21 जुल॰ 2010

साभार बी बी सी से -

भाषा का ध्यान रखें श्रीमान!

विनोद वर्मा विनोद वर्मा | मंगलवार, 20 जुलाई 2010, 13:01 IST

एक पुराना क़िस्सा है. अकबर और बीरबल का.

एक बहुत बड़ा विद्वान अकबर के दरबार में पहुँचा. उसे बहुत सी भाषाएँ आती थीं. उसने चुनौती रखी कि अकबर के दरबार में कोई बताए कि उसकी मातृभाषा क्या है. किसी को कुछ नहीं सूझा. बीरबल की बारी आई तो उन्होंने कहा कि वे अगली सुबह इसका जवाब देंगे.

ठिठुराने वाली ठंड की रात में बीरबल ने सोते हुए विद्वान पर ठंडा पानी फेंक दिया और वह विद्वान उठ कर अपनी मातृभाषा में गालियाँ बकने लगा.

अकबर को जवाब मिल गया था.

कहने का अर्थ यह कि खीझ और ग़ुस्से में, बेचारगी और लाचारगी में आदमी अपनी सारी विद्वत्ता भूल कर अपनी मातृभाषा बोलने लगता है.

अब कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह को ही लीजिए. वे बड़े ज़हीन से लगते हैं. लेकिन इन दिनों आम सभाओं में अपनी वल्दियत बताते फिर रहे हैं, "मैं बलभद्र सिंह की औलाद हूँ."

इतने पर ही चुप हो जाते तो क्या था. वे भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी से उनकी वल्दियत पूछ रहे हैं, "वो शिवाजी की औलाद हैं या महाराणा प्रताप की?"

ग़लती दिग्विजय सिंह अकेले की नहीं है. उनको ग़ुस्सा ख़ुद गडकरी जी ने दिलाया था. उन्होंने ही पहले पूछा था, "उन्हें बताना चाहिए कि वे शिवाजी और महाराणा प्रताप की औलाद हैं या फिर औरंगज़ेब की?"

अब यह पता नहीं चल रहा है कि गडकरी जी को ग़ुस्सा किसने दिलवाया और किस बात पर दिलवाया.

इससे पहले वे कांग्रेस से पूछ चुके हैं कि 'अफज़ल गुरू कांग्रेस का दामाद तो नहीं?' उससे और पहले वे लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव को अपने 'वाकचातुर्य' का निशाना बना चुके हैं.

उन्होंने दोनों नेताओं के बारे में टिप्पणी की थी, "वे पहले शेर बनते थे फिर वे सोनिया गांधी के तलवे चाटने लगे." उन्होंने शायद एकाध शब्द कुछ और कहा था.

मोहल्ले के नल पर होने वाली लड़ाइयाँ अक्सर इसी तरह के वाक-युद्ध तक पहुँच जाती हैं. सीमाएँ टूट जाती हैं.

लेकिन ये नितिन गडकरी जी को क्या हुआ?

इससे पहले ऐसे कुछ लक्षण नरेंद्र मोदी के भीतर दिखाई दिए थे जब वे सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर टिप्पणियाँ करते थे. लेकिन इन दिनों वे संयम के साथ बोलते हैं.

लालू प्रसाद यादव को लठ्ठमार भाषा का ज्ञाता कहा जाता है. उन्होंने अपने मुहावरे कुछ इस तरह से गढ़े कि भाषा के खुरदुरेपन की वजह से वे कम पढ़े लिखे मसखरे की तरह नज़र आते रहे. लेकिन उनकी ज़ुबान का इस तरह से फिसलना याद नहीं पड़ता. वे मज़ाक में कह सकते हैं, "हम बिहार की सड़कों को हेमामालिनी के गालों की तरह चिकना बनवा देंगे." लेकिन अपमानजनक टिप्पणियाँ करते उन्हें देखा नहीं.

भाषा के मामले में अपने तमाम खुरदुरेपन के बावजूद पहले पहलवान रहे मुलायम सिंह यादव भी संयत ही दिखे.

मुलायम सिंह के चेले रहे अमर सिंह भी अपनी टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने अपने बयानों में सड़क छाप शेरों का लाख उपयोग किया हो, भाषा को अपने क़ाबू में ही रखा.

कई लोगों को मायावती की भाषा गड़ती है. लेकिन वे भी अपनी बात 'माननीय' से ही शुरु करती हैं. ख़त्म चाहे जैसी होती हो. याद नहीं पड़ता कि मायावती ने बेहद नाराज़गी में भी अपना आपा खोकर कुछ ऐसा कहा हो, जिससे लगा हो कि यह मर्यादित नहीं.

निजी तौर पर, दोस्तों और अपनों के बीच नेता जिस भाषा में बात करते हैं उसे सार्वजनिक नहीं किया जा सकता. न लिखा जा सकता है और न मंच से दोहराया जा सकता है.

इसलिए नितिन गडकरी को निजी और सार्वजनिक का फ़र्क समझना होगा. उनका जवाब देते हुए दिग्विजय सिंह को भी संयम बरतना होगा.

