25 अग॰ 2010



(दरअसल सही बात कहने में हिन्दुस्तानी का कलेजा बाहर आ जाता है इसलिए नहीं की उसे सही गलत का एहसास नहीं है पर वह आकंठ जाति धर्म और परिवार में उलझा है की उसे दूसरे का अच्छा अच्छा ही नज़र नहीं आता, अपना अपराधी दुराचारी भ्रष्ट उन्हें अच्छा लगता है, मार्क तुली के इस लेख में वही चीजें उल्लिखित है -अमर उजाला से साभार)
डॉ.लाल रत्नाकर 

उम्मीद के दो दशक
मार्क टुली                            
Update : Monday, August 02, 2010    12:35 AM
बीस-पच्चीस साल पहले तक पश्चिम के अर्थशास्त्री भारत के विकास को हिंदू ग्रोथ रेट जैसे जुमलों से नवाजते थे और उसे कमतर करके आंकते थे। देश अनेक समस्याओं से जूझ रहा था, आधारभूत संरचना की कमी थी। गरीबी एक बड़ी समस्या थी। बिजली की आज भी तंगी है, लेकिन तब स्थिति और खराब थी। कुल मिलाकर देखें, तो लोगों को उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आ रही थी। औद्योगिक रूप से भी यह देश पिछड़ा हुआ था। मगर, दो दशक पहले आर्थिक नीतियों में बदलाव की वजह से न केवल पश्चिमी देशों का भारत के प्रति नजरिया बदला है, बल्कि भारत का आत्मविश्वास भी बढ़ा है। आर्थिक विकास दर आठ-नौ फीसदी हो चुकी है और अब कोई हिंदू ग्रोथ रेट की बात नहीं करता।

भारत के औद्योगिक विकास को अब देखा जा सकता है। यहां का उद्योग विश्व स्तरीय हो चुका है। आईटी के क्षेत्र में तो यह दुनिया का एक बड़ा केंद्र ही बन गया है। दूसरे देशों के लोग भी यह मानने लगे हैं कि भारत भविष्य में एक बड़ी ताकत बनकर उभरेगा। जबकि पहले उन्हें ही नहीं, भारत के अपने लोगों को भी निराशा होती थी। इस बदलाव से भारत की उस छवि पर भी असर पड़ा है, जिसे अमूमन समाजवादी ढांचे के तौर पर देखा जाता था। बैंकों का राष्ट्रीयकरण, केंद्रीय योजनाओं का निर्माण और लाइसेंस परमिट राज, ये सब इसी समाजवादी सोच का नतीजा थे। मगर अब राष्ट्रीयकरण कम हो रहा है, योजनाओं में केंद्र का दखल भी कम हो गया है। लेकिन मेरा मानना है कि भारत में सोशलिज्म का एक मतलब है, क्योंकि आज जो पूंजी देश में आ रही है, उसका लाभ समाज के वंचित तबकों तक ठीक से नहीं पहुंच रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इनक्लूसिव ग्रोथ की बात कर रहे हैं, वहीं सोनिया गांधी की राय है कि हमें आम आदमी के बारे में सोचना चाहिए। इसके बावजूद भारत को लेकर मेरे मन में आशंका है कि वह पूंजीवाद की तरफ बढ़ रहा है।


जहां तक मेरी समझ है, भारत की संस्कृति मध्य मार्ग पर चलने की रही है। यह बीच का रास्ता ही भारत को आगे ले जा सकता है। इस रास्ते से विकास को गरीबों तक ले जाया जा सकता है। हम देख सकते हैं कि पूंजीवादी नीतियों के साथ ही देश में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) भी चल रही है। मनरेगा के साथ ही प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम और शिक्षा के अधिकार से संबंधित कानून बता रहे हैं कि भारत ने पूरी तरह से पूंजीवाद को नहीं अपनाया है और सरकार के लिए अब भी सामाजिक सरोकार कहीं न कहीं मायने रखते हैं।मुश्किल यह है कि आप कानून तो बना सकते हैं, लेकिन उस पर ठीक से अमल करना आज भी चुनौती है। अरुणा राय और ज्यां द्रेज जैसे लोग, जिनकी वजह से मनरेगा अस्तित्व में आया, मानते हैं कि इसमें खूब भ्रष्टाचार है। यदि इतनी महत्वपूर्ण योजना में भ्रष्टाचार है, तो यह सरकार की नाकामी है।
उदारीकरण के दो दशकों में हम देख सकते हैं कि सरकार की भूमिका कम हुई है, नतीजतन सरकारी स्कूलों और सरकारी अस्पतालों की हालत बदतर होती जा रही है। निजी स्कूल और निजी अस्पताल महंगे हैं। ये केवल गरीब ही नहीं, बल्कि मध्य वर्ग की पहुंच से भी दूर हो रहे हैं। ऐसा तरीका ढूंढा जाना चाहिए, ताकि निजी क्षेत्र भी गरीबों के प्रति जवाबदेह बन सके। इससे निजी और सरकारी क्षेत्र में प्रतिस्पर्द्धा बढ़ेगी और इसका लाभ सभी को होगा। नंदन नीलेकणी ने अपनी किताब इमेजनिंग इंडिया में एक अच्छा सुझाव दिया है कि गरीबों को सबसिडी के तौर पर सीधे धन देने के बजाय वाउचर दिए जाएं, जिसे वे उस स्कूल में जमा करा सकें, जहां वे अपने बच्चों को दाखिला दिलाना चाहते हैं। नतीजतन निजी और सरकारी स्कूलों के बीच प्रतिस्पर्द्धा बढ़ेगी। इसे स्वास्थ्य सेवा के मामले में भी लागू किया जा सकता है। सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों को तय वेतन देने के बजाय वाउचर के आधार पर भुगतान किया जाए। यानी जो डॉक्टर जितने मरीजों का इलाज करेगा, उसे उसी आधार पर वाउचर मिलेंगे और फिर वह इसे जमा कर नकद हासिल कर सकेगा। इस तरह मनमानी को रोका जा सकता है। ग्रामीण इलाकों में भी ऐसे ही शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में सुधार लाया जा सकता है।

उदारीकरण और नई आर्थिक नीतियों के समुचित नतीजे नहीं निकले हैं, तो उसके पीछे सरकारी तंत्र की अपनी कमजोरियां भी हैं। सरकारी कामकाज में पारदर्शिता की कमी है। राशन कार्ड से लेकर लाइसेंस बनवाने तक लोगों को सरकारी बाबुओं के चक्कर लगाने पड़ते हैं और दलालों को पैसा देना पड़ता है। पुलिस का हाल अंगरेजी राज से भी बुरा है। यदि सरकारी प्रणाली में सुधार हो जाता है, तब अगले दो दशकों में भारत की स्थिति बहुत बेहतर हो सकती है। पर अगर सरकारी ढर्रा नहीं बदला, तो बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती। जाहिर है, सरकारी कामकाज और प्रशासन में सुधार लाना ही अभी सबसे बड़ी चुनौती है। इसके लिए केंद्र सरकार को जवाबदेह बनना होगा।

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