24 जून 2010

(दरअसल सही बात कहने में हिन्दुस्तानी का कलेजा बाहर आ जाता है इसलिए नहीं की उसे सही गलत का एहसास नहीं है पर वह आकंठ जाति धर्म और परिवार में उलझा है की उसे दूसरे का अच्छा अच्छा ही नज़र नहीं आता, अपना अपराधी दुराचारी भ्रष्ट उन्हें अच्छा लगता है, मार्क तुली के इस लेख में वही चीजें उल्लिखित है -अमर उजाला से साभार)
डॉ.लाल रत्नाकर 
भारत दर्शन
नकली अमेरिकाअसली भारत की आखिर यह कैसी तसवीर बनी है
मार्क टुली


मेरी पैदाइश भारत की है। मैं नौ साल की उम्र में इंग्लैंड चला गया था और फिर 1965 में 30 वर्ष की उम्र में यहां वापस आया। जब मैं यहां आया था, तब कहा जाता था कि विदेशी मदद न मिले तो भारत में अकाल पड़ जाए। तब विदेशों से जहाजों के जरिए भारत के लिए खाद्यान्न आता था। भारत पूरी तरह से खाद्यान्न सहायता पर निर्भर था और अमेरिकी मदद से उसकी खाद्यान्न जरूरतें पूरी हो रही थीं। आज बहुत कुछ बदल चुका है। तब विदेशी राजनयिकों की पत्नियां यहां से वापस जाते समय अपनी इस्तेमाल की गई लिपस्टिक तक बेच डालती थीं। दरअसल यहां तब ऐसे सामान की मांग भी खूब थी। उन दिनों बहुत कम चीजें यहां मिलती थीं और जो सामान देश में बन रहे थे, उनकी क्वालिटी अच्छी नहीं थी। आज हालात बदल गए हैं। भारत में हर तरह की चीजें बन रहीं और यहां से विदेशों में भी जा रही हैं। भारत आत्मनिर्भर हो चुका है। मैं खुद जब कभी लंदन जाता हूं तो वहां कुछ नहीं खरीदता, क्योंकि मुझे इसकी कोई जरूरत नहीं होती। चार-पांच दशकों में सबसे बड़ा बदलाव मैंने महसूस किया है कि तब लोग निराश थे क्योंकि तब बहुत गरीबी थी, लोग भूख से मर रहे थे। लोगों को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। आज लोग ‘भारत महान’ की बात कर रहे हैं। लोग कह रहे हैं कि भारत महाशक्ति बन जाएगा। आज आठ फीसदी विकास की बात की जा रही है। मगर मैं सोचता हूं कि महाशक्ति या भारत महान की बात करने से पहले देश की प्रशासन प्रणाली में सुधार लाने की जरूरत है। इतने दशकों बाद भी भारत में गवर्नेंस बहुत कमजोर है। केंद्र सरकार कुछ करना भी चाहती है तो वह कमजोर प्रशासन प्रणाली की वजह से कुछ नहीं कर पाती। मसलन, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) एक अच्छी योजना है, लेकिन उसमें भी भ्रष्टाचार है। इसकी वजह यह है कि स्थानीय निकायों का कामकाज बेहद कमजोर है। सरकार की मुश्किल यह है कि वह भ्रष्टाचार को काबू नहीं कर पा रही है। सरकार के आदेश निचले स्तर तक अमल में ही नहीं आ पाते। राजीव गांधी ने एक बार कहा था कि दिल्ली से एक रुपया चलता है तो गांवों तक उसमें से 15 पैसे ही पहुंच पाते हैं। सरकार की रवायत ऐसी बन गई है कि वह लोगों की मदद करने के बजाय उन्हें तंग कर रही है। नैतिकता और जवाबदेही में भी गिरावट आई है। भारतीय प्रशासनिक सेवा सरकार का एक महत्वपूर्ण अंग है मगर इसका मतलब सेवा नहीं है। अभी थोड़े दिनों पहले राजस्थान के एक गांव में मैंने देखा कि लोगों के पास जॉब कार्ड नहीं थे और उन्हें इसकी वजह भी पता नहीं थी। वहीं एक व्यक्ति ने बताया