डॉ.लाल रत्नाकर
डॉ.भरत झुनझुनवाला के विचार से जो दृष्टि उभरती है उसके विश्लेषण के पचड़े में मै नहीं पड़ता पर एक दूसरा आलेख जिसे
१.सवर्ण जातियां - कैसे वर्ण के आधार पर "मनुस्मृति" के आधार पर या किसी और आधार पर पर जैसे ही "सवर्ण" का ध्यान आता है ये आदमी नहीं रहते कुछ और ही हो जाते है निरंकुश हिंसक दुराचारी भ्रष्ट आततायी आदि आदि - क्या आपको लगता है 'इस आचरण का आदमी कैसा होगा' नहीं लगता, न कभी आदमी बनकर सोचिये 'सवर्ण' बनकर नहीं, विलाशिता भ्रष्टाचार आदि के लिए आपको जाति नज़र नहीं आती सत्ता और सुबिधा के लिए जाति ?
जिस देश कि आवादी अनियंत्रित तरीके से बढ़ रही हो उनके लिए आहार विहार और शिक्षा का समुचित इंतजाम न हो, कई स्थितियों में जानवरों से बदतर जिंदगी जीने को वे बाध्य हो और उन्हें देश कि सारी उन्नत मान्यताओं के तहत नियंत्रित कराने कि वर्जना हो या यूँ कहे जनगरना जैसी जटिल नियमन के तहत उनकी गरना उपस्थिति और उनका औचित्य. आवास संसाधन और अनेक अनन्य श्रोत . सहज है इस प्रकार के नियमन उनको किनारे खड़ा करेंगे जो है तो पर उनकी उपस्थिती नगण्य होगी. कौन विकसित है कौन अविकसित उसकी पहचान का आधार तय कराने के नए मानदंड बनाये जायेंगे वह कितने वैज्ञानिक होंगे या अवैज्ञानिक उसकी पहचान का आधार कितना राजनितिक अराजनीतिक होगा उसे वक्त कि कसौटी पर ही तय हो पाना है . जिस राजनैतिक परिपक्वता का एहसास कराया जाना था वह आज तक इस देश में नहीं पाया क्योंकि शासक दल कि सोच ही देश कि सोच और नियति बना दिया जाता रहा है . यदि यह कहा जाय कि एक तरह का युद्ध पांच वर्षों तक चलता रहता है सत्ता में बैठे लोग अपने लोगों कि एक मज़बूत जमात बनाने के लिए पूरे अवाम को दर किनार करके रख देते है . यहं तक कि देश उनके लिए लूट का सामान मात्र रह जाता है, यही कारण बन जाता है पूरे देश को लुटाने और लूटने का यह सच जानते हुए भी सब लूट के हिस्से ही नहीं अधिकार संपन्न हो जाते है, यही शासक तपके कि नीति लूट कि छूट देती है जिससे पैदा होती है चमचों कि फौज और लपक लेते है चमचे योग्य होने के तमाम तमगे और उनकी योग्यताएं बन जाती है देश कि अयोग्यता और तमगे बन जाते है शूल . सारी तैयारियों के बीच यह पराजय के प्रतीक दिखने लगते है अवाम को अवाम इन पर थूकती है ये नेताओं के गले के हार बन जाते है .
और तो और विरोधियों कि भी कमोवेश यही राजनीतक दशा और दिशा होती है जिसके कारण वे कभी भी देश कि सही सूरत का नक्शा नहीं बना पाते है उनकी प्रतिबद्धताए धर्म के अपनों जाती के अपनों परायों के बीच कि दिवार तोड़ने का नाटक मात्र करते है, किसी भी राजनितिक दल के आका को लीजिये उनका गिरोह होता है गिरोह का गिरोह होता है. कब उबरेंगे हम सब इन नेताओं से जिस देश के मुसलमान को आज तक दुश्मन कि नज़र से देखा जा रहा हो उस देश कि सबसे शक्तिवान राजनेता का देश विदेश हो और उस पर विदेशी होने कि आरोप भी लगता हो पर अवाम इन सबसे बे-खबर उसे ही अपना नेता बनाती हो यह कितने तरह से शर्मशार करता है मुल्क को किसको अंदाज़ा है इस बात का लेकिन नहीं वे भी जो उक्त को लेकर कभी तूफान खड़ा कर रहे थे वह भी आज भिखारिओं कि तरह राज पाट कि आस लगाये वहीं खड़े है.
