5 नव॰ 2011

साहित्य में जातिवाद 
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दलित विरोधी ये प्रगतिशील
श्यौराज सिंह बेचैन
Story Update : Friday, November 04, 2011    7:47 PM
हाल ही में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की 75वीं वर्षगांठ के मौके पर प्रलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. नामवर सिंह ने कुछ ऐसी बातेंकहीं, जिससे प्रगतिशील लेखकों के दलित विरोधी होने की धारणा पुख्ता होती है!

उन्होंने कहा कि ‘दलितों के बारे में बेहतर ढंग से दलित ही लिख सकता है और महिलाओं के बारे में महिलाएं ही लिख सकती हैं, अगर ऐसा मानेंगे, तो सारा प्रगतिशील लेखन ही खारिज हो जाएगा।’ इसके अलावा उन्होंने बहुरि नहीं आवना पत्रिका में डॉ धर्मवीर द्वारा किए गए मुर्दहिया के मूल्यांकन पर दलित हिमायती के अंदाज में ऐतराज जताते हुए कहा कि मुर्दहिया की एक अन्य दलित लेखक धर्मवीर ने जमकर धज्जियां उड़ाई हैं। खेमेबाजी यहां भी है।

मान लिया जाए कि दलित ने दलित की आलोचना की या नामवरों के जाल से उसे बाहर निकाल लाने की कोशिश की, पर क्या प्रलेस के विगत 75 वर्षों में नामवर सिंह ने कभी किसी दलित-विरोधी ठाकुर की आलोचना की? दलित साहित्य के स्थायी और घोषित विरोधी होने के बावजूद नामवर सिंह मुर्दहिया के पक्ष में कैसे आ गए?

वह इस कृति के समर्थन की आड़ में दलित साहित्य और समाज का कौन-सा बड़ा हित करना चाह रहे थे, जिसे डॉ धर्मवीर की समीक्षा ने नाकाम कर दिया, जिस वजह से उन्होंने सम्मेलन का मुख्य मुद्दा उस समीक्षा को बनाया? यों कहने के लिए प्रगतिशील विचारधारा में वर्ण नहीं, वर्ग होते हैं, पर नामवर सिंह के मानस में स्थायी रूप से सामंत निवास करता है। वह कह चुके हैं कि आरक्षण से बड़ा फर्क पड़ा है। काफी दलित सवर्णों से बेहतर स्थिति में हैं। यही हालात रहे, तो ब्राह्मण, ठाकुर सड़क पर नजर आएंगे। इससे पहले नया पथ के एक साक्षात्कार में वह दलित लेखकों के बारे में अनाप-शनाप बोल चुकेहैं।

नामवर सिंह को इस बेबाकी के लिए बधाई देनी चाहिए कि वह दलितों के विषय में जो सोचते हैं, जो करते हैं, वही कहते हैं। वरना कथनी और करनी में अंतर रखने वाले प्रगतिशीलों की क्या कमी है! हिंदी क्षेत्र के दलितों के लिए यह अच्छा ही हुआ कि नामवर सिंह जैसे विरोधी और प्रतिद्वंद्वी पैदा हुए। काश वे केरल, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में भी पैदा हो जाते, तो वहां भी दलित लेखन अपने रूप में आ गया होता। नामवर सिंह के रूप में यहां 75 वर्षीय प्रलेस की कलई खुली है। उसका नेतृत्व दलितों का कैसा इस्तेमाल करता रहा है, यह साफ हो गया है।

डॉ अंबेडकर से लेकर अब तक कभी किसी दलित की अच्छी रचना नामवर जी की समझ में नहीं आई। उन्होंने उसे या तो दो कौड़ी की या भूसा कहा। प्रेमचंद के सामने गांधी और अंबेडकर राजनीतिक आदर्श के रूप में दो विकल्प थे। प्रेमचंद ने गांधी जी को चुना और अंबेडकर का असहयोग किया। स्वामी अछूतानंद प्रेमचंद के हमउम्र और हमशहरी थे। प्रेमचंद ने उनके नेतृत्व को भी स्वीकार नहीं किया। उसी परंपरा में नामवर सिंह दलितों के बौद्धिक नेतृत्व और साहित्य चिंतन को गुलाम बनाए रखने का उपक्रम कर रहे हैं।

नामवर जी दावा कर रहे थे कि गैरदलित भी दलित साहित्य लिख सकता है। उनसे पूछा जा सकता है कि उन्हें किसने रोका था, एक और मुर्दहिया, मेरा बचपन मेरे कंधों पर अथवा मेरी पत्नी और भेड़िया जैसी आत्मकथा लिखने से? पर उन्होंने डॉ यशवंत वीरोदय से कहा कि ऐसी बातें छिपा लेनी चाहिए। यही तो अंतर है। उनकी परंपरा में छिपाना है, जबकि दलित और कबीर की परंपरा में खोलकर कहना है।

नामवर सिंह आतंकित हैं कि दलित उनकी सोच को खारिज कर देंगे। इसलिए वह मार्क्सवाद का आवरण फेंककर सीधे वर्णवादी भाषा में बोलते दिख रहे हैं। मार्क्सवाद में तो ब्राह्मण, ठाकुर और दलित होता नहीं है, इसके लिए तो नामवर जी को अपने असली चरित्र में आना ही पड़ता। यदि प्रेमचंद दलितों को लेकर चले थे और ठाकुर का कुआं लिखकर ठाकुर का चरित्र दिखा चुके थे, तो 75 वर्ष होने पर प्रलेस का नेतृत्व दलित को सौंप देना चाहिए था। स्थायी तौर पर नहीं, तो सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए ही सही, पर ऐसी पहल कहीं से होती नहीं दिखी।

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