डॉ.लाल रत्नाकर
आज हमने
तुम्हारे लिए एक
सपना बुना |
सुनोगी रात
सपनों में तुम्हे
जगाता रहा |
लुटेरे सब
अपने पहचाने
आते जाते थे |
चोर उचक्के
सब उसके साथ
फिर लुटेरा |
पहचाना था
पर चुप हो गया
शरीक जो था |
अमर गया
बेइज्जत होकर
किसने लुटा |
मुलायम ना
मुलायम नहीं था
कठोर संग |
अब देखना
फिर चमकेगा वो
ओ चला गया |
इनका तो था
इतिहास ही सदा
धोखा ही देना |
कहाँ फंसे थे
जानता है फ़साना
अरे अमर |
तुमको लुटा
उसको भी उसने
तब लूटा था |
चला गया है
क्या कहते वह
नहीं गया है |
दाद हो गया
बरबाद हो गया
आना उसका |
2 टिप्पणियां:
डॉ.लाल रत्नाकर को पढ़कर अच्छा लगा.
धन्यवाद !
रत्नाकर
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