यहीं हाल हर राजनेता का है और वह इसी इंतजार में है कि किस तरह वह देश को बड़ा कराने के वजाय खुद को बड़ा कर ले. "प्रोफ.ईश्वरी प्रसाद जी का मानना है कि इतिहास के पन्नो के तमाम सह्न्शाहो कि तर्ज़ पर देश के नेता सूरा सुंदरी से लैस देश चलाने से सुदूर देश चलाने कि कवायद में मशगूल है" देश कि सारी सम्पदा के साथ खेल कर रहे है, इनके उद्येश्य देश के लिए कितने उपयोगी है इसकी कहानी एक दूसरे के प्रतिद्वंदी बयान करते थकते नहीं है. दलितों को और अल्पसंख्यकों कि राजनितिक सम्पदा कि धनि एक पार्टी ने देश के आज़ादी के शुरूआती दिनों कि सारी मलाई अपनों को बाँट दी थी यह कहकर कि सारी काबिलियत यहीं है पर उन्होंने जिनको छोड़ दिया गया था उनके भाग्य पर ओ कई बार लड़खड़ाते हुए खड़े हुए पर उन्ही लोगों कि वजह से फिर जमीं जर्द हो गए जिन्होंने उन्हें वहाँ तक कभी नहीं आने दिया था पर कितना दुखद था कि वही इनके करीबी हो गए थे और ओ "खड़े खड़े गुबार ............देखते रहे" और ये उतर गए .
कई नीतियाँ जिन्हें देश कि अलग अलग वह संस्थाए लागू नहीं होने देती जिसके लिए उनसे अपेक्षा कि गयी थी कि उन्हें लागू होने में वह सुरक्षा देंगी - जिसका सबसे बड़ा काम गैर बराबरी को ख़त्म करना था लेकिन उसे बनाये रखने में उनका बड़ा योगदान दिखाई दे रहा है अनैतिकता हमेशा अनैतिकता ही होती है उसे किसी भी तरीके से लाया गया हो .
दैनिक जागरण में प्रकाशित आलेख में डा. भरत झुनझुनवाला: लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं के विचार देखें -
वैश्विक सलाहकार कंपनी प्राइस वाटरहाउस कूपर्स ने अनुमान लगाया है कि अगले 15 वषरें में 2200 भारतीय कंपनियां बहुराष्ट्रीय हो जाएंगी और इनकी संख्या चीन की कंपनियों से अधिक हो जाएगी। खबर है कि वर्ष 2007-08 में भारतीय कंपनियों ने 1137 करोड़ डालर की रकम की विदेशी कंपनियों का अधिग्रहण किया, जबकि विदेशी कंपनियों ने केवल 206 करोड़ डालर की भारतीय कंपनियों का ही अधिग्रहण किया। यानी विदेशी कंपनिया हमारे देश में प्रवेश कम कर रही हैं, जबकि हमारी कंपनिया विदेशों में तेजी से प्रवेश कर रही हैं। यूनिवर्सिटी आफ पेन्सलवेनिया द्वारा किए गए एक अध्ययन में भारतीय कंपनियों की इस सफलता के पाच कारण बताए गए हैं। पहला, इंटरनेट क्रांति से दूसरे देशों की सूचना आसानी से उपलब्ध हो गई है। दूसरे, सेवाओं के वैश्वीकरण से भारत के लिए तमाम अवसर खुल गए हैं। इसके अलावा बाजार में सस्ती पूंजी के उपलब्ध होने से छोटी भारतीय कंपनियों के लिए ऋण लेकर बड़ी कंपनियों का अधिग्रहण करना संभव हो गया है। वैश्विकरण के कारण कंपनियों के लिए कच्चे माल से तैयार माल बनाने के सभी कार्य स्वयं करना जरूरी नहीं रह गया है। पिछले दो-तीन वषरें में कच्चे माल के दाम में वृद्धि से भारत जैसे निर्यातक देशों को भारी आय हुई है, जिससे उनके पास विदेशी निवेश को पर्याप्त पूंजी उपलब्ध है। भारतीय कंपनियों की यह वैश्विक विजय प्रसन्नता का विषय है। परंतु मुझे विजय के ये मूल कारण नहीं दिखते हैं चूंकि दूसरे देशों की कंपनियों को भी ये सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं। उन्हें भी इंटरनेट क्रांति, सस्ती पूंजी एवं कच्चे माल की मूल्यवृद्धि का लाभ मिल रहा है। मसलन आस्ट्रेलिया द्वारा कच्चे माल का भारी निर्यात किया जाता है, परंतु वह देश बहुराष्ट्रीय कंपनिया नहीं पैदा कर पा रहा है।
