16 मार्च 2010

"महारैली"
डॉ.लाल रत्नाकर 
मान्यवर कांशी राम के जन्म दिन पर लखनऊ में आयोजित महारैली में परस्पर विरोधी बातें या बयान आ रहे है जिनसे महारैली की भीड़ को संदिग्ध करार दिया गया है , यदि इस बात को बहुत तरजीह न दी जाय तो भी जो भीड़ इस रैली में उमड़ कर आयी वह इस महगाई के दौर में बहुत है, 
इस पूरे प्रकरण पर जो चिल्ल पो हो रही है वह निरर्थक है क्योंकि इससे पहले भी यही तमासे होते रहे है, आज की परेशानी यह है की यह सब एक दलित महिला के अहंकार का प्रदर्शन दिखाई दे रहा है जब की समस्या कहीं और है, सदियों के इस देश के इतिहास में यह सब पहली बार हो रहा है जबकि तमाम 'ब्रह्मिन' भी यह सब पसंद ही नहीं बढ़ चढ़कर इसमे हिस्सा ले रहे है मेरी व्यक्तिगत राय तो यह भी है की 'माया' के इस आन्दोलन से बचा तो नहीं है कोई, जो हिस्सा ले रहे है वह समय की नब्ज को पहचानते है, जिस देश और प्रदेश को लूट कर सैकड़ों साल के गरीबों की मेहनत का मजाक उड़ाया जा रहा था यदि आज उसी वर्ग की एक महिला ने यह हिम्मत दिखाई और उस तपके को सम्मान देने के लिए "महारैली" का आयोजन किया तो इसमे सबको धन का अपब्यय नज़र आने लगा.
काश आज इसी मंच पर लालू प्रसाद, मुलायम, शरद, नितीश कुमार, राम बिलास भी होते तो लगता की दलित और पिछड़ों की महिलाओं की लडाई लड़ने वाले एक मजबूत दलित महिला को 'देश की शकल बदलने के लिए हिम्मत और हौशला दे रहे है,' जिस सोनिया गाँधी की ओर मुह फैला कर यह निहार रहे है वह जिस देश से आयी है वहां मूर्तियाँ और चित्रों की ही कदर होती है, पर यह बात अब तक क्यों नहीं समझ आ रही की यह अलग होने का अहंकार उस पूरे समाज को बाट कर रखा है, जिसके कल्याण की ये बात करते है पूरा समाज इनके अकुशल सोच और बौद्धिक दिवालिये पन का शिकार है, 
जबकि सारी देशद्रोही ताकते इनके करीब आकर वह दुर्गुण सिखा जाती है जिनके ये दीवाने हो जाते है और उस समाज जिसकी समृद्धि और परिवर्तन का नारा लगा लगा कर ये आये होते है उसके विपरीत काम करते है, आज उत्तर प्रदेश में तथाकथित दलित राज्य है जिसकी मुखिया को बार -बार यह बयान देना पड़ रहा है की सतीश मिश्रा की औकात कम नहीं हुयी है,  क्या हो गया है मायावती को जो रामास्वामी पेरियार की मूर्ति/तस्वीर लगाने की हिम्मत ही जुटा नहीं पा रही है ?
 मायावती में क्यों नहीं है बरहमन बाद से लड़ने की ताकत , आज दक्षिण का परिवर्तन का उल्टा उत्तर प्रदेश में करके ये किसका नाश करना चाहती है इन्हें सबक लेना चहिये पेरियार से -  
इरोड वेंकट नायकर रामासामी(17 सितम्बर1879-24 दिसम्बर1973) जिन्हे पेरियार (तमिल में अर्थ -सम्मानित व्यक्ति) नाम से भी जाना जाता था, बीसवीं सदी के तमिलनाडु के एक प्रमुख राजनेता थे । इन्होने जस्टिस पार्टीका गठन किया जिसका सिद्धान्त रुढ़िवादी हिन्दुत्व का विरोध था । हिन्दी के अनिवार्य शिक्षण का भी उन्होने घोर विरोध किया । भारतीय तथा विशेषकर दक्षिण भारतीय समाज के शोषित वर्ग को लोगों की स्थिति सुधारने में इनका नाम शीर्षस्थ है ।