कि उसने जॉब कार्ड के लिए बीडीओ से आग्रह किया मगर उस अधिकारी ने उसे अपने दफ्तर से भगा दिया। इस हालात के लिए नौकरशाही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है, राजनेताओं से भी कहीं अधिक। सारे लोग राजनेताओं को दोष देते हैं मगर यह पूरा सच नहीं है। दरअसल राजनेता ही नौकरशाही से काम ले सकते हैं इसलिए बार-बार लोग राजनेताओं के दरवाजों पर जाते हैं। मगर राजनेता भी हर किसी की मदद नहीं करते, वे सिर्फ उनकी मदद करते हैं जिनकी मदद वे करना चाहते हैं। लोगों को लगता है कि शायद राजनेता उनकी बातें सुनेंगे, ऐसा होता भी है। मगर उन्हें नौकरशाही पर भरोसा नहीं है क्योंकि राजनेता को तो पांच साल बाद हटाया जा सकता है, पर नौकरशाहों को नहीं। आज हम भारत के महाशक्ति बनने की बात कर रहे हैं मगर क्या आप जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट 2009 में भारत 177 देशों की सूची में 134 वें नंबर पर है। भूटान, दक्षिण अफ्रीका, मिस्र और यहां तक कि चीन भी भारत से ऊपर है। इसमें बीपीएल, स्वास्थ्य, शिक्षा से लेकर औसत उम्र जैसे घटक शामिल हैं। मैं इस रिपोर्ट का जिक्र इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र में कमी सरकार की कमजोरी को ही बता रही है। सरकार स्कूल खोलती है लेकिन शिक्षक नहीं होते, वह अस्पताल खोलती है लेकिन वहां डॉक्टर नहीं होते। इसलिए मेरा यह मानना है कि भारत जब तक अपनी प्रशासनिक प्रणाली में सुधार नहीं लाता तब तक उसके महाशक्ति बनने की उम्मीद बेमानी है। एक बात और, लोग अकसर जीडीपी की बात करते हैं लेकिन इससे यह पता नहीं चलता कि देश में कितने लोग गरीब हैं, स्वास्थ्य और शिक्षा की क्या स्थिति है। यदि गांधी आज होते, तो वह महाशक्ति जैसी बात के खिलाफ होते। महाशक्ति की अवधारणा ही भारत की संस्कृति के खिलाफ है। भारत की संस्कृति विनम्रता की संस्कृति है, जैसा कि गीता में कहा गया है कि कर्म करें, फल की इच्छा न रखें। विनम्रता भारत का सिद्धांत है और मेरा यह मानना है कि विनम्रता और महाशक्ति की बात साथ-साथ नहीं चल सकती। इतिहास गवाह है कि जो देश कभी महाशक्ति था, उसे नीचे जाना पड़ा। मैं जब बच्चा था तब दुनिया के काफी बड़े हिस्से पर मेरे देश इंग्लैंड का राज चलता था। आज वह कहां है? दूसरी मिसाल अमेरिका की है। पहले तमाम देश बहुत-सी चीजें अमेरिका से खरीदते थे। मगर अब अमेरिका को दूसरे देशों पर निर्भर होना पड़ रहा है। एक बार मुझसे एक टीवी कार्यक्रम में पूछा गया था कि आप भारत की संस्कृति के बारे में बात करते हैं मगर भारत को तो बहुत आगे जाना है, प्रगति करनी है? मैंने तब कहा था कि यह बात ठीक है कि भारत भी समृद्घ बने और उसका विकास होना चाहिए। लेकिन मैंने उनसे पूछा था कि आप क्या चाहते हैं-असली भारत या नकली अमेरिका। मुझे खतरा महसूस हो रहा है कि कहीं भारत नकली अमेरिका बनने के रास्ते पर तो नहीं चल पड़ेगा। 

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

सभी यही खतरा महसूस कर रहे हैं.

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