वैश्विक सलाहकार कंपनी प्राइस वाटरहाउस कूपर्स ने अनुमान लगाया है कि अगले 15 वषरें में 2200 भारतीय कंपनियां बहुराष्ट्रीय हो जाएंगी और इनकी संख्या चीन की कंपनियों से अधिक हो जाएगी। खबर है कि वर्ष 2007-08 में भारतीय कंपनियों ने 1137 करोड़ डालर की रकम की विदेशी कंपनियों का अधिग्रहण किया, जबकि विदेशी कंपनियों ने केवल 206 करोड़ डालर की भारतीय कंपनियों का ही अधिग्रहण किया। यानी विदेशी कंपनिया हमारे देश में प्रवेश कम कर रही हैं, जबकि हमारी कंपनिया विदेशों में तेजी से प्रवेश कर रही हैं। यूनिवर्सिटी आफ पेन्सलवेनिया द्वारा किए गए एक अध्ययन में भारतीय कंपनियों की इस सफलता के पाच कारण बताए गए हैं। पहला, इंटरनेट क्रांति से दूसरे देशों की सूचना आसानी से उपलब्ध हो गई है। दूसरे, सेवाओं के वैश्वीकरण से भारत के लिए तमाम अवसर खुल गए हैं। इसके अलावा बाजार में सस्ती पूंजी के उपलब्ध होने से छोटी भारतीय कंपनियों के लिए ऋण लेकर बड़ी कंपनियों का अधिग्रहण करना संभव हो गया है। वैश्विकरण के कारण कंपनियों के लिए कच्चे माल से तैयार माल बनाने के सभी कार्य स्वयं करना जरूरी नहीं रह गया है। पिछले दो-तीन वषरें में कच्चे माल के दाम में वृद्धि से भारत जैसे निर्यातक देशों को भारी आय हुई है, जिससे उनके पास विदेशी निवेश को पर्याप्त पूंजी उपलब्ध है। भारतीय कंपनियों की यह वैश्विक विजय प्रसन्नता का विषय है। परंतु मुझे विजय के ये मूल कारण नहीं दिखते हैं चूंकि दूसरे देशों की कंपनियों को भी ये सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं। उन्हें भी इंटरनेट क्रांति, सस्ती पूंजी एवं कच्चे माल की मूल्यवृद्धि का लाभ मिल रहा है। मसलन आस्ट्रेलिया द्वारा कच्चे माल का भारी निर्यात किया जाता है, परंतु वह देश बहुराष्ट्रीय कंपनिया नहीं पैदा कर पा रहा है।
मेरे आकलन में भारत की सफलता का मूल कारण सामाजिक एवं सास्कृतिक है। पश्चिमी देशों ने अधिक ध्यान भौतिक तकनीकों के विकास पर दिया है जैसे इंटरनेट, सुपर कंप्यूटर, पैट्रियट मिसाइल इत्यादि के आविष्कार पश्चिमी देशों में हुए हैं। परंतु भौतिक तकनीकों का चरित्र फैलाव का होता है। जिस प्रकार समुद्र में डाला गया पानी पूरे विश्व पूरे समुद्र में फैल जाता है, उसी प्रकार नई तकनीकें सर्वत्र शीघ्र ही फैल जाती हैं। कार का आविष्कार लगभग 80 वर्ष पहले अमेरिका में हुआ था। आज यह तकनीक सर्वत्र फैल गई है। तकनीक के फैलाव से अगुआ देश की विशेषता नहीं रह जाती है। दूसरे देशों की कंपनिया नई तकनीक को अपना लेती हैं और शीघ्र ही अगुआ देश से प्रतिस्पर्धा को मैदान में उतर जाती हैं, जैसे टाटा द्वारा सस्ती कार का उत्पादन करके फोर्ड और जनरल मोटर को मात दी जा रही है। तुलना में भारत की विषेशता सामाजिक इंजीनियरिंग की है। कठिन परिस्थिति में मनोबल कैसे बनाए रखा जाए, मेजबान देश से सद्व्यवहार कैसे किया जाए, अपने कर्मचारियों को संतुष्ट कैसे रखा जाए जैसे विषयों पर भारत आगे है। इस इंजीनियरिंग का फैलाव जल्दी नहीं होता है चूंकि यह अनुभव से जुड़ा मामला है। डिजाइन पढ़कर हवाई जहाज बनाया जा सकता है, परंतु कर्मचारी को संतुष्ट रखने के लिए व्यवहार कुशलता, मृदु वाणी आदि की जरूरत होती है जो अनुभव से ही आते हैं।
