13 दिस॰ 2009


हाइकु - डॉ.लाल रत्नाकर


ज़माने और
मुह छुपाने वालों
नज़र भी है

शर्माने वालों
बेशर्मो के कर्मों से
झाँकों अंदर

अधर तुम्ही
धराधर भी तू ही
हो बाज़ीगर

कमी ने उसे
बे आबरू बनाया
बचाए कैसे

बचाए है जो
लुटाये कैसे उसे
जो ज्ञानी है

लूट के बचे
उनको लूटे जो थे
उन्हें बचाए

चोर उचक्के
चिल्लाते है न्याय
नहीं मिलता

घुशखोर भी
फुला के छाती खड़ा
इमानदारों

कविता कह
परिवर्तन करना
गए ज़माने

बहस और
लड़े मूढ़ से कैसे
बौद्धिकता से

परिवर्तन के
अहंकार से खड़ा
अकर्मण्य

जब जब मै
मिला उसे वाचाल
नहीं था तब

आग लगाये
चले गए उनके
सब के सब

बचा था कोई
क्या जब लुटा था
मुग़लों द्वारा

इज्जत क्या
तब बची थी तेरी
लूट मची थी

शातिर वह
वह नहीं उसका
येसा कुल है

जिल्लत उठा
उफ़ न कर जरा
पराये यहाँ

मुकाबला भी
उनसे भला कैसा
बेशरम  है

जहमत से
जद्दोजेहद से भी
नहीं समझा

माकूल सा था
सब कुछ उनके
जो लुटेरे थे

हवा थी तब
सुहानी और वह
साथ भी तो था

3 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

badhai

बेनामी ने कहा…

badhai

बेनामी ने कहा…

badhai

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