आखिर वो दिन आ ही गए जब मुलायम सिंह यह मान गए की अमर का जाना पार्टी और परिवार (समाजवादी) के लिए ठीक है,(नई दुनिया-२० दिसंबर २००९ )पर अब क्या होगा इनके चलते जो तमाम लोग पार्टी छोड़ कर चले गए है उनका क्या होगा क्या पार्टी में वह वापस आयेंगे या समाजवाद और समजवादी पार्टी का दो अलग स्वरुप बनेगा, चलिए जो भी होगा पर इससे तो अच्छा होगा. मुलायम सिंह जी को यादवों के बुद्धिजीवियों से एक बार अलग से मिलना चहिये और उनके अलग अलग ग्रुप बना कर उनसे उनकी राय लेनी चहिये, उन्ही में से उन लोगों को साथ लाना होगा जो अपने क्षेत्र की विशेषज्ञता रखते होंगे, जिससे विविध क्षेत्रो में उनकी भागीदारी हो इसमे कोई चोरी नहीं है,क्योंकि आज सभी अपनी जाती के विकास के साथ ही समाज के विकास के लिए उनको आगे लाते है. जब यादव इनके लिए जीता है पिसता है परेशां किया जाता है तो इनका सुझाव भी लेना चहिये और समझ तथा सब्र से पिछड़ों को जोड़ना चहिये क्योंकि उनकी शक्ति और संख्या इतनी है जिससे उनकी ताकत भी बहुत अधिक है .
समाजवादी पार्टी को उसकी खोई हुई ताकत वापस लानी है तो सामाजिक न्याय के आन्दोलन की शक्तियों को जोड़ना होगा, दलितों को भी जोड़ना होगा उनके बुद्धिजीवियों से बात करनी होगी तभी जाकर सामाजिक , आर्थिक , राजनैतिक , शैछिक और सांस्कृतिक दिशा तय करनी होगी सभी के योगदान से धन और बहुबलिओं को धैर्यवान बनने की सीख देनी होगी लड़ने के लिए चुनाव नहीं बुराइयों से लड़ना सीखाना होगा. अधिक नौकरशाह बनाने होंगे महिलाओं को शिक्षित और पुनर्चानाओ से जोड़ना होगा साझी संस्कृति के लिए भेदभाव ख़तम करना होगा, ईमानदार समाज ही देश को समृद्ध कर सकता है.
सवर्ण जातियों का मोह हमेशा कमजोर करता है यह याद रखना होगा.यदि लोहिया , गाँधी ,अम्बेडकर के वसूलों को छोड़ दूसरी नीतियाँ अख्तियार की जाती है तो उससे उनका हित होगा जिनके चलते समज का एक बड़ा तबका सदियों से उपेक्षित बना हुआ है , जिन वसूलों को लेकर चंद्रजीत यादव चल रहे थे वह कहीं बीच में ही खो गया है .
कई एसे बिंदु है जिनसे पूरी सामाजिक सरोकारों से जुडी राजनीति प्रभावित हो रही है. जिसका असर ये हुआ है की काफी जद्दो जेहद के बाद एक दौर आया था जब सामाजिक सन्दर्भों से जुड़े मुद्दों को लेकर राजनितिक बहस शुरू हुयी थी पर- मंडल कमीशन के बाद कमंडल का हमला और ग्लोबलाईजेशन की प्रक्रिया सारे प्रयास को तहस नहस करके रख दिया. अब जितने भी सामाजिक सरोकारों वाले संगठन है ठप जैसे ही है, राजनैतिक मंचों का सञ्चालन उनके सहयोग से हो रहा है जिनके चलते पूरी सामजिक प्रक्रिया तहस नहस हो चुकी है, यह बिडम्बना ही है की सामजिक आंदोलनों की विरासत उन हाथों में है जिनमे इतना अहंकार है की अपने से अलग दूसरे को कुछ समझते ही नहीं है, हड़पने और हथियाने की साजिश उनका धर्म और इमान हो गया है, जब की उन्ही के समाज के वे लोग जिन्होंने सामाजिक मूवमेंट चलाकर विषमता को दूर करने का प्रयास किया तो इन्होने उनको नहीं बख्शा वह चाहे महात्मा बुद्ध हो स्वामी दयानंद या वी.पी.सिंह रहे हो, पर आज हमारे नेता इतना भी नहीं समझते है इनकी भगवान भरोसे ही नैया है ! यही हाल बिहार मध्य प्रदेश यहाँ तक की तमाम हिंदी भाषी प्रदेशों का है, दक्षिण भी इससे अलग नहीं है वहां भी येसे ही संकट है पर फरक ये है की सामाजिक आंदोलनों की पृष्ठभूमि वही तैयार हुयी थी इससे आरक्षण का लाभ उनको जरुर मिला पर जकड तो वहाँ भी इसी तरह की है .