भारत की इस विशेषता की झलक हमारे इतिहास से मिलती है। पांच हजार वर्षो का इतिहास देखने से पता चलता है कि भौतिक तकनीकों के अविष्कार में भारत की भूमिका नगण्य रही है। बावजूद इसके भारत ने सर्वश्रेष्ठ सभ्यताओं का निर्माण किया है। कासे का अविष्कार पश्चिम एशिया में 3000 ईसा पूर्व में हुआ था। इस अविष्कार से खेती करना, पेड़ काटना इत्यादि आसान हो गया। पहिये की खोज इराक में हुई, कागज की चीन में और काच की मिस्त्र में। इन खोजों में भारत की नगण्य भूमिका रहने के बावजूद हमने सिंधु घाटी की महान सभ्यता कायम करने में सफलता हासिल की। जिस समय मिस्त्र एवं इराक में केवल राजा के महल पत्थर के बनाए जाते थे उस समय मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा में पूरे शहर पक्की ईंटों के बनाए गए। लगभग 2000 ईसा पूर्व कास्य युग की इन तीनों सभ्यताओं का पतन हो गया। अंतर यह रहा कि मिस्त्र एवं इराक की सभ्यता सदा के लिए लुप्त हो गई जबकि सिंधु घाटी की सभ्यता गंगा घाटी में फलने-फूलने लगी। लगभग ऐसी ही कहानी लौह युग की है। लोहे का अविष्कार मध्य एशिया में लगभग 1500 ईसा पूर्व में हुआ था। लोहे का विस्तृत उपयोग सर्वप्रथम यूनान में हुआ और उसके बाद रोम में। शीघ्र ही हमने इस लौह तकनीक को सीख लिया और अशोक कालीन मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। स्वयं तकनीकों के आविष्कार में योगदान न देने के बावजूद हमने बार-बार विशाल सभ्यताएं स्थापित कीं और उन्हें लंबे समय तक जीवित रखा।
भारत की इस विशेषता की झलक हमारे इतिहास से मिलती है। पांच हजार वर्षो का इतिहास देखने से पता चलता है कि भौतिक तकनीकों के अविष्कार में भारत की भूमिका नगण्य रही है। बावजूद इसके भारत ने सर्वश्रेष्ठ सभ्यताओं का निर्माण किया है। कासे का अविष्कार पश्चिम एशिया में 3000 ईसा पूर्व में हुआ था। इस अविष्कार से खेती करना, पेड़ काटना इत्यादि आसान हो गया। पहिये की खोज इराक में हुई, कागज की चीन में और काच की मिस्त्र में। इन खोजों में भारत की नगण्य भूमिका रहने के बावजूद हमने सिंधु घाटी की महान सभ्यता कायम करने में सफलता हासिल की। जिस समय मिस्त्र एवं इराक में केवल राजा के महल पत्थर के बनाए जाते थे उस समय मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा में पूरे शहर पक्की ईंटों के बनाए गए। लगभग 2000 ईसा पूर्व कास्य युग की इन तीनों सभ्यताओं का पतन हो गया। अंतर यह रहा कि मिस्त्र एवं इराक की सभ्यता सदा के लिए लुप्त हो गई जबकि सिंधु घाटी की सभ्यता गंगा घाटी में फलने-फूलने लगी। लगभग ऐसी ही कहानी लौह युग की है। लोहे का अविष्कार मध्य एशिया में लगभग 1500 ईसा पूर्व में हुआ था। लोहे का विस्तृत उपयोग सर्वप्रथम यूनान में हुआ और उसके बाद रोम में। शीघ्र ही हमने इस लौह तकनीक को सीख लिया और अशोक कालीन मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। स्वयं तकनीकों के आविष्कार में योगदान न देने के बावजूद हमने बार-बार विशाल सभ्यताएं स्थापित कीं और उन्हें लंबे समय तक जीवित रखा।
