20 सित॰ 2009


खबरनामा 
डॉ.लाल रत्नाकर
पितृपक्ष के उपरांत नवरात्र में हिन्दू धर्म के तमाम पर्व आदि इस माह में है जिसकी वजह से उत्तर भारत के तमाम शहरों में रामलीला आदि की धूम है| भारतीय इतिहास और परम्परा के चलते पौराणिक आख्यानों की महत्ता के नाम से सदियों के रुढिवादी आचार को संस्कृति के नाम से चलाया जा रहा है जिसका असर ये है की तमाम रूढियां यथावत चली आ रही है, जिसमे सबसे खतरनाक है जातीय प्रतिबद्धता जिस देश में आज तक समाज को विविध खांचे में जातीय विभाजन की वजह से रखा गया है इसी पर चर्चा करते हुए यह देखना है की क्या इसका कोई इलाज है या नहीं -
धर्म -
धर्म और अधर्म की अवधारण समाज के सञ्चालन का आस्था पर आधारित विधान रहा है जब समाज का विकास प्रारंभ हुआ होगा जिसे दर्शन के आधार पर संचालित किया गया होगा दर्शन और स्मृतियाँ जिसमे मनु स्मृति का महत्त्व पूर्ण योगदान है यथा -




मनुस्मृति के प्रणेता एवं काल

मनुस्मृति के काल एवं प्रणेता के विषय में नवीन अनुसंधानकारी विद्वानों ने पर्याप्त विचार किया है। किसी का मत है कि "मानव" चरण (वैदिक शाखा) में प्रोक्त होने के कारण इस स्मृति का नाम मनुस्मृति पड़ा। कोई कहते हैं कि मनुस्मृति से पहले कोई मानव धर्मसूत्र था (जैसे मानव गृह्यसूत्र आदि हैं) जिसका आश्रय लेकर किसी ने एक मूल मनुस्मृति बनाई थी जो बाद में उपबृंहित होकर वर्तमान रूप में प्रचलित हो गई। मनुस्मृति के अनेक मत या वाक्य जो निरुक्त, महाभारतादि प्राचीन ग्रंथों में नहीं मिलते हैं, उनके हेतु पर विचार करने पर भी कई उत्तर प्रतिभासित होते हैं। इस प्रकार के अनेक तथ्यों का बूहलर (Buhler, G.) (सैक्रेड बुक्स ऑव ईस्ट सीरीज, संख्या 25), मदृ मदृ काणे (हिस्ट्री ऑव धर्मणात्र में मनुप्रकरण) आदि विद्वानों ने पर्याप्त विवेचन किया है। यह अनुमान बहुत कुछ संगत प्रतीत होता है कि मनु के नाम से धर्मशास्त्रीय विषय परक वाक्य समाज में प्रचलित थे, जिनका निर्देश महाभारतादि में है तथा जिन वचनों का आश्रय लेकर वर्तमान मनुसंहिता बनाई गई, साथ ही प्रसिद्धि के लिये भृगु नामक प्राचीन ऋषि का नाम उसके साथ जोड़ दिया गया। मनु से पहले भी धर्मशास्त्रकार थे, यह मनु के "एके" आदि शब्दों से ही ज्ञात हुआ है। कौटिल्य ने "मानवा: (मनुमतानुयायियों) का उल्लेख किया है।
मनु परंपरा की प्राचीनता होने पर भी वर्तमान मनुस्मृति ईदृ पूदृ चतुर्थ शताब्दी से प्राचीन नहीं हो सकती (यह बात दूसरी है कि इसमें प्राचीनतर काल के अनेक वचन संगृहीत हुए हैं) यह बात यवन, शक, कांबोज, चीन आदि जातियों के निर्देश से ज्ञात होती है। यह भी निश्चित हे कि स्मृति का वर्तमान रूप द्वितीय शती ईदृ तक दृढ़ हो गया था और इस काल के बाद इसमें कोई संस्कार नहीं किया गया। मनु के कुछ प्रयोग प्राक्पाणिनीय है; उत्तरोत्तर इसके प्राचीन पाठ पाणिनीयव्याकरणानुसार संस्कृत हुए हैं--ऐसा मानने के लिये प्रमाण हैं।

मनुस्मृति की संरचना एवं विषयवस्तु

मनु के 12 अध्यायों में कुछ कम 2700 श्लोक हैं। अध्यायानुसार इसके विषय ये हैं--
(1) जगत् की उत्पत्ति;
(2) संस्कारविधि; व्रतचर्या, उपचार;
(3) स्नान, दाराघिगमन, विवाहलक्षण, महायज्ञ, श्राद्धकल्प;
(4) वृत्तिलक्षण, स्नातक व्रत;
(5) भक्ष्याभक्ष्य, शौच, अशुद्धि, स्त्रीधर्म;
(6) वानप्रस्थ, मोक्ष, संन्यास;
(7) राजधर्म;
(8) कार्यविनिर्णय, साक्षिप्रश्नविधान;
(9) स्त्रीपुंसधर्म, विभाग धर्म, धूत, कंटकशोधन, वैश्यशूद्रोपचार;
(10) संकीर्णजाति, आपद्धर्म;
(11) प्रायश्चित्त;
(12) संसारगति, कर्म, कर्मगुणदोष, देशजाति, कुलधर्म, निश्रेयस।