लोकतंत्र में अपने नेताओं से गरिमा की उम्मीद करना आम जनता का हक़ है.









    • टिप्पणियाँटिप्पणी लिखें

      • 1. 13:51 IST, 20 जुलाई 2010 Amit Kumar Jha, New Delhi:



        समझ में नहीं आता हमारे ये नेतागण इस तरह की असंयत और अभद्र शब्दावलियों, अपमानजनक व्यक्तिगत छींटाकशी द्वारा आम- जनता को आखिर क्या सन्देश देना चाहते हैं? होता तो यह है कि पेड़ जितना फलों से लदा हो, वो उतना ही झुक जाता है, अर्थात जो व्यक्ति जितनी ज्यादा उंचाई पर हो, उन्हें उतना ही विनम्र होना चाहिए. फिर इन कद्दावर नेताओं के बारे में क्या कहा जाए जो सार्वजनिक जीवन और जनमानस को प्रभावित करने की अत्यधिक क्षमता रखते हैं. इनका आचरण तो लोगों के लिए एक उदाहरण की तरह होना चाहिए.
      • 2. 14:05 IST, 20 जुलाई 2010 himmat singh bhati:



        यह सही है कि कुछ लोग गुस्से में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर देते हैं जब कि कुछ लोग सहन कर लेते हैं. अपने देश में नेताओं का कहना ही क्या! सत्ता के मद में चूर होकर अनाप-शनाप बकने से उन्हें कोई परहेज नहीं. लेकिन अब देश की जनता में पहले से काफ़ी अधिक जागरूकता आई है. चुनावों में उन्हें देर-सबेर अपनी गलतियों का खामियाज़ा भुगतना ही पड़ता है. विनोद जी, इस बार भी आपने पहले की तरह काफ़ी अच्छा लिखा है.
      • 3. 14:08 IST, 20 जुलाई 2010 Gaurav Shrivastava:



        काफ़ी अच्छा लिखा गया है. लेकिन देश की जनता ऐसे लोगों को चुनती ही क्यों है? दुख की बात है कि हमारा देश आज भी बॉलीवुड, क्रिकेट और टीवी चैनलों से संचालित हो रहा है. हमें इस बात पर गर्व है कि हमारी आर्थिक विकास दर बाकी कई देशों से अधिक है, लेकिन क्या हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं जिस तरह हमारे देश में ट्रैफिक के नियमों का पालन किया जाता है. हम सभी को अपने कर्तव्यों को लेकर और अधिक जागरूक बनने की जरूरत है.
      • 4. 14:42 IST, 20 जुलाई 2010 braj kishore singh:



        शब्दों द्वारा किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाना भी हिंसा है. इसलिए कुछ भी बोलने से पहले सौ दफा सोच लेना चाहिए. गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कहा है कि हे अर्जुन तुम्हारे द्वारा मैदान छोड़ कर भागने से समाज पर बुरा प्रभाव पड़ेगा क्योंकि समाज उच्च वर्ग का अनुकरण करता है. इसलिए कम-से-कम देश की दशा और दिशा का निर्धारण करने वालों को अपने समस्त कर्मों में शुद्धता रखनी चाहिए और इसमें भाषा भी शामिल है.
      • 5. 14:50 IST, 20 जुलाई 2010 YOGESH DUBEY,ANPARA:



        एक शानदार ब्लॉग लिखने के लिए विनोद जी आपका धन्यवाद. भगवान से मेरी प्रार्थना है कि वो देश के नेताओं को सदबुद्धि दे.
      • 6. 15:12 IST, 20 जुलाई 2010 Maneesh Kumar Sinha:



        लालू-राबड़ी के मुंह से मैं खुद कई बार जातीय विद्वेष की बात सुन चुका हूं. इस दंपत्ति ने पूर्व राज्यपाल सुंदर सिंह भंडारी की टांगें तोड़ने की बात की थी. माया और मुलायम भी अपनी असलियत समय-समय पर जाहिर करते रहे हैं. सोनिया जी भी एक राज्य के मुख्यमंत्री को मौत का सौदागर बता चुकी हैं. सो, कोई भी दूध का धुला नहीं है.
      • 7. 15:29 IST, 20 जुलाई 2010 SHABBIR KHANNA,RIYADH,SAUDIA ARABIA:



        काफ़ी शानदार ब्लॉग है. लेकिन बीबीसी से मेरा अनुरोध है कि इन पर अपना समय नष्ट मत करें. ये नेता मानवता की हदें पार कर चुके हैं. हमें इन पर अपना समय खराब नहीं करना चाहिए.
      • 8. 16:03 IST, 20 जुलाई 2010 गौरव:



