिश की, मैं उसका जवाब देना चाहता था. वो शायद पैदा भी नहीं हुए थे तब तक मैं अपने तीन उपन्यास लिख चुका था. वो मेरे लिएजाति का अतिक्रमण करने की व्यक्तिगत कोशिश थी. उनका बयान मेरे व्यक्तिगत उपक्रम को आहत कर रहा था. उसके जवाब में मैंने कहा कि वर्ग दो हैं, एक जिन्होंने ज्ञान को मोनोप्लाइज़ (monopolize) किया है और दूसरा वो कि जिनके पास भौतिक अनुभव हैं. ब्राह्मण और नॉन ब्राह्मण. अगर मैं नॉन ब्राह्मण में भी वर्गीकृत करता तो वो जातिवाद था.
ब्राह्मणों के पास कई हज़ारों साल से ज्ञान कैद है जिसे उन्होंने किसी दूसरे के पास जाने नहीं दिया, उनके पास ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या था. वो अमूर्तन में विचरते रहे, इसीलिए उनके पास कविता है, क्योंकि कविता अमूर्तन का खेल है.

 प्रभाष जोशी ने अपने साक्षात्कार में जिस तरह सिलीकॉन वैली का संदर्भ उठाते हुए वायवीयता, बाह्मण, ब्राह्मणवाद, अमूर्तता और कौशल को लेकर अपने विचार रखे थे. आपके वक्तव्य में भी कहीं ना कहीं तात्विक रूप में वही जातीय श्रेष्ठता की ही बात सामने आती है. जब आप कहते हैं कि कविता कर्म, मूर्त, अमूर्त पर आधारित है और ब्राह्मण अदृश्य को देखने और कल्पना करने में माहिर होते हैं, इसीलिए वे इस क्षेत्र में दूसरी जातियों से आगे है या यहां एक तरह से उन्हीं का वर्चस्व है. अध्यात्म और तत्वज्ञान के बारीक विश्लेषण का हुनर उनमें होता है और ये कविता करने में काम आता है. ये हुनर उनमें जातिवादी व्यवस्था के जरिए विरासत में मिली बौद्धिक संपदा की बदौलत आता है. क्या इसे प्रभाष जोशी के विचारो का विस्तार नहीं माना जाना चाहिए ?

प्रभाष जोशी self glorification (आत्ममहिमा गान) में हैं, अपने को और ब्राह्मण होने को glorify कर रहे हैं. मैं glorify नहीं कर रहा, मैं उस प्रक्रिया की ओर इशारा कर रहा हूं जहां दूसरी जातियों को अमानवीय और क्रूर तरीकों से दूसरी जातियों को ज्ञान से वंचित रखा गया. यहां मुझे अमरीका की “टाइम” पत्रिका की, वहां के वैज्ञानिकों के बीच हुई बहस याद आ रही है, कि क्या हमें उन वैज्ञानिक सिद्धांतों और निष्कर्षों को बिना किसी नैतिक दंश के स्वीकार कर लेना चाहिए, जो जर्मनी के नाज़ी वैज्ञानिकों और डाक्टरों ने मार दिए जाने वाले यहूदियों के साथ अमानवीय परीक्षणों के दौरान प्राप्त किए थे. उन परीक्षणों में कितनों को नृशंस यातनाएं दी गईं, कितने मारे गए, क्या उन सबको लेकर कोई अपराधबोध हमें नहीं होना चाहिए?

प्रभाष जोशी और मेरे कहे में फर्क है. उनके लिए जो गर्व का विषय़ हो सकता है, हो सकता है वही मेरे लिए शर्म या प्रश्नाकुलता का विषय हो.

 आपने आधुनिक साहित्य के श्रेष्ठ 10 कवियों और कथाकारों की सूची बनाई है. वह चर्चा में है. इस सूची का आधार क्या है ? क्या ये महज ऐच्छिक पसंद और नापसंद से तैयार की गई सूची है ?

मैं सिर्फ ये जानना चाहता हूं कि जो लोग मेरी बनाई सूची में शामिल हैं, क्या वो महत्वपूर्ण कवि या लेखक नहीं? क्या उनके बिना आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास पूरा हो सकता है ? हां, आप ये कह सकते हैं कि दस की ही क्यों बनाई, बीस की क्यों नहीं, पचास की क्यों नहीं? पर... ये चुनाव मेरा है. मैंने अपनी सुविधा से जिन दस की ही बनाई, क्या वे दस कमज़ोर हैं? महादेवी वर्मा को छोड़कर सभी ब्राह्मण थे कवियों सूची में, लेकिन क्या उनके बिना हिंदी कविता का इतिहास पूरा होता है?

उधर कथाकारों में मैंने नाम लिए थे प्रेमचंद, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा, फणीश्वरनाथ रेणु, मोहन राकेश, शैलेष मटियानी. क्या इनके बगैर साहित्य का इतिहास पूरा होता है? कोई जातिगत भेद नहीं सिर्फ ब्राह्मण और नॉन ब्राह्मण हैं, एक में अमूर्तन है तो दूसरे में अनुभव और संवेदना है. ऐसा कहते वक्त जातिगत पूर्वाग्रह मेरे जरा भी नहीं हैं.

