16 अग॰ 2010

 :ओ३म नमो भगवते वासुदेवाय: क्रांति दृष्टा न्याय करता:
श्रीमती केशा यादव 
श्रीमद भगवान श्री कृष्ण को जिस प्रकार लम्बे साजिश के तहत 'द्विज' ताकतों ने अधिगृहित कर उनके मर्यादाओं का सार केवल 'हिन्दू धर्म' के सुपुर्द कर लिया गया वह साजिश हमेशा हमेशा चल रही है,'गीता' के उनके उपदेशों का सवाल हो या उनकी मूर्तियों का मंदिरों में स्थापित कर एक विशेष संप्रदाय का भरण पोषण हो, सारा का सारा खेल उनके द्वारा चलाये गए सामाजिक समरसता के सिद्धांतों के विपरीत है , आज पुनः उसी आन्दोलन की जरुरत आ गयी है.
मूलतः भगवान श्री कृष्ण दबे कुचले लोंगों के नायक वाली छवि को बदल कर उन्हें 'छलिया' बनाने के पीछे भी गहरी साजिश है जो आज तक चली आ रही है, द्विज और दमनकारी शक्तियां हमेशा इस तरह के अपराधिक कुकृत्य ही करते रहते है. आज तमाम मठ और मंदिरों के आये दिन खबरें समाज में उनके स्वरुप को उजागर कराती है पर जिस तेजी से उन्हें दबाया जाता रहता है वह एक बड़े गिरोह का ही काम है .
अतः  अब हमें कृष्ण के भगवान श्री कृष्ण की बजाय क्रांति द्रष्टा वाले कृष्ण को सम्मुख लाने की नीति पर आगे आना है, तभी समाज और देश का कल्याण होगा, हजारों हज़ार गोपियों के साथ वाले कृष्ण इस लिए 'लोक प्रिय थे की वो छिनरा थे" नहीं आज के "समकालीन साहित्य जगत में किसी पत्रिका में मात्र 'छिनाल' कह देने से चंद महिला साहित्यकारों ने 'एक पुलिशिया कुलपति' से माफ़ी मगवा ली क्या आज तक हमें 'इतनी भी 'शर्म' नहीं आयी की इतने बड़े योद्धा क्रांति पुरुष को भाग वान होने दिया और स्वयं उनके नाम पर 'प्रसाद' और मोटा चढावा उन्ही को चढ़ा रहे है जो आपका आपके समाज का रोज प्रतिपल 'दामन' करने की सोच रहे है.
भिक्षुक 'सुदामा' आज उसी कृष्ण के बन्शजों के लिए 'कुत्सित' कुचक्र रचता है, रात दिन दुष्प्रचार करता और कराता है.
'ये' कौन है अभी भी आपको नज़र नहीं आ रहा है, देखिये इसे पहचानिए ये वही द्विज है जो कभी अपनी जाति बदलता है कभी 'वैदिक' बनता है और कभी 'हिन्दुस्तानी' इसकी अक्ल एइसा नहीं की ज्यादा है ज्यादा जो है वह है अनैतिकता और यही कारण है की हम उसकी अनैतिकता से हार जाते है, पर इसका इलाज अनैतिकता से नहीं हम नैतिकता से ही देंगे जब अधिगृहित कृष्ण के 'असली ' वसूलों को समझेंगे इस दौर का यदि कोई नेता बनना चाहता है तो उसे 'उस कृष्ण नहीं जिसे रसिया और छलिया बना दिया गया है' बल्कि क्रांति दृष्टा कृष्ण बनना होगा .
समय और सामर्थ्य के अनुरूप आन्दोलनों में सबसे अधिक जो नुकसान पहुंचाते है वह कहीं न कहीं अपने ही उसमें अधिक होते है, यही काम यदि सदियों पहले हुआ होता तो आज यह खायीं न होती, समाजवाद के सिद्धांतों में लोहिया ने जो कुछ कहा 'आज का समाजवादी' उन सिद्धांतों को कितना मानता है . हम कहीं न कहीं सार्थक और समर्थ नेतृत्व विहीन है.
हमें सोचना होगा 'कृष्ण की क्रांति' और उनके द्वारा संहार किये गए नर पिशाचों का जो संभवतः इसी तरह के रहे होंगे, जिन्होंने देश की दौलत हड़प रक्खी है,      

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