2 जुल॰ 2009

इस जनादेश का मतलब क्या है ?


www.ravivar.com से साभार

इस जनादेश का मतलब क्या है ?

योगेंद्र यादव

लोकतंत्र का बेताल अपने हाथ में रिमोट थामे चैनलों को उलट पलट कर थक चुका था. आखिर में हमेशा की तरह वो विक्रमादित्य की ओर मुखातिब हुआ- “चुनाव परिणाम तो आ गया लेकिन जनता का रुझान क्या है? वोटर का फैसला तो दिख रहा है लेकिन जनमानस का आदेश क्या है? ”

विक्रमादित्य खुद असमंजस में था. कुछ देर ठिठकने के बाद सर खुजलाते हुए शुरुआत की. इस नतीजे को पुराने और चालू फॉर्मूले के सहारे समझा नहीं जा सकता. ये परिणाम अलग-अलग राज्यों के अखाड़े में अलग-अलग लड़े गए चुनावों के परिणामों का कुल जमा भर नहीं है. इसमें स्पष्ट रुप से एक राष्ट्रीय नुकसान है, एक सूत्र-एक तार है, जो जम्मू-कश्मीर को तमिलनाडु से और गुजरात को असम से जोड़ता है. हर राज्य की बुनावट अलग है और परिणाम भी अलग रंग रुप लिए है. लेकिन हर जगह कांग्रेस ने अपनी औकात से दो सूद बेहतर ही प्रदर्शन किया है. अगर चुनावी दंगल के स्थानीय समीकरणों में ही उलझे रहेंगे तो हम इस रुझान को पकड़ नहीं पाएंगे.


राज्य सरकार की कारगुजारी का असर इस राष्ट्रीय परिणाम में साफ देखा जा सकता है. लेकिन महाराष्ट्र का उदाहरण बताता है कि ढीली सरकारें भी जीती हैं. उम्मीदवार के चयन, पार्टी में भीतरघात जैसे मामले गौण हो गए हैं. नहीं तो हरियाणा और राजस्थान में कांग्रेस को ऐसी सफलता न मिलती. अगर गुजरात और मध्य प्रदेश में कांग्रेस की बदहाली को मद्देनजर रखें तो वहां के चुनाव परिणाम एक राष्ट्रीय रुझान का प्रमाण देते हैं. ये 1980 या 1984 जैसी चुनावी आंधी नहीं है. लेकिन जैसे 1999 में कारगिल के बाद देश भर में भाजपा के हक में हल्की-सी बयार थी, कुछ वैसी ही बयार इस साल कांग्रेस के पक्ष में थी.

इसलिए हार के कारण को भाजपा के खेमे में ढूंढने की जरुरत नहीं है. हार के कारण भाजपा के खेमे में नहीं मिलेंगे. पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा हारी थी और संयोगवश जीत कांग्रेस की झोली में आ गिरी थी. लेकिन इस बार कांग्रेस जीती है.

ऐसा नहीं है कि चुनावी राजनीति में कांग्रेस ने भूल न की हो. इस मायने में कुल मिलाकर कांग्रेस की कमियां भाजपा से ज्यादा ही रही हैं. जाहिर है कि माहौल कांग्रेस के पक्ष में था. इसके पीछे किसी एक कारण को देखना सतही होगा.

कांग्रेस सरकार में पिछले पांच साल में कई दूरगामी कानून बनाए, जिसका आम आदमी से संबंध था. राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी योजना, किसानों की कर्जमाफी, वन कानून, सूचना के अधिकार का कानून, सच्चर कमिटी की रपट और ऐसे कई सरकारी कदमों का असर तो आम आदमी तक नहीं पहुंचा लेकिन इससे कहीं न कहीं कांग्रेस के पक्ष में एक माहौल बना. प्रधानमंत्री की ईमानदारी और सोनिया गांधी की राजनीति के दांवपेच से दूर रहने की छवि से भी कांग्रेस को मदद मिली. कुल मिलाकर अपने विरोधियों की तुलना में कांग्रेस कम-से कम एक आस दिखाती है. कांग्रेस के पक्ष में पड़े इस वोट में कहीं न कहीं उस आस की झलक है.

राष्ट्रीय रुझान का मतलब ये नहीं है कि राष्ट्रीय दलों के दबदबे का युग वापस आ गया. इतना जरुर हुआ है कि कांग्रेस और भाजपा की सीटों की संख्या पिछली बार की 283 से बढ़कर 321 हो गई है. लेकिन ये तो 1998 में भी हो चुका था.

अगर वोटों की दृष्टि से देखें तो अभी तक प्राप्त सूचना के आधार पर दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों के कुल वोट के अनुपात में कोई इजाफा नहीं हुआ है. पिछली बार उन्हें 48.7 फीसदी वोट मिले थे तो इस बार का आंकड़ा 48.9 फीसदी ही दिखा रहा है.