अंत में यह कहना की जिस देश का ५० प्रतिशत नवजवान अशिक्षित हो यानि यदि सरकारी आकड़ों को भी मे तो ६६%का आंकड़ा जो खीचकर बढ़ा दिया गया होगा, अक्षर ज्ञान वाले आंकड़े है ७५%गाँव की आबादी के लोग आज की भूमंडलीकरण की व्यवस्था से कितना सरोकार रखते है, राष्ट्रीय नीति में गाँव लगभग गायब है गाँव में जो कुछ हो रहा वह राजनितिक विस्तार को बलि चढ़ रहा है सदियों की सड़ाध से जूझे सामजिक संघर्षों के सरोकारों को इतनी आसानी से द्विज राजनीति निगल लेगी यह सवाल कितने लोंगों को समझ में आ रहा है , नए-नए हथकंडे गढ़ने में माहिर समग्र द्विजों ने सारे सामाजिक संघर्षो को समेट कर रख दिया आखिर कैसे और क्यों ?
कब समझेंगे पिछड़ों और दलितों के नेतृत्व ?
कई एसे बिंदु है जिनसे पूरी सामाजिक सरोकारों से जुडी राजनीति प्रभावित हो रही है. जिसका असर ये हुआ है की काफी जद्दो जेहद के बाद एक दौर आया था जब सामाजिक सन्दर्भों से जुड़े मुद्दों को लेकर राजनितिक बहस शुरू हुयी थी पर- मंडल कमीशन के बाद कमंडल का हमला और ग्लोबलाईजेशन की प्रक्रिया सारे प्रयास को तहस नहस करके रख दिया. अब जितने भी सामाजिक सरोकारों वाले संगठन है ठप जैसे ही है, राजनैतिक मंचों का सञ्चालन उनके सहयोग से हो रहा है जिनके चलते पूरी सामजिक प्रक्रिया तहस नहस हो चुकी है, यह बिडम्बना ही है की सामजिक आंदोलनों की विरासत उन हाथों में है जिनमे इतना अहंकार है की अपने से अलग दूसरे को कुछ समझते ही नहीं है, हड़पने और हथियाने की साजिश उनका धर्म और इमान हो गया है, जब की उन्ही के समाज के वे लोग जिन्होंने सामाजिक मूवमेंट चलाकर विषमता को दूर करने का प्रयास किया तो इन्होने उनको नहीं बख्शा वह चाहे महात्मा बुद्ध हो स्वामी दयानंद या वी.पी.सिंह रहे हो, पर आज हमारे नेता इतना भी नहीं समझते है इनकी भगवान भरोसे ही नैया है ! यही हाल बिहार मध्य प्रदेश यहाँ तक की तमाम हिंदी भाषी प्रदेशों का है, दक्षिण भी इससे अलग नहीं है वहां भी येसे ही संकट है पर फरक ये है की सामाजिक आंदोलनों की पृष्ठभूमि वही तैयार हुयी थी इससे आरक्षण का लाभ उनको जरुर मिला पर जकड तो वहाँ भी इसी तरह की है .
अंत में यह कहना की जिस देश का ५० प्रतिशत नवजवान अशिक्षित हो यानि यदि सरकारी आकड़ों को भी मे तो ६६%का आंकड़ा जो खीचकर बढ़ा दिया गया होगा, अक्षर ज्ञान वाले आंकड़े है ७५%गाँव की आबादी के लोग आज की भूमंडलीकरण की व्यवस्था से कितना सरोकार रखते है, राष्ट्रीय नीति में गाँव लगभग गायब है गाँव में जो कुछ हो रहा वह राजनितिक विस्तार को बलि चढ़ रहा है सदियों की सड़ाध से जूझे सामजिक संघर्षों के सरोकारों को इतनी आसानी से द्विज राजनीति निगल लेगी यह सवाल कितने लोंगों को समझ में आ रहा है , नए-नए हथकंडे गढ़ने में माहिर समग्र द्विजों ने सारे सामाजिक संघर्षो को समेट कर रख दिया आखिर कैसे और क्यों ?
कब समझेंगे पिछड़ों और दलितों के नेतृत्व ?
डॉ.लाल रत्नाकर
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