9 नव॰ 2010


सवर्ण


चित्र - कु.अंजू चौधरी 
डॉ.लाल रत्नाकर 
कहते है वर्ण व्यवस्था से 
समाज बनता है .
और समाज में वर्ण व्यवस्था 
आदमी और आदमी में 
फरक पैदा करती है.
सवर्ण और अवर्ण 
का अंतर कैसे तय होता है 
यह कठिन सवाल कैसे 
हल होगा.
मामला 'वर्ण' का है जिसमे 
'स' और 'अ' वर्ण का 
अर्थ बदल देता है ,
पर जब स्कूल में 
अ से अच्छा और स से सडियल 
का बोध कराया जाता है 
क्या यह भी जान बूझ कर 
पढाया जाता है .
वर्ण के माने भिन्न -भिन्न 
कैसे , रंग के वर्ण 
विविध वरनी एक तस्वीर 
सवर्ण है या अवर्ण है 
पता लगाने वाले पता 
लगा लेते है 
क्योंकि उन्हें पता है 
की किस वर्ण का क्या काम 
यदि पनिहारिन है 
तो वर्णक्रम में अवर्ण है 
यदि 'श्रृंगार रत' है तो सवर्ण है 
यदि वस्त्र नहीं है तो अवर्ण है 
और कपडे उतारकर निर्वस्त्र है 
तो सवर्ण है .
उदाहरन के लिए शास्त्रों में 
'द्रौपदी जो है'

चित्र-डॉ.लाल रत्नाकर 
इस कविता को लिखते हुए मै सोच रहा था कविता लिखने के जितने नियम सिद्धांत है सब कहीं न कहीं कविता के उस रूप (भेद भाव परक) को ही मजबूत करते है, यथार्थ परक और कल्पित कविता के हिस्से की जीतनी जिम्मेदारी हमारे समक्ष है उतनी ही समाज सुधार के प्रति उसकी जिम्मेदारी होनी चहिये (भक्ति से सम्बंधित जितने भी गीत रचे गए है) उनमें जो गुणगान है या याचना है, वह कहीं न कहीं 'ईश्वरत्व' की संरचना करती है पर समाज के सन्दर्भ में वह स्वयंम एक बड़ा विभेद उत्पन्न करती है, अछूत की अवधारणा जहाँ सौंदर्य के तमाम पर्याय को निगलता है वहीँ एक नया भेदभाव भी पैदा करता है, अतः 'अछूत' शब्द कितना बड़ा अभिशाप है सामजिक उन्नयन में, इस शब्द के मायने और चलन दोनों ही हमारे समाज के विखंडन को निरंतर बढ़ाये जा रहे है 'UNTACHABILITY' एक लघु फिल्म है जिसे देखकर भारत में अछूत को समझा जा सकता है - India Untouched (a film must see) अब यहाँ शब्दों और कविता के मायने समाजोन्मुखी है या समजविनासी ?
अब हम जिस देश के विकास की योजनायें बनाते है वहां विनाश की लीलाएं लिख लिख कर उतना ही गर्त में भी डालने दिया जाता है ऐसे ही लेखकों और कबियों से -
यथा -
सामाजिक बराबरी का ढिंढोरा और जातीय संरचना की विकरालता देखें, इनमें-समाचार पत्रों, न्यायालयों ( नीचे से सर्वोच्च तक) शिक्षण संस्थाओं, (प्राथमिक से विश्वविद्यालय तक) लोक सेवाएं, धार्मिक संस्थाएं,व्यापर, उद्योग तक सबका सम्बन्ध इन कवितायों के इर्द गिर्द घूम रहा है.
यही वजह रही होगी जिसकी वजह से अछूतों या शूद्रों को जब 'वेद' सुन लेने मात्र पर उनके उन कानों में शीशा पिघलाकर डालने की बात की गयी होगी, उस कविता कोष में भी अछूत या शूद्र विरोधी आख्यान ही लिखा जा रहा था' शायद .
जिस समाज की संरचना इस तरह के इंतजामों के तहत की गयी हो उस समाज में भाईचारा का नाम बेमानी है, यथा कविता क्या एक हथियार है सुमधुर शब्दों में संहार का या कविता मंत्र है दकियानुष तंत्र का. दकियानुस तंत्र से तात्पर्य उस समाज की संरचना से जिसमे उसके अपने दुराचारी, दुराग्रही, लम्पट, अकुशल, भ्रष्ट भरे हों .
क्रमशः 

      

आदमी या भेड़िया.  
डॉ.लाल रत्नाकर                                   
हमारा हक़ तुम्हारे हाथों में
जिसने भी दिया होगा ,
उसका मन तुम्हारे प्रति                    
नरम और मेरे प्रति गरम होगा.

सलामती तो इतनी है
कि इश्वर ने तुम्हे कम और
हमें हुनर देते वक्त
यह इंतजामात तो नहीं किया होगा.

जो भी हो तुम्हारी मुस्कान
के पीछे जो रूप नज़र आ
रहा है वह स्वाभाविक तो नहीं
है कुटिलता का जिसे तुमने .

पता नहीं कहाँ से सीखा
होगा अपनी जाति से कुल से
या खुद बनाया है
अपना कवच जिससे भेड़िये सा .

स्वरुप नज़र न आये
कि तुमने कितने हमले / या
कोशिशें कि है बस्तियों से
होनहारों कि हत्या की या.

तुम्हारा रूप और उसके
पीछे छुपा हुआ तुम्हारा आकार
कितने समझ पाए है
की जब तुम इन पर अपनी .

भूखी नज़र या भेड़िये
की आदत के खिलाफ बिना डरे
मानवता से खूंखार
हमला करते हो क्या लगता है.

आखिर जिनका हक़
तुम्हे दिया गया है वो इतने
ना समझ तो नहीं है
की तुम्हारी हरकतों से .

वाकिफ न हों और
तुम्हारे भेड़िये नुमा करतब
से खुश हो लेने वाले
तुम्हे आदमी समझ लें .
                                                                
यही हाल सदियों से
तुम्हारा रहा है इलज़ाम
जिनको लगा क्या
यही भेड़िये वाला करतब .

तुम्हारा रहा है, पता है
यह सच पचाने की तुम्हारी
अंतड़िया सदियों से
तुम्हे जो आदत दी है वही.

आदमी के रूप में तुम्हे
भेड़िया बना दी है पर तुम हो
की आदमी की तरह नहीं
जब ही ही ही करते हो तब.

आदमी नहीं भेड़िया
नज़र आते हो, उसे छुपाने के लिए
आदमी जैसा रूप और
स्वांग रचाते क्यों हो ?                                                                          
  

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