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बचपन

युवावस्था में पेरियार
इनका जन्म 17 सितम्बर, 1879 को पश्चिमी तमिलनाडु के इरोड में एक सम्पन्न, परम्परावादी हिन्दू परिवार में हुआ था । १८८५ में उन्होंने एक स्थानीय प्राथमिक विद्यालय में दाखिला लिया । पर कोई पाँच साल से कम की औपचारिक शिक्षा मिलने के बाद ही उन्हें अपने पिता के व्यवसाय से जुड़ना पड़ा । उनके घर पर भजन तथा उपदेशों का सिलसिला चलता ही रहता था । बचपन से ही वे इन उपदशों में कही बातों की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते रहते थे । हिन्दू महाकाव्यों तथा पुराणों में कही बातों की परस्पर विरोधी तथा बेतुकी बातों का माखौल भी वे उड़ाते रहते थे । बाल विवाह, देवदासी प्रथा, विधवा पुनर्विवाह के विरूद्ध अवधारणा, स्त्रियों तथा दलितों के शोषण के पूर्ण विरोधी थे । उन्होने हिन्दू वर्ण व्यवस्था का भी बहिष्कार किया । १९ वर्ष की उम्र में उनकी शादी नगम्मल नाम की १३ वर्षीया स्त्री से हुई । उन्होने अपना पत्नी को भी अपने विचारों से ओत प्रोत किया ।

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काशी यात्रा और परिणाम

१९०४ में पेरियार ने एक ब्राह्मण, जिसका कि उनके पिता बहुत आदर करते थे, के भाई को गिरफ़्तार किया जा सके न्यायालय के अधिकारियों की मदद की । इसके लिए उनके पिता ने उन्हें लोगों के सामने पीटा । इसके कारण कुछ दिनों के लिए पेरियार को घर छोड़ना पड़ा । पेरियार काशी चले गए । वहां निःशुल्क भोज में जाने की इच्छा होने के बाद उन्हें पता चला कि यह सिर्फ ब्राह्मणों के लिए था । ब्राह्मण नहीं होने के कारण उन्हे इसस बात का बहुत दुःख हुआ और उन्होने हिन्दुत्व के विरोध की ठान ली। इसके लिए उन्होने किसी और धर्म को नहीं स्वीकारा और वे हमेशा नास्तिक रहे । इसके बाद उन्होने एक मन्दिर के न्यासी का पदभार संभाला तथा जल्द ही वे एपने शहर के नगरपालिका के प्रमुख बन गए । चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के अनुरोध पर १९१९ में उन्होने कांग्रेस की सदस्यता ली । इसके कुछ दिनों के भीतर ही वे तमिलनाडु इकाई के प्रमुख भी बन गए । केरल के कांग्रेस नेताओं के निवेदन पर उन्होने वाईकॉम आन्दोलन का नेतृत्व भी स्वीकार किया जो मन्दिरों को जाने वाली सड़कों पर दलितों के चलने की मनाही को हटाने के लिए संघर्षरत था । उनकी पत्नी तथा दोस्तों ने भी इस आंदोलन में उनका साथ दिया ।

