8 जुल॰ 2010


जाति ही पूछो
सतीश देशपांडे
Story Update : Thursday, July 08, 2010    12:03 AM
जनगणना २०११ नामक ऐतिहासिक और विशालकाय भारतीय आयोजन ने तब एक विडंबनापूर्ण मोड़ ले लिया, जब इसमें जाति को शामिल करने के फैसले ने विवाद का रूप ले लिया। यह बहुत स्वाभाविक लगता है कि जिन लोगों ने जातिवार जनगणना के लिए सरकार को राजी करने लायक दबाव बनाया, मीडिया उनकी जातिगत पहचान को रेखांकित करे- बार-बार ‘यादव-त्रयी’ का जिक्र होना जाहिर करता है कि यह निश्चित रूप से एक ‘जातिवादी’ आधार है। ऐसी स्वाभाविक चीज यह भी है कि जातिवार जनगणना का विरोध करने वाले कुछेक नेता तथा अनेक विद्वान ‘जात-पांत से ऊपर’ उठे हुए लोग हैं या वे जातिवाद-विरोधी पवित्र भावना से अपनी बातें कह रहे हैं। जब इतनी बातें साफ लगती हैं, तो हर सोचने-समझने वाले भारतीय को यह पूछना चाहिए-क्यों? यह कल्पना करना क्यों मुश्किल है कि जाति की गिनती से मना करना जातिवादी पूर्वाग्रह हो सकता है या जाति की गिनती सबके हित में हो सकती है?
इसका जवाब भारत के शहरी कुलीन जमात की मानसिकता की बनावट से है, जो आजादी के बाद तीसरी पीढ़ी में आ गया है, जो प्रधानतः ऊंची जाति का है, लेकिन सक्रिय जाति संबंधों की परस्परता से कट भी गया है। इस पीढ़ी के शिक्षित जमात के लिए, जो सिर्फ अंगरेजी अखबार पढ़ते हैं, जाति कहीं बहुत दूर की, अलग लोगों की चीज है। उन्हें लगता है कि यह बहुत पहले की, देहात की, कोटा के लिए निरंतर लड़ने वाली पिछड़ी जातियों की चीज है। वे जाति को अलग दुनिया की मानते हैं, क्योंकि वे जाति व्यवस्था में नहीं रहते। समकालीन भारत में ‘जाति समस्या’ का एक पक्ष यह भी है कि इसमें समाज के दो समूहों-हीन जाति और जातिहीन के बीच कोई वास्तविक संवाद होने की संभावना नहीं है।
जनगणना २०११ इस जकड़बंदी को तोड़ने और ऊंची जाति के लोगों को यह एहसास कराने का अमूल्य अवसर देती है कि जाति भले ही उनकी दुनिया में अदृश्य हो गई हो, लेकिन गायब नहीं हुई है और उनके भी जीवन का अभिन्न अंग है। इस अवसर का लाभ लेते हुए यह जरूर करना चाहिए कि सभी जातियों की गिनती हो। कुछ पक्षों द्वारा सिर्फ अन्य पिछड़ी जातियों-ओबीसी की गिनती (अनुसूचित जाति-जनजाति के अलावा) तो बहुत गलत संदेश देगी। इससे अगड़ी जातियों की इस धारणा की पुष्टि होगी कि जाति का मतलब सिर्फ पिछड़ी जाति है और इसका व्यावहारिक मतलब कोटा और आरक्षण होता है।
जनगणना का महत्व सिर्फ गिनती भर का नहीं होता- वह पहचान का ज्ञान भी देती है। सारी जातियों की गिनती हमें इस महत्वपूर्ण सामाजिक संस्था का नए सिरे से आभास कराने के साथ उनकी अच्छाइयों और बुराइयों का पता देगी। इन चीजों को बार-बार याद दिलाना जरूरी है, क्योंकि हम लिंग या नस्ल के मुद्दे को ‘औरत’ और ‘अश्वेत’ से जोड़ देते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि एक पक्ष की कमजोरी असल में दूसरे पक्ष की अपार ताकत को ही बताती है। जाति के संदर्भ में इसका मतलब है कि अगड़ी जातियों के लाभ की स्थिति असल में पिछड़ी जातियों की बदहाली का सुबूत है।
बाबा साहब अंबेडकर जिस ‘जाति नाश’ की बात करते हैं, उसमें जाति से ऊपर उठना, उसे जड़ से उखाड़ना और बेमानी बना देना शामिल था। यह चीज आजादी के बाद से जाति के मुद्दे पर अपनाई गई सरकारी नीति से ठीक उलट है, क्योंकि सरकारी नीति सार्वजनिक जीवन में जाति के उल्लेख भर से बचने की है। पिछले छह दशकों का अनुभव बताता है कि ‘जाति निरपेक्ष’ या जाति से आंख मूंदने वाली शासन व्यवस्था ऊंची जाति के कुलीनों को ‘राष्ट्रीय’ विकास के लाभ का ज्यादातर हिस्सा हड़प लेने का खुला न्योता देती है। जाति आधारित भेदभाव की मौजूदगी को दो कारणों से साफ-साफ बताना मुश्किल था- ऐसा करने पर आम आदमी पर जातिवादी होना का ठप्पा लगेगा और फिर जातिवार आंकड़े भी उपलब्ध नहीं हैं। जाति के सवाल पर पट्टी बांधे रखने की स्पष्ट और निरंतर विफलता देखने के बाद ही लोकतांत्रिक शासन की विडंबनापूर्ण सचाई का एहसास हुआ है कि अगर जाति को सचमुच समाप्त करना है, तो हमें इसका हिसाब रखना होगा। सिर्फ नजर हटाकर इसके गायब हो जाने की कामना करने से कुछ नहीं होगा।
जनगणना के माध्यम से जाति की निगरानी का काम काफी आसान हो गया है- अब तो कंप्यूटर और नई तकनीक ही काफी सारा काम पलक झपकते कर सकती है। इनसे विभिन्न नाम वाली जातियों और जाति समूहों का हिसाब रखना आसान होगा। स्थानीय जानकार लोगों की थोड़ी भी मदद से नामों और समूहों की पहचान आसान हो जाएगी। २००१ की जनगणना में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के मामलों में क्षेत्रीय नामों और जाति नामों के वर्गीकरण का काम हो चुका है, तो २०११ की जनगणना में सभी जातियों के मामले में ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता? जातिवार जनगणना के नैतिक निहितार्थ एकदम साफ हैं। जो लोग इसका प्रत्यक्ष लाभ लेकर आगे बढ़े हैं, सिर्फ उनके कहने भर से इसका अस्तित्व खत्म होने वाला नहीं है। जब इससे लाभ लेने वाले और इसका घाटा सहने वाले, दोनों इसको ठुकरा देंगे, तभी यह खत्म होगी।
जाति से सभी को रूबरू होने के लिए सरकार जनगणना, २०११ के जरिये दशकों से चल रहे भेदभाव और बंटवारे वाले नाटक को समाप्त कर सकती है। कबीर की प्रसिद्ध प्रेम गली के विपरीत जाति-उन्मूलन एक ऐसी अनोखी गली है ‘जामे दो ही समाए’- यहां से एक अकेला कभी नहीं गुजर सकता।
(साभार-अमर उजाला )
कम से कम चलिए किसी को तो अकल आयी की जाती की गिनती पर राजी हुए और वह लेख तक पहुँच रहे है . 

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