साभार बी बी सी से -
भाषा का ध्यान रखें श्रीमान!
विनोद वर्मा | मंगलवार, 20 जुलाई 2010, 13:01 IST
एक पुराना क़िस्सा है. अकबर और बीरबल का.
एक बहुत बड़ा विद्वान अकबर के दरबार में पहुँचा. उसे बहुत सी भाषाएँ आती थीं. उसने चुनौती रखी कि अकबर के दरबार में कोई बताए कि उसकी मातृभाषा क्या है. किसी को कुछ नहीं सूझा. बीरबल की बारी आई तो उन्होंने कहा कि वे अगली सुबह इसका जवाब देंगे.
ठिठुराने वाली ठंड की रात में बीरबल ने सोते हुए विद्वान पर ठंडा पानी फेंक दिया और वह विद्वान उठ कर अपनी मातृभाषा में गालियाँ बकने लगा.
अकबर को जवाब मिल गया था.
कहने का अर्थ यह कि खीझ और ग़ुस्से में, बेचारगी और लाचारगी में आदमी अपनी सारी विद्वत्ता भूल कर अपनी मातृभाषा बोलने लगता है.
अब कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह को ही लीजिए. वे बड़े ज़हीन से लगते हैं. लेकिन इन दिनों आम सभाओं में अपनी वल्दियत बताते फिर रहे हैं, "मैं बलभद्र सिंह की औलाद हूँ."
इतने पर ही चुप हो जाते तो क्या था. वे भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी से उनकी वल्दियत पूछ रहे हैं, "वो शिवाजी की औलाद हैं या महाराणा प्रताप की?"
ग़लती दिग्विजय सिंह अकेले की नहीं है. उनको ग़ुस्सा ख़ुद गडकरी जी ने दिलाया था. उन्होंने ही पहले पूछा था, "उन्हें बताना चाहिए कि वे शिवाजी और महाराणा प्रताप की औलाद हैं या फिर औरंगज़ेब की?"
अब यह पता नहीं चल रहा है कि गडकरी जी को ग़ुस्सा किसने दिलवाया और किस बात पर दिलवाया.
इससे पहले वे कांग्रेस से पूछ चुके हैं कि 'अफज़ल गुरू कांग्रेस का दामाद तो नहीं?' उससे और पहले वे लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव को अपने 'वाकचातुर्य' का निशाना बना चुके हैं.
उन्होंने दोनों नेताओं के बारे में टिप्पणी की थी, "वे पहले शेर बनते थे फिर वे सोनिया गांधी के तलवे चाटने लगे." उन्होंने शायद एकाध शब्द कुछ और कहा था.
मोहल्ले के नल पर होने वाली लड़ाइयाँ अक्सर इसी तरह के वाक-युद्ध तक पहुँच जाती हैं. सीमाएँ टूट जाती हैं.
लेकिन ये नितिन गडकरी जी को क्या हुआ?
इससे पहले ऐसे कुछ लक्षण नरेंद्र मोदी के भीतर दिखाई दिए थे जब वे सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर टिप्पणियाँ करते थे. लेकिन इन दिनों वे संयम के साथ बोलते हैं.
लालू प्रसाद यादव को लठ्ठमार भाषा का ज्ञाता कहा जाता है. उन्होंने अपने मुहावरे कुछ इस तरह से गढ़े कि भाषा के खुरदुरेपन की वजह से वे कम पढ़े लिखे मसखरे की तरह नज़र आते रहे. लेकिन उनकी ज़ुबान का इस तरह से फिसलना याद नहीं पड़ता. वे मज़ाक में कह सकते हैं, "हम बिहार की सड़कों को हेमामालिनी के गालों की तरह चिकना बनवा देंगे." लेकिन अपमानजनक टिप्पणियाँ करते उन्हें देखा नहीं.
भाषा के मामले में अपने तमाम खुरदुरेपन के बावजूद पहले पहलवान रहे मुलायम सिंह यादव भी संयत ही दिखे.
मुलायम सिंह के चेले रहे अमर सिंह भी अपनी टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने अपने बयानों में सड़क छाप शेरों का लाख उपयोग किया हो, भाषा को अपने क़ाबू में ही रखा.
कई लोगों को मायावती की भाषा गड़ती है. लेकिन वे भी अपनी बात 'माननीय' से ही शुरु करती हैं. ख़त्म चाहे जैसी होती हो. याद नहीं पड़ता कि मायावती ने बेहद नाराज़गी में भी अपना आपा खोकर कुछ ऐसा कहा हो, जिससे लगा हो कि यह मर्यादित नहीं.
निजी तौर पर, दोस्तों और अपनों के बीच नेता जिस भाषा में बात करते हैं उसे सार्वजनिक नहीं किया जा सकता. न लिखा जा सकता है और न मंच से दोहराया जा सकता है.
इसलिए नितिन गडकरी को निजी और सार्वजनिक का फ़र्क समझना होगा. उनका जवाब देते हुए दिग्विजय सिंह को भी संयम बरतना होगा.
लोकतंत्र में अपने नेताओं से गरिमा की उम्मीद करना आम जनता का हक़ है.
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