5 सित॰ 2009

राजनीतिक कुचक्र और सामाजिक बदलाव


- डॉ. लाल रत्नाकर 
आज हम जिस राजनितिक कुचक्र के वश में आकर अपनी शक्ति से  संघर्ष करके अर्जित की गयी ताकत को दूसरों के हाथो गिरवी रख कर मदहोश हो कर सत्ता तलाश रहे है. वह आसान  नहीं है जिनके संघर्षों ने इसे अर्जित किया था वह हो सकता है सांसद  व् विधायक न बने हों पर वह दूरदर्शी तो थे ही,जिस समाज ने गरिमा और गौरव पाने के लिए इतने संघर्ष किये की आज वह या उसके लोग सड़क पर है पर पूरे आन्दोलन से उपजे हुए पराक्रम की डोर उन्होंने हड़प ली जिन्हें तब ये भी नहीं पता था की सामाजिक आन्दोलन क्या होता है? आज उन्ही के चलते सामाजिक सरोकारों से जुड़े सवाल गौड़ हो गए है और उनकी जगह महत्वाकान्छाये बड़ी हो गयी है, सामाजिक आंदोलनों के गूढ़ मंत्रो को छोड़ अहंकारी और लूटपाट के सभी रास्तों  को हथियाना आन्दोलन का नजरिया बन गया है |

जब सब कुछ बिगाडा हुआ था ''तत्कालीन'' सत्ता नासीनो ने और उन्ही  के खिलाफ जो आन्दोलन चले उनमे जो नेता आये तब जनता ने उन्हें गले लगाया, उस जनता को क्या पता था की ये शेर के खोल में भेडिये है, ये उनसे भी शातिर निकले जिन्हे ये भी डर नहीं रहा की राजनीती के वंशवाद के खिलाफ तुम्हारा आगमन हुआ है, पर जान बूझ कर जनता द्वारा दी गयी सारी ताकत को अपने वंश को खडा करने में लगाने के लिए नहीं, पर हुआ बिलकुल इसी के पलट. इन बदलाव के प्रासेस को जिन हाथो  की जरुरत थी शायद वह थे ही नहीं या उनकी तलाश नहीं की गयी या उनको दूर रक्खा गया. जो भी हुआ उसका खामियाजा यह हुआ की पूरे देश के बदले हुए परिदृश्य में नेत्रित्व देने वो आये तब शायद जो नवजवान थे जिनमे उत्साह तो रहा होगा पर विजन नहीं रहा होगा, क्योंकि तब उन्होंने अपने अनुभवी बूढों को किनारे कर दिया था  अन्यथा पूरे सामाजिक आंदोलनों की यह गति न हुयी होती | पर अब भी वही नजरिया है आज जो नवजवान है वो बूढे राजनीतिकों से दूर जा रहे है |


जो इस आन्दोलन की दुर्दशा के जिम्मेदार है वह या उनके पास जो भी थे वे या तो इस आन्दोलन के विरोधी थे या स्वार्थी . उनकी समझ कितनी सामाजिक तरीके से कारगर होनी चाहिए थी उनका आकलन करने की तब उनकी छमता नहीं थी, जिससे सारा आन्दोलन गैर जिम्मेदाराना हाथो ने तहस नहस करके रख दिया. आज की गति बिलकुल विपरीत है, लम्बे समय से लटके मंडल के आते ही कमंडल की सक्रियता उससे भी पलट ग्लोब्लायेजेशन ''राहुल जी के अनुसार आओ अब हमसे नहीं रुक रहा है-तुम इन पर शासन करो'' यानि सब कुछ बेच  देना या मुल्क को गुलाम बना देना उनकी प्रवृत्ति रही है, और आजं यही हो रहा है | 
यही दलित आन्दोलन के इर्द गिर्द हो रहा है, यही पिछडों के आन्दोलन का हाल है जितने भी नेता है उन्होंने यही किया है. इनमे से एक ने भी प्रतिस्पर्धा की राजनीति की जगह परिवार की राजनीति ने समाज को बौद्धिक रूप से इतना पीछे कर दी है की कोई भी बौद्धिक व्यक्ति राजनीति की तरफ सोचने के लिए कई बार सोचता है पर वहाँ की धमा चौकडी की वजह से किनारे ही खडा रहना उचित समझता है, जबकी आज की राजनीति में बौद्धिक नेतृत्व के बगैर सफलता पाना संभव नहीं है, एसे में वह दलित नेता हों या पिछडे इनका सबसे पहला काम है बौद्धिक को अलग रखने का काम,जो काम सदियों की उठा पटक के बाद कुछ बौद्धिक सामाजिक चिंतकों ने यह कर दिखाया पर आज के नेता पूरे आन्दोलन को कैसे गिरवी रख दिया है |
  

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