ऐसा भी नहीं है कि क्षेत्रीय दलों के दिन लद जाएंगे. चाहे उड़ीसा में बीजू जनता दल की विजय हो या बिहार में जेड़ीयू की सफलता. महाराष्ट्र में शिवसेना और रांकापा का वजन हो या तमिलनाडु में डीएमके का, क्षेत्रीय दलों को नजरअंदाज करना एक बहुत बड़ी भूल होगी.

दरअसल, कांग्रेस और भाजपा के वो नेता बेहतर प्रदर्शन कर पाए हैं, जिन्होंने अपने राज्य की इकाई को क्षेत्रीय दल की तरह चलाया है. इस साल का सुखद बदलाव सिर्फ इतना है कि जाति की होड़बंदी के सहारे वोटर को अपनी जेब में रखने का कुछ क्षेत्रीय दलों का अहंकार टूट गया है.

इस चुनाव का सबसे दूरगामी महत्व राजनीति की बदलती जमीन का संकेत है. पिछले दो दशक में राष्ट्रीय राजनीति में तीसरी जमीन का फैलाव हुआ है, लेकिन तीसरा मोर्चा सिकुड़ता गया है. एक ओर मंडल, बाबरी मस्जिद के ध्वंस, उदारीकरण और वैश्वीकरण की आर्थिक नीतियों और जल-जंगल-जमीन की लड़ाई में राजनीति की गैरकांग्रेसी, गैरभाजपा जमीन को पुख्ता किया है. लेकिन दूसरी ओर तीसरी जमीन की राजनीति करने वाला तीसरा खेमा राष्ट्रीय मोर्चे के जमाने को लेकर इस बात से लूले-लंगड़े तीसरे मोर्चे तक लगातार सिमटता गया है. इस बार वाममोर्चे, राजग, सपा और बसपा जैसी पार्टियों की दशा ने इस प्रक्रिया को पूरा कर दिया है. राजनीति की तीसरी जमीन पर उगी फसल अब कांग्रेस की झोली में जा रही है.

कांग्रेस को कुछ नया पढ़ने या गढ़ने की जरुरत नहीं है. उन्हें अपनी ही पार्टी का बस घोषणा पत्र पढ़ना है.


2009 के चुनाव का जनादेश कांग्रेस के लिए एक चुनौती और अवसर लेकर आया है. आज भी कांग्रेस को समाज के हाशिए पर खड़े समुदायों का वोट मिल रहा है. हालांकि, कांग्रेस खुद इस वोट के प्रति गंभीर दिखायी नहीं देती. चुनौती गहरी है. कांग्रेस राजनीति की तीसरी जमीन की वारिस कैसे बने.

यह एक ऐतिहासिक अवसर भी है कि कांग्रेस अपने वोटर को पहचाने और उसके अनुरुप अपनी नीति और राजनीति को ढाले. ऐसा करने के लिए कांग्रेस को आम आदमी की बात करने के साथ-साथ एक आदमी की अवस्था सुधारने की नीतियां बनानी होंगी, नीतियों को अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने की राजनैतिक रणनीति सोचनी होगी. क्षेत्रीय भावनाओं को एक राष्ट्रीय संगठन के भीतर समुचित स्थान देना होगा. अगर दूसरे दलों के साथ गठबंधन की मजबूरी और ब्लैकमेल से बचना है तो खुद कांग्रेस को एक विशाल गठबंधन बनना पड़ेगा, जैसा कि वो आजादी के आंदोलन में थी. अगर वाम खेमे के दबाव से मुक्ति चाहिए तो कांग्रेस को अपने भीतर एक जनवादी, वामखेमे की जगह बनानी होगी.

बेताल का मन अब भी शांत नहीं था. उसने पूछा-“ सोनिया-राहुल का मंत्र जापते हुए कांग्रेसियों को इस ऐतिहासिक चुनौती और जिम्मेदारी का अहसास है भी या नहीं? कहां से आएगी कांग्रेस के पास ये नयी विचारधारा? ”

विक्रमादित्य का जवाब छोटा और सीधा था- “कांग्रेस को कुछ नया पढ़ने या गढ़ने की जरुरत नहीं है. उन्हें अपनी ही पार्टी का बस घोषणा पत्र पढ़ना है.”

ये उत्तर सुनकर बेताल ने टीवी बंद कर दिया और अंतरध्यान हो गया.


Dr.Lal Ratnakar (ratnakarlal@gmail.com) GHAZIABAD

इस जनादेश का मतलब बेमतलब होता जा रहा राजनितिक उत्थान का बड़बोला नारा और ब्राह्मणवादी मानसिकता से वोत प्रोत सामाजिक न्याय का ढिंढोरा पीटते नेता और उनका रूप जिसे जनता देखते सुनते थक गयी थी. गाडीवान और उचक्के नेता कम तो हुए लेकिन गुंडे और आर्थिक गुंडे जरुर लोकसभा आ गए है. लेकिन एक तरफ लालू ,मोदी ,मुलायम ,माया,कल्याण सबका कल्याण हो गया ,और मिडिया भी इनको जम के गरियाया और अभी भी जरी है .

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