        राजनीतिक अदावत और अभद्र भाषा कोई नई चीज़ नहीं है लेकिन जिस तरह से नितिन गडकरी ने अपना परिचय कराया है उससे काफ़ी अफ़सोस होता है. वैसे तो ऐसी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं जिसके नेता ने अभद्र भाषा का प्रयोग नहीं किया, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और मायावती को इससे अलग करने से पहले मैं विनोद जी से निवेदन करना चाहूंगा कि अपने शोध को और पुख़्ता करें.
      • 9. 16:03 IST, 20 जुलाई 2010 Intezar Hussain:



        विनोद जी, आपने हमारे सभ्य नेताओं का कच्चा-चिठ्ठा खोलकर रख दिया है. अपने जनप्रतिनिधियों के व्यवहार और आचरण को देखकर बड़ा दुख होता है.
      • 10. 17:37 IST, 20 जुलाई 2010 Amit Prabhakar:



        इसमें कुछ बुरा नहीं कि सस्ते रास्ते अपनाए जाते हैं, बुरा ये है कि रास्ते की कीमत को दूसरों की भावनाओं और अस्तित्व से आंका जाता है. बस थोड़ा संयम की भावना हो तो नमस्कार, ओंकार और हुंकार का ध्यान रखना मुश्किल नहीं. (ओह! फणीश्वरनाथ 'रेणु' की याद आ गई).
      • 11. 20:01 IST, 20 जुलाई 2010 amit:



        हर कोई एक दूसरे पर दोष मढ़ रहा है. कोई भी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है. हमारे नेतागण निराश हो चुके हैं. जब वे खुद को वश में कर पाते तो देश का क्या हाल करेंगे? हमारी ही गलती ही है कि हम उन्हें चुनकर भेजते हैं.
      • 12. 22:47 IST, 20 जुलाई 2010 himmat singh bhati:



        विनोद जी, भारतीय नेताओं को जनता की समस्याओं की परवाह नहीं है. वे जनता को केवल बरगला रहे हैं. आज जो नेता कर रहे हैं जनता भी उनका अनुसरण कर रही है. लोग ठगी पर उतर रहे हैं. ऐसे लोगों को न्याय का डर भी नहीं है. जो सताए जा रहे हैं उन्हें न्याय भी नहीं मिल रहा है. न्याय की खामियाँ और उसका लचीलापन साधारण लोगों को निगल रहा है. शराब तस्कर हों या भूमि माफिया सबके तार नेताओं से जुड़े हुए हैं. यह भारत का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है.एक बार चुनाव जीतकर नेता जनता का ख्याल नहीं रखते हैं. वे केवल अपनी कमाई की योजना बनाते हैं और कमाई करते हैं. जब बदलते दौर में हर जगह बदलाव हो रहा है तो यहाँ बदलाव करे भी तो कौन. 
      • 13. 22:50 IST, 20 जुलाई 2010 SHABBIR KHANNA,RIYADH,SAUDIA ARABIA:



        विनोद जी, आपने लोकसभा या राज्यसभा या विधानसभा में होने वाले कुर्सी, जूतों और गाली-गलौच का जिक्र नहीं किया, आज जो बिहार में हुआ वह क्या है. लगता है कि बीबीसी इन नेताओं पर पीएचडी कर रही है लेकिन ये नेता ऐसे नहीं हैं जिनपर पीएचडी की जाए.
      • 14. 02:01 IST, 21 जुलाई 2010 Dr.Lal Ratnakar:



        विनोद जी का ब्लॉग हो तो उसके माने कुछ अलग होने ही हैं. अरे भाई गडकरी साहब ट्रेनिंग ले रहे हैं, ट्रेनिंग में कुछ सुधार कि संभावनाओं को दरकिनार मत करिए, लालू जी ,पहलवान और सड़क छाप नेताओं में कहाँ गडकरी को आप देखने का प्रयास कर रहे हैं. गडकरी साहब अंग्रेजों जैसी हिंदी बोलते हैं जैसे बनारस में 'वा' हर शब्द के साथ लगाना ही पड़ता है जैसे 'सर' को "सरवा" और पान को "पनवा", वैसे ही उनका परिवेश जैसा वो बोलते है वहाँ 'आम आदमी को केवल श्रोता या मतदाता ही समझा जाता है, अच्छा किया आपने श्रीमानों को उनकी भाषा का एहसास करा दिया.
      • 15. 15:09 IST, 21 जुलाई 2010 himmat singh bhati:



        विनोद जी, देखा जाए तो आज भारत की राजनीति में बाहुबली और घटिया लोग आ गए हैं. राजनीतिक लोग इस तरह का घटियापन लिए हुए हैं. ऐसे लोग घटिया भाषा का इस्तेमाल कर लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं. यह आज की राजनीति का चलन बन गया है. देखा जाए तो ये घटिया बोल तो बोल रहे हैं फिर भी वे आपस में लड़ाई-झगड़ा नहीं करते हैं जबकि साधारण लोग ऐसा करते हैं तो लड़ाई-झगड़ा हो जाता है. लेकिन मौक़ा मिलने पर नेता एक साथ खाते-पीते हैं. इसे आज की राजनीति का चलन कहना ठीक होगा.

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