टीकाएं

मनु पर कई व्याख्याएँ प्रचलित हैं--(1) पेधातिथिकृत भाष्य; (2) कुल्लूककृत मन्वर्थ मुक्ताव ली टीका; (3) नारायणकृत मन्वर्थ विवृत्ति टीका; (4) राघवानंद कृत मन्वर्थ चंद्रिका टीका; (5) नंदनकृत नंदिनी टीका; (6) गोविंदराज कृत मन्वाशयानसारिणी टीका आदि। मनु के अनेक टीकाकारों के नाम ज्ञात हैं, जिनकी टीकाएँ अब लुप्त हो गई हैं, यथा--असहाय, भर्तृयज्ञ, यज्वा, उपाध्याय ऋजु, विष्णुस्वामी, उदयकर, भारुचि या भागुरि, भोजदेव धरणीधर आदि।


महत्व

भारत में वेदों के उपरान्त सर्वाधिक मान्यता और प्रचलन ‘मनुस्मृति’ का ही है। इसमें चारों वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों तथा सृष्टि उत्पत्ति के अतिरिक्त राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, भांति-भांति के विवादों, सेना का प्रबन्ध आदि उन सभी विषयों पर परामर्श दिया गया है जो कि मानव मात्र के जिवन में घटित होने सम्भव हैं यह सब धर्म-व्यवस्था वेद पर आधारित है। मनु महाराज के जीवन और उनके रचनाकाल के विषय में इतिहास-पुराण स्पष्ट नहीं हैं। तथापि सभी एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि मनु आदिपुरुष थे और उनका यह शास्त्र आदिःशास्त्र है। क्योंकि मनु की समस्त मान्यताएँ सत्य होने के साथ-साथ देश, काल तथा जाति बन्धनों से रहित हैं।


मनुस्मृति के कुछ चुने हुए श्लोक

धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम ॥
( धर्म के दस लक्षण हैं - धैर्य , क्षमा , संयम , चोरी न करना , स्वच्छता , इन्द्रियों को वश मे रखना , बुद्धि , विद्या , सत्य और क्रोध न करना ( अक्रोध ) )

नास्य छिद्रं परो विद्याच्छिद्रं विद्यात्परस्य तु ।
गूहेत्कूर्म इवांगानि रक्षेद्विवरमात्मन: ॥
वकवच्चिन्तयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत् ।
वृकवच्चावलुम्पेत शशवच्च विनिष्पतेत् ॥
कोई शत्रु अपने छिद्र (निर्बलता) को न जान सके और स्वयं शत्रु के छिद्रों को जानता रहे, जैसे कछुआ अपने अंगों को गुप्त रखता है, वैसे ही शत्रु के प्रवेश करने के छिद्र को गुप्त रक्खे । जैसे बगुला ध्यानमग्न होकर मछली पकड़ने को ताकता है, वैसे अर्थसंग्रह का विचार किया करे, शस्त्र और बल की वृद्धि कर के शत्रु को जीतने के लिए सिंह के समान पराक्रम करे । चीते के समान छिप कर शत्रुओं को पकड़े और समीप से आये बलवान शत्रुओं से शश (खरगोश) के समान दूर भाग जाये और बाद में उनको छल से पकड़े ।

नोच्छिष्ठं कस्यचिद्दद्यान्नाद्याचैव तथान्तरा ।
न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्ट: क्वचिद् व्रजेत् ॥
न किसी को अपना जूंठा पदार्थ दे और न किसी के भोजन के बीच आप खावे, न अधिक भोजन करे और न भोजन किये पश्चात हाथ-मुंह धोये बिना कहीं इधर-उधर जाये ।

तैलक्षौमे चिताधूमे मिथुने क्षौरकर्मणि ।
तावद्भवति चांडाल: यावद् स्नानं न समाचरेत ॥
अर्थ - तेल-मालिश के उपरांत, चिता के धूंऐं में रहने के बाद, मिथुन (संभोग) के बाद और केश-मुंडन के पश्चात - व्यक्ति तब तक चांडाल (अपवित्र) रहता है जब तक स्नान नहीं कर लेता - मतलब इन कामों के बाद नहाना जरूरी है ।

अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥
अर्थ - अनुमति = मारने की आज्ञा देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, मांस के पकाने, परोसने और खाने वाले - ये आठों प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक अर्थात् ये सब एक समान पापी हैं ।

धर्म के प्रति - साधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे- 'मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।'उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से भाखे और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। आप के समस्त विचारों में रामनाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्त्ति, रोज़ा, ईद, मसजिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे। कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न है। एच.एच. विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ ग्रंथ हैं। विशप जी.एच. वेस्टकॉट ने कबीर के ८४ ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की तो रामदास गौड़ ने 'हिंदुत्व' में ७१ पुस्तकें गिनायी हैं।


जीवन

काशी के इस अक्खड़, निडर एवं संत कवि का जन्म लहरतारा के पास सन् १२९७ में ज्येष्ठ पूर्णिमा को हुआ। जुलाहा परिवार में पालन पोषण हुआ, संत रामानंद के शिष्य बने और अलख जगाने लगे। कबीर सधुक्कड़ी भाषा में किसी भी सम्प्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किये बिना खरी बात कहते थे। हिंदू-मुसलमान सभी समाज में व्याप्त रूढ़िवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया। कबीर की वाणी उनके मुखर उपदेश उनकी साखी, रमैनी, बीजक, बावन-अक्षरी, उलटबासी में देखें जा सकते हैं। गुरु ग्रंथ साहब में उनके २०० पद और २५० साखियां हैं। काशी में प्रचलित मान्यता है कि जो यहॉ मरता है उसे मोक्ष प्राप्त होता है। रूढ़ि के विरोधी कबीर को यह कैसे मान्य होता। काशी छोड़ मगहर चले गये और सन् १४१० में वहीं देह त्याग किया। मगहर में कबीर की समाधि है जिसे हिन्दू मुसलमान दोनों पूजते हैं।



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