वर्तमान समय भारत की इसी सामाजिक इंजीनियरिंग को हम क्रियान्वित होते देख सकते हैं। यूनिवर्सिटी आफ पेन्सलवेनिया के अध्ययन में बताया गया है कि भारत और दूसरे विकासशील देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों में मौलिक अंतर है। भारतीय कंपनिया उद्देश्य दूसरे देशों के बाजार में प्रवेश करना है। जैसे भारतीय कंपनिया इंडोनेशिया में स्टील बनाकर इंडोनेशिया में ही बेच रही हैं। उनका उद्देश्य इंडोनेशिया के लौह खनिज को निकालकर यहा लाना नहीं है, बल्कि इंडोनेशिया के खनिज का उपयोग इंडोनेशिया के विकास के लिए ही करना है। इस अच्छे कार्य में वे लाभ कमाना चाहती हैं। इस तरह इंडोनेशिया भी बढ़ता है और भारतीय कंपनी भी। ब्राजील एवं रूस की बहुराष्ट्रीय कंपनिया अपने देश के प्राकृतिक संसाधनों के निर्यात में संलग्न हैं, जैसे रूस की कंपनी ने रूसी तेल को यूरोप में वितरित करने के लिए यूरोप में अपना तंत्र फैलाया। चीन की अधिकतर बहुराष्ट्रीय कंपनिया दूसरे देशों से प्राकृतिक संसाधनों का आयात कर रही हैं। आस्ट्रेलिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में इन कंपनियों ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को प्रवेश किया है। इन कंपनियों का स्थानीय कंपनियों द्वारा विरोध किया जा रहा है। तुलना में भारत की कंपनियों की भूमिका नरम है।
हमारी कंपनिया मेजबान देश में, मेजबान देश के संसाधनों द्वारा, मेजबान देश के लिए माल बनाते हुए स्वयं भी लाभ कमा रही हैं। इससे मेजबान देश के आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलता है। इस नीति के पीछे हमारी सामाजिक इंजीनियरिंग काम कर रही है। हम दूसरे देश के नागरिकों को अपने देश से अलग नहीं देखते। पश्चिमी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का उद्देश्य मेजबान देश में लाभ कमाकर अपने मुख्यालय को भेजना है, जैसाकि ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा किया गया था। रूस, ब्राजील एवं चीन की कंपनियों का उद्देश्य प्राकृतिक संसाधन तक सीमित है। इन्हें मेजबान देश से सरोकार नहीं है। हमें चाहिए कि हम अपनी कंपनियों के लिए मार्गदर्शिका बनाएं। इसके दो प्रमुख बिंदु होने चाहिए। एक यह कि अर्जित लाभ का कम से कम 75 प्रतिशत मेजबान देश में ही पुनर्निवेश किया जाए। दूसरा यह कि मेजबान देश के लिए हानिकारक पदार्थ जैसे बोतल बंद शीतल पेय, सिगरेट, तंबाकू, शराब आदि के व्यापार पर रोक लगाई जाए। ऐसा करने से हमारी कंपनियों की वैश्विक भूमिका वसुधैव कुटुम्बकम् के अनुरूप हो जाएगी और लंबे समय तक टिकेगी।[डा. भरत झुनझुनवाला: लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]
डा. निरंजन कुमार जो दिल्ली युनिवेर्सिटी में प्राध्यापक है ये क्या पढ़ाते है उसका उल्लेख नहीं है ने दैनिक जागरण में लिखा है उसे यहाँ संलग्न कर रहा हूँ इनका नजरिया जाति कि राजनीति को लेकर है देखें -
सरकार ने विभिन्न राजनीतिक दलों के दबाव में जातीय आधार पर जनगणना को लगभग स्वीकार कर स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक ऐसा अध्याय जोड़ने की तैयारी शुरू कर दी है, जिसका दूरगामी परिणाम देश के लिए घातक हो सकता है। सामाजिक न्याय के तकाजे और पिछड़ी जातियों के लिए कल्याणकारी योजनाओं को बेहतर तरीके से लागू करने का तर्क देते हुए सपा अध्यक्ष मुलायम, राजद अध्यक्ष लालू और जद के शरद यादव ने जातीय जनगणना की जोरदार वकालत की। इनके समर्थन में भाजपा और वामपंथी दलों के उतरने और कांग्रेस के भीतर से भी उठे स्वर के बाद मनमोहन सिंह को कहना पड़ा कि कैबिनेट जल्दी ही इस बारे में फैसला लेगी।
