30 जून 2010

दैनिक जागरण से साभार -

जनगणना में जाति का हौवा

Jun 30, 12:09 am
जातीय जनगणना के मुद्दे ने भारतीय राजनीति में तूफान खड़ा कर दिया है। इस मुद्दे पर तीन पक्षकार खम ठोंककर दंगल में उतर गए हैं। केंद्र सरकार जहा मंत्रियों की कमेटी बनाकर इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालने के मूड में है, वहीं पिछड़े वर्ग के नेता इस कोशिश में है कि इसकी आच ठंडी न होने पाए। मीडिया भी इसमें एक पक्ष बनकर उन खतरों को गिनाने में लगा है जो बजरिए जाति जनगणना उभर कर सतह पर आ जाएंगे। लेकिन असली डर तो कहीं और छिपा बैठा है। जाति जनगणना से जैसे ही यह तथ्य उभर कर आएगा कि किस प्रकार 10-15 फीसदी आबादी देश के 90 फीसदी संसाधनों पर कुंडली मारे बैठी है, वैसे ही तूफान आ जाएगा। इसीलिए जवाहर लाल नेहरू से लेकर वाजपेयी तक सबकी कोशिश यही रही है कि जाति-जनगणना के मुद्दे को टाला जाए।
जातीय जनगणना का विरोध करने वाला वही तबका है जिसने मंडल आयोग लागू होने पर देश में भूचाल ला दिया था। हालाकि ये लोग देश को आज तक नहीं बता पाए कि मंडल आयोग की संस्तुतिया दस फीसदी से भी कम क्यों लागू हैं और मंडल आयोग लागू होने के बाद भी केंद्रीय सेवाओं में पिछड़े वर्ग की भागीदारी केवल चार प्रतिशत क्यों हैं? कितना आश्चर्यजनक और हास्यास्पद है कि मंडल के आरक्षण का विरोध करने वाले राजनेता महिला आरक्षण के मुद्दे पर एकजुट नजर आए और उन्हें यहा पर योग्यता का हनन और जातिवाद का बढ़ावा जैसी बुराइया नहीं दिखीं। जो लोग इस जनगणना से जातिवाद बढ़ने की बात कर रहे हैं उनसे एक सवाल जरूर पूछना चाहूंगा कि जनगणना के फॉर्म में छोटा किसान और बड़ा किसान कॉलम हैं, उनसे तो किसानों के बीच कोई भेदभाव नहीं बढ़ रहा है, मजहब के सवाल पर कोई साप्रदायिकता नहीं बढ़ रही है, भाषा के सवाल पर भाषावाद नहीं बढ़ रहा है तो जाति पूछने पर जातिवाद कैसे बढ़ जाएगा? अमेरिका में लोगों को अपनी नस्ल बतानी होती है लेकिन उससे तो कभी नस्लवाद नहीं बढ़ा? सच्चर कमेटी ने मुसलमानों के बीच सर्वे करके उनकी सामाजिक, प्रशासनिक भागीदारी का पता लगाया उससे भी तो कोई साप्रदायिकता नहीं बढ़ी, फिर जनगणना के नाम पर ही कोई हौवा क्यों खड़ा किया जा रहा है? आज जिस तकनीकी समस्या का हवाला दिया जा रहा है कि जातियों के आकडे़ जुटाना संभव नहीं है, वह भारत के सूचना महाशक्ति होने के दावे पर स्वत: सवाल खड़ा कर रही है। जाति जनगणना के कुछ ऐसे फायदे हैं जिनकी ओर किसी की नजर नहीं जा रही हैं। दलित और पिछड़े वर्ग की कुछ जातिया खासी मलाईदार हो गई हैं। अब आवश्यकता है कि इन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर निकाला जाए। सामाजिक न्याय की संसदीय समिति ने अपनी सिफारिश में कहा है कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग वित्ता निगम को सुपात्र तक सहायता पहुंचाने के लिए पिछड़े वर्ग के सही आकड़े की आवश्यकता है। मद्रास हाईकोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया है कि सरकार जातियों की जनगणना कराए। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को कोई स्पष्ट निर्देश तो नहीं दिया लेकिन उसने यह रेखाकित जरूर किया है कि सरकार के पास ओबीसी के सही आकड़े होने चाहिए।
दिलचस्प बात यह है कि केंद्र सरकार के कई मंत्रालय भी सरकार से जातीय जनगणना कराने की माग कर रहे हैं। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय, योजना आयोग, जिसके अध्यक्ष स्वयं प्रधानमंत्री होते हैं, ने कई बार जातीय जनगणना की माग की है। केंद्र सरकार सर्वे के माध्यम से उनकी माग को घुमा-फिराकर पूरा भी करती रही है, लेकिन उसे जनगणना से डर लगता है। योजना एवं कार्यान्वयन मंत्रालय ने एक बार यहा तक कहा कि सर्वे द्वारा जुटाए गए आकड़े विश्वसनीय नहीं हैं, अत: जाति आधारित जनगणना कराई जानी चाहिए। सरकार अनुसूचित जाति-जनजाति की जाति आधारित जनगणना कराती भी रही है। उसे बस परहेज है तो उस जनगणना में ओबीसी और सवणरें के जोड़ने से।
यह भी भारत के इतिहास में शायद पहली बार हुआ कि सदन में आश्वासन देने के बावजूद प्रधानमंत्री ने जाति जनगणना का अपना वादा पूरा नहीं किया और इसे मंत्री समूह को सौंप दिया। प्रधानमंत्री जिस सोनिया-सिब्बल-चिदंबरम खेमे के दिशा-निर्देश पर काम करते हैं, वहां यह उम्मीद भी बेमानी है कि वह दलितों-पिछड़ों के हक में कोई सार्थक फैसला ले पाएंगे। शिकायत तो दलित-पिछड़े वर्ग के उन सासदों से है जो सरकार के इस फैसले पर मौनी बाबा बने बैठे हैं।
[जातीय जनगणना पर कौशलेंद्र प्रताप सिंह की टिप्पणी]

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