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कांग्रेस का परित्याग

युवाओं के लिए कांग्रेस द्वारा संचालित प्रशिक्षण शिविर में एक ब्राह्मण प्रशिक्षक द्वारा गैर-ब्राह्मण छात्रों के प्रति भेदभाव बरतते देख उनके मन में कांग्रेस के प्रति विरक्ति आ गई । उन्होने कांग्रेस के नेताओं के समक्ष दलितों तथा पीड़ितों के लिए आरक्षण का प्रस्ताव भा रखा जिसे मंजूरी नहीं मिल सकी । अंततः उन्होने कांग्रेस छोड़ दिया । दलितों के समर्थन में १९२५ में उन्होने एक आंदोलन भी चलाया । सोवियत रूस के दौरे पर जाने पर उन्हें साम्यवाद की सफलता ने बहुत प्रभावित किया । वापस आकर उन्होने आर्थिक नीति को साम्यवादी बनाने की घोषणा की । पर बाद में अपना विचार बदल लिया ।
फिर इन्होने जस्टिस पार्टी, जिसकी स्थापना कुछ गैर ब्राह्मणों ने की थी, का नेतृत्व संभाला । १९४४ में जस्टिस पार्टी का नाम बदलकर द्रविदर कड़गम कर दिया गया । स्वतंत्रता के बाद उन्होने अपने से कोई २० साल छोटी स्त्री से शादी की जिससे उनके समर्थकों में दरार आ गई और इसके फलस्वरूप डी एम के (द्रविड़ मुनेत्र कळगम) पार्टी का उदय हुआ । १९३७ में राजाजी द्वारा तमिलनाडु में आरोपित हिन्दी के अनिवार्य शिक्षण का उन्होने घोर विरोध किया और बहुत लोकप्रिय हुए । उन्होने अपने को सत्ता की राजनीति से अलग रखा तथा आजीवन दलितों तथा स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए प्रयास किया ।

इनका प्रमाणिक आकलन बी.बी.सी.ने अपने साईट पर दिया है जहाँ से नीचे की खबरे साभार ली गयी है -

लोकसभा पहुँचा मायावती का मुद्दा

मायावती
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की बहुचर्चित रैली और बरेली में सांप्रदायिक हिंसा को लेकर लोकसभा में ख़ूब शोर-शराबा हुआ.
शोर-शराबा इतना बढ़ा कि सदन की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी. इस मामले में समाजवादी पार्टी के साथ-साथ कांग्रेसी सांसदों ने भी हंगामा किया.
समाजवादी पार्टी के सांसदों ने सोमवार को भी लोकसभा में यह मुद्दा उठाया था.
मंगलवार को भी उन्होंने इस मुद्दे पर केंद्र सरकार के दखल की मांग की. मायावती की बहुचर्चित रैली में नोटों का कथित हार भी विवाद का विषय बना हुआ है.

मांग

समाजवादी पार्टी ने इसकी जाँच कराने की मांग की है. पार्टी ने यह भी आरोप लगाया है कि रैली के चक्कर में मुख्यमंत्री मायावती को बरेली की स्थिति की फ़िक्र नहीं है.
पिछले दिनों बरेली में होलिका दहन के मौक़े पर दो गुटों के बीच हिंसा भड़क उठी थी. वहाँ कर्फ़्यू लगाया गया है.
सोमवार को सदन में समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह ने कहा था कि केंद्र सरकार को इस मामले में तुरंत हस्तक्षेप करना चाहिए.
कांग्रेस भी मायावती की रैली को सरकारी धन और मशीनरी का दुरुपयोग बता चुकी है. भारतीय जनता पार्टी ने भी इसकी आलोचना की है.

सब माया है!

सलमा ज़ैदी सलमा ज़ैदी | मंगलवार, 16 मार्च 2010, 11:31 IST
माया की माया वहीं जानें...
वैसे कांशीराम भी मायावती का सही आकलन कर पाए थे तभी तो अपनी वसीयत में, बक़ौल बहन जी, यह कह गए कि गली, नुक्कड़, चौबारों पर मायावती की प्रतिमाएँ लगें.
मायावती कहती हैं कि कौन सा क़ानून जीवित लोगों की मूर्तियाँ लगाने की मनाही करता है.
सच तो है....और कौन सा क़ानून इस बात की मनाही करता है कि अपना (या अपने मार्गदर्शक का) जन्मदिन धूमधाम से न मनाया जाए.
आम करदाता को तो ख़ुश होना चाहिए कि कम से कम नज़र तो आ रहा है कि उसकी मेहनत की कमाई कहाँ जा रही है.
अन्य नेता तो इस पैसे को हज़म कर जाते हैं और डकार भी नहीं लेते.
मायवती की बुराइयाँ ढूँढने वाले ज़रा उनकी अच्छाइयों पर तो नज़र डालें.
हज़ार रुपये के नोटों की माला पहन कर उन्होंने संदेश दिया है कि बाग़ से फूलों को मत नोंचों.
उन्हें खिला रहने दो माला में मत पिरोओ. नोटों से काम चलाओ.
पर्यावरण की इतनी चिंता है और किसी को.
कॉंग्रेस ने महारैली को सर्कस कहा.
बताइए ऐसा कोई सर्कस देखा है जहाँ टिकट न लेना पड़े.
तो जनता अगर बिना पैसा ख़र्च किए यह सर्कस देख कर अपन मनोरंजन कर रही है तो विपक्ष के पेट में क्यों दर्द हो रहा है.
मायावती जी, बहन जी, आप यूँही फूलें फलें....नहीं शायद मुहावरा बदलना पड़ेगा....आप यूँही नोटों के हार पहनती रहें...
हम क्यों दुखी हैं...यह एक हज़ार रुपये हमारी जेब में थोड़े ही आने वाले थे...हमने तो एक हज़ार का नोट छू कर भी नहीं देखा है.
भैया, अपने सौ-सौ के नोटों को संभालो और ख़ुश रहो.

