4 नव॰ 2010

लगता है ठीक होने वाले है 
समाजवादी पार्टी के दिन  .
प्रोफ.राम गोपाल का फैसला पार्टी हित में -
डॉ.लाल रत्नाकर 
बी बी सी हिंदी ने अपने साईट पर यह खबर दी है जिसका मायने है इस पार्टी की स्पीड की सुईयां ठीक दिशा में चल पड़ी है, अमर की बेबसी और जातीय दकियानूसी ने समाजवादी पार्टी की गति को जिस तरह पीछे धकेला है, उसके खिलाफ हमेशा प्रोफ. राम गोपाल आवाज़ उठाते रहे थे,परन्तु पार्टी के भीतर अमर के विनाशकारी एजेंट और भतीजे कभी उनकी आवाज़ को उभरने नहीं दिये. लोगों को याद है की अमर की बिदाई की जोर सोर से चर्चा तब भी ''आवाज़'' ने उठाई ही नहीं बल्कि यह भी कहा था की पार्टी बचानी है तो अमर सिंह को बाहर भेजना होगा और अंततः प्रोफ.यादव ने इस काम को मज़बूती से अंजाम दिया और अमर सिंह को बाहर ही होना पड़ा.
आज इस खबर से एक संभावना बनी है     
(खबर बी बी सी से साभार-
आज़म ख़ान का निष्कासन रद्द
रामदत्त त्रिपाठी
बीबीसी संवाददाता, उत्तर प्रदेश
एक ज़माने में आज़म ख़ान मुलायम सिंह यादव के क़रीबी माने जाते थे.
समाजवादी पार्टी ने बुधवार को अपने बाग़ी नेता मोहम्मद आज़म ख़ान का निष्कासन रद्द कर दिया है. लेकिन मोहम्मद आज़म ख़ान ने सोच समझकर बाद में फैसला लेने की बात कही है.
पार्टी के माहसचिव राम गोपाल यादव ने एक दिल्ली से एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करके मोहम्मद आज़म ख़ान से पहले की तरह पार्टी को मज़बूत करने की बात कही है.
मोहम्मद आज़म ख़ान को पिछले लोक सभा चुनाव के दौरान मई 2007 में छह साल के लिए समाजवादी पार्टी से निष्कासित किया गया था.
आज़म ख़ान ने अपने गृह नगर रामपुर से पार्टी की प्रत्याशी जयाप्रदा का खुलकर विरोध किया था. उन्होंने लोक सभा चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से तालमेल का भी विरोध किया था.
उस समय पार्टी में अमर सिंह की तूती बोलती थी और आज़म ख़ान की अमर सिंह से भी अनबन हो गई थी.
उस समय कुल मिलाकर ऐसी स्थिति बन गई कि पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को आज़म ख़ान को छह साल के लिए पार्टी से निकालना पड़ा था.
कल्याण सिंह का साथ और आज़म ख़ान का निष्कासन दो ऐसे कारण थे, जिससे मुस्लिम समुदाय में समाजवादी पार्टी की लोकप्रियता घटी. माना जाता है कि इसीलिए लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को काफ़ी झटका लगा.
जनाधार में सेंध
आज़म ख़ान ने अभी वापस लौटने के बारे में अंतिम फ़ैसला नहीं किया है.
बाद में अमर सिंह, जयाप्रदा और कल्याण सिंह भी मुलायम सिंह का साथ छोड़ गए.
कहा जा रहा है कि मुस्लिम समुदाय में खोया जनाधार वापस हासिल करने के लिए मुलायम ने आज़म ख़ान को वापस लाने का मन बनाया.
इसका रास्ता बनाने के लिए मुलायम सिंह यादव ने कल्याण का साथ लेने के लिए मुसलामानों से माफ़ी मांगी.
हाल ही में कुछ पत्रकारों से बातचीत में मुलायम सिंह यादव ने माना कि कुछ लोगों के दबाव में आज़म ख़ान को पार्टी से निकालना एक गलत निर्णय था , जिसका उन्हें अफ़सोस है.