यह सही है कि जाति हमारे समाज की सच्चाई है और देश के विकास में अब तक की सबसे बड़ी बाधा भी। यह भी सच है कि इस व्यवस्था में उच्च सोपान पर बैठी तथाकथित सवर्ण जातियों के हाथ में ही शासन, शिक्षा और समृद्धि केंद्रित रही है, जिन्होंने पिछड़ी और निम्न जातियों के शोषण और दमन में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस बात को डा. अंबेडकर से अधिक बेहतर और कौन जानता था। लेकिन फिर भी अंबेडकर, नेहरू और पटेल आदि नेताओं ने जनगणना में जाति गणना को दूर ही रखा। हमारी स्वाधीनता के उन्नायक इस बात को भली-भाति समझते थे कि देश की एकता और अखंडता को बनाए रखना है तो जाति के जिन्न को बोतल में बंद रखना ही बेहतर होगा, क्योंकि इससे जाति को वैधता मिलेगी, जातिवाद बढ़ेगा, जाति को एक वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा और एक जातिविहीन समाज की परिकल्पना खत्म हो जाएगी। मार्क गैलेंटर जैसे पश्चिमी समाजशास्त्रियों ने कहा है कि जातिगत गणना भारतीय राष्ट्र की अवधारणा और एकता को कमजोर करने की औपनिवेशिक साजिश थी। आजाद भारत में व्यवस्था पर उच्च जातियों के वर्चस्व ने पिछड़ी जातियों के संदेह को मजबूत ही किया कि उनका हक उन्हें नहीं मिल पाया। पिछड़ों का मंडल आंदोलन या दलितों का उभार इसी का परिणाम था। यह अलग बात है कि इन आंदोलनों के बावजूद इन वगरें की अधिकाश जातियों की दशा में कोई खास सुधार नहीं हो पाया है। इसकी वजह थी इन आंदोलनों के नेतृत्व का अवसरवादी और भ्रष्ट होना, जो उच्च जातीय नेतृत्व से भिन्न नहीं है। यह नेतृत्व आगे उनकी दशा में सुधार लाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं।
आज भी जाति आधारित जनगणना का उद्देश्य पिछड़े तबकों का कल्याण नहीं, बल्कि अपने राजनीतिक आधार को पाना है। अभी रोजगार और शिक्षा आदि में इन पिछड़ी जातियों को 27 प्रतिशत आरक्षण हासिल है। इनकी आबादी अधिक होने के आधिकारिक आकडे होने पर ज्यादा आरक्षण की माग कर अपनी राजनीति वे फिर से चमका सकते हैं। यहां पर वे भूल रहे हैं मंडल वाले फैसले में 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत कर दी है। फिर, सिर्फ आरक्षण दिलवा देने से ही लोगों की दशा सुधार जाती तो लालू और मुलायम को कुर्सी नहीं छोड़नी पड़ती। हमारे नेताओं को समझ लेना चाहिए कि जनता अब ज्यादा समझदार हो गई है। उसे विकास चाहिए। यद्यपि जाति की भूलभुलैया में नेतागण जनता को अभी भी भटकाते रहते हैं, लेकिन यह दौर ज्यादा दिन नहीं चलने वाला।
जाति जैसे जटिल, उलझे हुए और संवेदनशील घटक को जनगणना में शामिल कराने का दबाव स्पष्ट रूप से दिखाता है कि अपने तात्कालिक लाभ के लिए हमारे नेता देश के दूरगामी हितों को ताक पर रख सकते हैं। जातीय जनगणना की पहली व्यवहारिक कठिनाई यही है कि जाति इतनी जटिल अवधारणा है जो उम्र, लिंग, पेशा और यहां तक कि मजहब से भी अधिक व्यक्तिनिष्ठ है। अर्थात एक ही व्यक्ति की कई जातीय पहचान हो सकती हैं। उदाहरण के लिए दक्षिण गुजरात में एक जाति है मतिय। इस जाति के लोग गाव