करोड़ों की माया

उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ने लखनऊ में महारैली का आयोजन किया. (तस्वीरें-किशन सेठ)

    महारैली में माया का शक्ति प्रदर्शन

    बसपा रैली
    उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ दल बहुजन समाज पार्टी ने आज राजधानी लखनऊ में एक बड़ी रैली की और इसको नाम दिया गया महारैली.
    वैसे तो ये रैली पार्टी की स्थापना के 25 साल पूरे होने और बसपा के संस्थापक कांशीराम के जन्मदिन के मौक़े पर आयोजित की गई.
    लेकिन रैली की चर्चा की वजह इस पर होने वाला भारी भरकम ख़र्च और कई दिनों से की जा रही तैयारियाँ हैं.
    विरोधी दलों का आरोप है कि रैली की तैयारियों में न सिर्फ़ पूरा सरकारी महकमा जी- जान से लगा रहा बल्कि सरकारी ख़जाने का करोड़ों रुपया इसमें पानी की तरह बहाया गया.
    वैसे अभी हफ़्ते भर पहले ही प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने कुंडा में एक आश्रम में मची भगदड़ में मरने वालों को कोई भी मुआवज़ा न देने की अपनी मजबूरी ये कहते हुए बयान की थी कि राज्य सरकार आर्थिक तंगी से गुज़र रही है.
    बहरहाल रैली की सफलता के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी गई. इसमें कोई भी बाधा आड़े नहीं आई, चाहे वो आर्थिक तंगी हो, विपक्षी दलों की बयानबाज़ी हो या फिर उच्च न्यायालय में दाखिल की गई जनहित याचिका.

    आरोप-प्रत्यारोप

    इस बारे में कोई आधिकारिक आँकड़ा तो नहीं है, लेकिन अनुमान लगाया जा रहा है कि इसमें क़रीब 200 करोड़ रुपए ख़र्च हुए हैं.
    इस रैली का मक़सद दलितों, ग़रीबों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का कल्याण नहीं है. ये तो प्रदेश के मतदाताओं को ये संदेश देने की कोशिश है कि स्थिति नियंत्रण में है, हालाँकि बसपा का आधार खिसक रहा है
    रीता बहुगुणा जोशी
    बहुजन समाज पार्टी की ओर से महामंत्री बाबू सिंह कुशवाहा ने तमाम आरोपों का खंडन किया है और उन्होंने कहा है कि रैली में आने वाले लोगों की सुविधाओं का ख़र्च पार्टी ने उठाया है.
    लेकिन कांग्रेस ने कहा है कि ये रैली सर्कस है और मुख्यमंत्री मायावती इसकी रिंग मास्टर हैं.
    प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने लखनऊ में पत्रकारों से बातचीत में कहा, "इस रैली का मक़सद दलितों, ग़रीबों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का कल्याण नहीं है. ये तो प्रदेश के मतदाताओं को ये संदेश देने की कोशिश है कि स्थिति नियंत्रण में है, हालाँकि बसपा का आधार खिसक रहा है."
    उन्होंने आरोप लगाया कि महारैली को लेकर सरकारी कोष का दुरुपयोग हो रहा है और सरकारी तंत्र का इस्तेमाल किया जा रहा है.

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