  इस संदर्भ में मैं भक्तिकाल के कवियों की लंबी सूची आपको गिनाना चाहती हूं... नानक, रविदास से लेकर अग्रदास तक ढेरों नाम हैं. इस सूची को ध्यान में रखते हुए कविता-कुल को जाति-कुल में देखने को आप किस तरह परिभाषित करना चाहेंगे?

हम आधुनिक साहित्य और साहित्यकारों की बात कर रहे हैं तो भक्तिकाल बीच में कहां से आ गया?

  आप कविता की परंपरा में जातिगत संभावना की बात कर रहे हैं. इस सदी में जब कविता में ब्राह्मणों के कौशल की बात की जाती है तो लगता है कविता में जाति एक संभावना है.

जिसे भक्तिकाल कहते हैं, उसके दो हिस्से हैं. एक तो आचार्यों का है जिसमें ब्रह्म, जीव, माया जैसी निरर्थक बातों पर माथापच्ची है और दूसरे वर्ग में जुलाहे, रंगरेज, मेहनत करने वाले, औरतें और मुसलमान भी शामिल थे. वहां भी दो वर्ग हैं- संतों और भक्तिवालों का.

जब रविदास खुद को खालिस चमार घोषित करते हैं तब क्या है? या फिर जुलाहे कबीर को क्या कहेंगे? मुझे लगता है कि कुछ बेवकूफी की बातें हममें भर दी गई हैं. जैसे मनुष्य मनुष्य एक है, उनमें भेद करना गलत है.

आप बताइए क्या अमरीका और यहां का मनुष्य एक है? हमारी मानसिक बनावट, हमारे संस्कार, हमारे अभ्यास, हमारी भौगोलिक और भौतिक सुविधाएं वो नहीं हैं, जो अमरीका के लोगों की है. एक जैसे लगने के बावजूद हम दो बिल्कुल अलग नक्षत्रों पर रहने वाले जैसे हैं. जब-जब आप वैज्ञानिक विश्लेषण करेंगे तो चीज़ों को तोड़कर टुकडों में ही समझना पड़ेगा. सर्व समेटू सामान्यीकरण हमें कहीं नहीं ले जाएगा.

  कौशल, परंपरा और अनुसंधान के मामलों में ब्राह्मणों की तुलना में गैर-ब्राह्मण जातियां सदैव अग्रणी रही हैं. फिर भी ब्राह्मणों को किसी ने चुनौती नहीं दी. जब ब्राह्मणों के कोशल की आप बात करते हैं तो लगता है कि आप भी कहीं ना कहीं उसी स्थापना के पक्ष में खड़े हैं, जहां ब्राह्मण को श्रेष्ठ बताया जाता रहा है.

दूसरों ने नहीं, ब्राह्मणों ने खुद ही अपने को श्रेष्ठ कहा है. गैर-ब्राह्मणों को तो उन्होंने कानों में गरम सीसा डाल कर, शम्बूकों का वध कर के, या एकलव्यों के अंगूठे काटकर ज्ञान से दूर रखा. उन्हें तो परम ज्ञानी होना था. तुम्हीं बताओ यह गर्व की बात है या शर्म की ? इस सब के लिए ब्राहमणों को गर्व करना चाहिए या शर्म ? ज्ञान के प्रश्न सुनकर गार्गी का सिर काटने की धमकी किसने दी थी?

राजेंद्र यादव


ज़रा सोचो, हमारे यहां आविष्कार क्यों नहीं हुए ? इसीलिए नहीं हुए क्योंकि ज्ञान ब्राह्मणों के पास कैद था और वे मेहनत का काम नहीं कर सकते थे, और जो मेहनत का काम कर सकते थे, उनके पास ज्ञान नहीं था.

आविष्कार के लिए ज्ञान और मेहनत दोनों चाहिए. मेहनत करने वाले हाथ से ही काम करते थे, जिसमें 1000 साल में भी कोई बदलाव नहीं हुआ. उधर दुनिया बदल देने वाले सारे आविष्कार चीन में हुए. कागज, प्रिंटिंग, बारूद, कंप्यूटर, चीनी, रेशमा कपड़ा जिसे चीनांशुक कहते हैं, चाय जैसी आधुनिक जरूरत की सारी चीज़ों का आविष्कार इसीलिए नहीं हो पाया क्योंकि हमारे यहां की तरह चीन में हाथ से काम करने वालों और ज्ञान प्राप्त करने वालों के बीच भेद नहीं था. आविष्कार सब बाहर ही क्यों हुए हैं.

मैं किसी को श्रेष्ठ नहीं ठहरा रहा हूं. जैसी पूंजीपतियों को धन-पिशाच कहते हैं, ठीक वैसे ही ब्राह्मणों को ज्ञान-पिशाच कहा जाना चाहिए.