के भीतर खुद को मतिय कहते हैं, तहसील स्तर पर कोली और राज्य स्तर पर क्षत्रिय। फिर, अलग-अलग राज्यों में पिछड़े होने के अलग मानदंड हैं। ओबीसी की अवधारणा भी स्पष्ट नहीं है। यह अन्य पिछड़ा वर्ग है न कि पिछड़ी जातिया। हालांकि इसमें जातीय समूहों को ही शामिल किया गया, लेकिन फिर सवाल उठता है कि सरकार ओबीसी का कालम बनाएगी या सिर्फ जाति का। ओबीसी बनाएगी तो उसमें भी एमबीसी या ईबीसी को अलग रखेगी या नहीं? यह भी कि किसी पिछड़ी जाति की गणना करते समय उनके क्रीमीलेयर तबके को कहां परिगणित करें, क्योंकि सरकारी योजनाओं या आरक्षण का लाभ तो उन्हें नहीं मिलना है। तीसरे, जनगणना कर्मी अधिकाशत: प्राइमरी स्कूल के शिक्षक या अन्य सरकारी बाबू होते हैं, जो जाति संबंधी इन विभिन्न जटिलताओं को समझने और उसे रिकार्ड करने के लिए न तो प्रशिक्षित होते हैं और न ही समर्थ।
एक आशंका यह भी जताई जा रही है कि जिन जातियों के लोगों की संख्या अधिक होगी, राजनीतिक दल उन्हीं को पूछेंगे और कम संख्या वाली जातियां हाशिये पर आ जाएंगी। इसका जो सबसे खतरनाक प्रभाव होना है, वह है जाति की घोर राजनीति। हालांकि अभी ही राजनीति में जाति घुस चुकी है, लेकिन जनगणना के बाद जाति और राजनीति के मिश्रण का ऐसा घोल बन सकता है, जो देश के लिए शायद बहुत विस्फोटक हो। ऐसे संवेदनशील मुद्दे को सिर्फ राजनीतिज्ञ तय नहीं कर सकते। समाजशास्त्रियों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और नागरिक समाज में इस पर व्यापक बहस चलानी चाहिए।
[डा. निरंजन कुमार: लेखक दिल्ली विवि में एसोसिएट प्रोफेसर हैं]
वाह निरंजन कुमार जी बड़ी ब्यापक चिंता है आपकी यही विचार आप विश्वविद्यालय में भी रखते होंगे . दरअसल सारे संकटों कि जड़ यहीं है "एकलब्य" का अंगूठा कहाँ गया कुछ याद है आपको शायद नहीं मैं याद दिलाता हूँ यह कहानी औप्निवेशिक चिन्तक कि नहीं बल्कि आपके पूर्वज की है पश्चिमी शिक्षा के साथ आपने क्या तारतम्य स्थापित किया है आपको तो यह सब सहज लगता है, द्रोणाचार्य को गाली देना शायद उतना माकूल नहीं होगा जितना आपको यह समझाना की आपकी क्लास में कितने बच्चे थे जिनमे कितने आप से ज्यादा काबिल थे इस आकलन में क्या आप को जाति की कोई बाधा दृष्टिगोचर हुई .
यदि हुई तो वह आज कहाँ है और आप कहाँ शायद आपको याद न हो पर एकलब्य का अंगूठा आपके मस्तिष्क में ऐसे घुसा है जैसे मजदूर के पैरों में असंख्य शूल जिसके असर से वह मर रहा है और आप मार रहे है . कुछ और सवाल इन्होने अपने आलेख में खड़े किये हैं-
यदि हुई तो वह आज कहाँ है और आप कहाँ शायद आपको याद न हो पर एकलब्य का अंगूठा आपके मस्तिष्क में ऐसे घुसा है जैसे मजदूर के पैरों में असंख्य शूल जिसके असर से वह मर रहा है और आप मार रहे है . कुछ और सवाल इन्होने अपने आलेख में खड़े किये हैं-
१.सवर्ण जातियां - कैसे वर्ण के आधार पर "मनुस्मृति" के आधार पर या किसी और आधार पर पर जैसे ही "सवर्ण" का ध्यान आता है ये आदमी नहीं रहते कुछ और ही हो जाते है निरंकुश हिंसक दुराचारी भ्रष्ट आततायी आदि आदि - क्या आपको लगता है 'इस आचरण का आदमी कैसा होगा' नहीं लगता, न कभी आदमी बनकर सोचिये 'सवर्ण' बनकर नहीं, विलाशिता भ्रष्टाचार आदि के लिए आपको जाति नज़र नहीं आती सत्ता और सुबिधा के लिए जाति ?