  अभी तक अल्पसंख्यक पक्षधरता के मामले में राजेंद्र यादव एक जिद्दी स्वर की तरह प्रस्तुत थे. यकाय़क उनकी अनुभव चेतना इकहरी पक्षधरता से निकल कर सांप्रदायिकता के यथार्थ को चिन्हित कर रही है. क्या कारण है?

मैं इस बात पर विश्वास करता हूं कि जो मान्यताएं शुरु से चली आ रही हैं, अब उन पर प्रश्न करना चाहिए. इस्लाम के बारे में भी जिन चीज़ों पर मैंने प्रश्न किए तो क्या प्रश्न करने से ही मैं सांप्रदायिक हो गया? मैं अगर पूछता हूं कि हर मुसलमान को क्यों बार-बार शरियत और कुरान चाहिए ? हम तो नहीं चिंता करते कि वेदों में क्या लिखा. अपनी स्थितियों के अनुसार हमें जो करना होता है, करते हैं. हम क्यों कुरान और मोहम्मद साहब के संबंध में सवाल नहीं कर सकते ?

  आप उम्र के जिस पड़ाव पर हैंवहां अपने जिए और किए को किस तरह देखते हैं?

अभी जी तो लूं.... नहीं, अभी नहीं बता सकता, बहुत सारे अनुभव अभी बाकी हैं.

 अच्छा, जो हो चुका उसे किस तरह देखते हैं?

चेखव का नाटक “तीन बहनें” आपने पढ़ा होगा, उसका एक पात्र कहता है “कितना अच्छा होता कि ये जो जिंदगी हमने जी है, वो एक रफ ड्राफ्ट होती, उसे एक बार संशोधित करने का मौका हमें मिलता.”

एक फ्रेंच नाटककार को लगा क्यों ना इसे ही आधार बनाकर नाटक लिखा जाए. और उसने एक नाटक लिख डाला, एक उदास पात्र जिसे उसकी प्रेमिका धोखा दे चुकी है, नशे में धुत्त बैठा है और सोच रहा है कि अपनी पिछली जिंदगी में वह क्या कुछ संशोधित कर सकता था. वह पिछले पन्ने पलटता है- क्या यह गलत था कि मैं अकेला था, पास पैसा था, समय बिताने के लिए अगर क्लब गया? क्या गलत था कि वहां क्लब में सबसे सुंदर लड़की को मैंने डांस के लिए पूछा? क्या यह गलत था कि उसे वापसी में उसके घर तक छोड़ा और उसके ही आग्रह पर कॉफी और फिर शराब पी, संभोग किया, फिर शादी की.... वह सोचता है क्या मैं ये सब दूसरी तरह से कर सकता था? क्या कुछ अलग हो सकता है? तब उसे लगता है, कहीं कुछ अलग नहीं हो सकता था. जो ज़िंदगी है, वो ही सबसे अच्छी है. उसमें कहीं कोई रिवीज़न नहीं हो सकता. बस इसी नाटक को जिंदगी का नाम दिया जा सकता है.

 कोई सपना या बेहिचक स्वीकार, जिसे आप उम्र के इस मुकाम पर देखना या करना चाहते हैं? जिससे आपको एक निर्भारता का बोध हो ?


बहुत से सपने हो सकते हैं, मन्नू को प्रसन्न रखने का, प्रेमिका को दिये गये वचन को निभाने का सपना हो सकता है, जिन्होंने मुझे भावनात्मक सहारे दिये, उनके प्रति कृतज्ञ होने की आकांक्षा हो सकती है, अधूरी चीजों को पूरा करने का स्वप्न हो सकता है. अधूरे उपन्यास पड़े हैं, एक 140 पन्नों के बाद अधूरा पड़ा है, एक 200 पन्नों के आसपास अधूरा है. बहुत से सपने ऐसे भी होते हैं, जिन्हें आप किसी से नहीं कहना चाहेंगे. उम्र के हर पड़ाव पर सपना अधूरा ही दिखाए देगा. क्योंकि जिंदगी अभी अधूरी है.

मोहन राकेश जिदंगी भर एक घर पाने को तड़पता रहा. मेरी जिंदगी बने बनाए घर छोड़ने की रही है. आगरा का घर था, वह भाइयों को दे दिया. हौज़ खास मन्नू का घर था और यह हिंदुस्तान टाइम्स अपार्टमेंट फ्लैट मालिक का घर है. मैं सिर्फ कभी-कभी पूछता हूं मेरा घर कहां है? कभी लगता है, हंस का घोंसला ही मेरा घर है, मगर वह मेरा कहां है, सबका है. बीना, किशन, दुर्गा, हारिस का है या उन असंख्य पाठकों का है जो रोज़ आकर या दूर से ही इसे अपना घर घोषित करते हैं. मैं तो हर बार “अनिकेतन” ही रह जाता हूं, “हम दीवानों की क्या हस्ती है आज यहां कल वहां चले...”




    

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