२.पिछड़ी जातियां जिनकी परिकल्पना आपके जीवन के दुष्कर होने का एहसास कराती सी नज़र आती है क्योंकि आप की आदत सदियों से ख़राब हो गयी है इनके बारे में जैसे ही कोई चर्चा आती है वह आपको तकलीफ देने लगती है. यही कारण है की आज तक पिछड़ी जाति के आदमी आपकी दृष्टि में अयोग्य नज़र आता है, जबकि वह पहले भी आप जैसों से योग्य था पर उसे अवसर न देकर आपको दिया गया 'मंडल' या संबिधान 'अवसर' देने की बात करता है पर 'भ्रष्टतम न्यायिक प्रणाली' क्रीमी लेयर की बात करती है जो प्राकृतिक न्याय के भी बिरुद्ध है समानुपातिक होने दीजिये बेईमानी बंद करिए सब ठीक हो जायेगा .
३.जाति का जिन्न बोतल में बंद कराने और करने में माहिर 'जिन्हें तथाकथित सवर्ण' कह रहे है वह कब के खोल चुके है जो मुट्ठी भर होते हुए पूरे माहौल और देश में नज़र आते है
नाना प्रकार के अपराधों में लिप्त - यही कारण है की भगवान बुद्ध स्वामी विवेकानंद स्वामी दयानंद राहुल संकृत्यायन ने जिन सवर्णों के कु कृत्यों का खुलाशा किये उससे भी सीख लेने की मंशा आपकी नहीं है 'यथा यदि आप सुधर जाएँ तो देश का भला हो' भले लोगों को बुरा कहने की पुरानी आदत बदलिए दुनिया बदल रही है आप में माद्दा नहीं है की अब आप रोक सकोगे ओ आपको बेवकूफ लगते होंगे पर आपके आकाओ को पता है उनकी ताकत और कहीं 'न' कहीं आपको भी इसीलिए 'देश की सबसे बड़ी पंचायत ने एक स्वर से जातीय जनगरना को समर्थन किया' उसमे सारी की सारी मान्यताएं धरी की धरी रह गयी हैं. आप जैसे गलती से आ गए लोग कितना गर्बर करते है देखना होगा .
४.यद्यपि आप ने स्वीकार किया है की भ्रष्टाचार का मूलकारण 'तथाकथित ऊँची जातियों के शीर्ष जगहों के घेरे होने के कारण है' सदियों के बनाये गए आपके इंतजामात बदलने होंगे क्योंकि २०११ की जनगरना में सबसे महत्त्व के पहलू जाति को 'बोतल में बंद करके' क्यों रखते हो ?
५.दरअसल सामाजिक न्याय के नेता भ्रष्ट नहीं है 'उनको आपके भाई बंधू भ्रष्ट बनाते है एक नहीं हज़ार उदहारण है' आपको सब पता होगा,सामाजिक न्याय और बदलाव बेईमानी से नहीं ईमानदारी से किया जाना है और आप को पता है की ईमानदारी की लड़ाई कितनी मुश्किल है जहाँ आप जैसे.................बैठे हों ?
६.सदियों से इस देश में गारंटी हर ख़राब को अच्छा कहने का गारंटी से कोई न कोई वादा किया जाता है पर छोटे छोटे हर्फों में लिखा विधान सारी गारंटी को गड-म-गड करके रख देता है और हम निराश लौट रहे होते है .
७.जिस बात से ये ज्यादा परेशां है की जातीय जनगरना हुई तो जातियों की असलियत पता चल जाएगी और इनके कब्जे और काबिलियत की भी.
दरअसल सारी समस्याओं की जड़ में इस देश का सदियों से जमा हुआ जातिवाद ही है इसमे कोई दो राय नहीं पर इसके इलाज पर इतना हाय तोबा क्यों ? पता करिए ठीक से किसकी कितनी आबादी है और उसकी कितनी हिस्सेदारी है, यदि इस का ठीक ठीक आकलन न हुआ तो जातीय बीमारी बढ़ती जाएगी, उत्तर प्रदेश हो झारखण्ड हो छत्तीसगढ़ हो बिहार मध्य प्रदेश या कोई प्रदेश जहाँ सदियों से इसी जातीय जिन्न ने जिस भेदभाव को बड़ा किया है वही नासूर की तरह फूट रहा है, जो अंग्रेजों की नस्ल के है उन्हें ही सच्चाई से डर है की कही सच्चाई का पता चला तो हर जगह से इन्हें जाना होगा.
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