मुलायम सिंह ने यह भी कहा कि आज़म ख़ान समाजवादी पार्टी के संस्थापकों में से हैं, और उन्हें पार्टी में वापस आ जाना चाहिए.
आज़म ख़ान का विरोध
आज़म ख़ान अलीगढ़ विश्वविद्यालय छात्रसंघ के नेता और बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति के संयोजक रह चुके हैं और मुस्लिम समुदाय में उनकी पैठ मानी जाती थी. इसलिए समाजवादी पार्टी में उनका दबदबा होता था.
लेकिन अंदर ही अंदर समाजवादी पार्टी के कई मुस्लिम नेता आज़म ख़ान की पार्टी में वापसी का विरोध कर रहे थे.
इन मुस्लिम नेताओं को आज़म ख़ान के व्यवहार से शिकायत रहती थी.
लेकिन समझा जाता है कि मुलायम सिंह यादव ने डेढ़ साल बाद उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव को देखते हुए आज़म को पार्टी में वापस लाना ज़रूरी समझा.
मगर आज़म ख़ान ने कहा है कि उन्होंने अपनी मश्वराती कमेटी के पांच सदस्यों की एक समिति बनाई है जो दस दिनों में रिपोर्ट देगी. यह समिति मुस्लिम समुदाय की समस्याओं पर एक चार्टर या घोषणा पत्र बना रही है.
आज़म ख़ान का कहना है कि इस चार्टर के आधार पर बातचीत के बाद ही वह समाजवादी पार्टी में वापसी का निर्णय करेंगे.
)
पर यह संभावना तभी पूरी होगी जब समाजवादी पार्टी में प्रोफ.यादव को बचे हुए गैर राजनितिक पारिवारिक सदस्यों को और काम में लगाना होगा बहुत साफ है की आज उत्तर प्रदेश मा.नेता जी की ओर देख रहा है पर श्री शिवपाल यादव जी को देखकर जनता फिर नक् भौ सिकोड़ लेती है, सो इन्हें भी किनारे करना होगा, यह महत्व पूर्ण फैसला यदि समजवादी पार्टी ले सकी तो जनता निष्क्रिय पर नेताजी के बेटे के नेतृत्व को भी बर्दास्त कर लेगी. लेकिन भाई शिवपाल का रचना प्रकृति ने राजनीति के लिए नहीं की है, तो उन्हें राजनीति नहीं करनी चहिये, यह बात मै साधिकार इसलिए लिख रहा हूँ की आज हमारे समाज से दलित सवाल कर रहा है की पिछड़े वर्ग के पास कौन से आइकोन है जिनके आधार पर वह उनका साथ दे. आज पिछड़ी अनेक जातियां जिन्होंने सदियों की लडाई लड़ी है, उन्हें भाई शिवपाल में नहीं, प्रोफ.रामगोपाल में संभावनाएं नज़र आती है, इन्ही का वरन नेताजी ने भी भविष्य की राजनीति के लिए किये भी थे. समझ की बागडोर से नेत्रित्व नियंत्रित करता है नासमझी और उसका दौर बहुत दूर तक नहीं ले जाया करता  है .
मुझे याद है राजनीति के काम में नेताजी ने हमेशा एक चरित्र बनाये रखने की बात करते रहे है, यदि किसी राजनेता में इस तरह के लक्षण दिखाई देते थे तो वे इशारे से कहा करते थे, अपराधिक चरित्र के लोगों से वे बहुत सावधान रखते थे उनके पास भी न जाने की राय देते रहते थे, और उसी व्यक्ति को मिडिया ने किस छवि का आदमी बना दिया, यही नहीं अमर जैसे लोगों ने क्या से क्या नहीं बना दिया कितने आरोप और प्रत्यारोप एक समाजवादी वाहक को घेरकर उसके मार्ग से हटाने का जितना घिनौना काम अमर ने किया कही न कहीं परिवार के उन लोगों ने नेताजी के कद को 'घर' का कद बना के रख दिया. मुझे याद है और पुराने लोग यह बात और अच्छी तरह से जानते है की नेताजी का शौक लोगों को सुविधाएँ उनकी हिफाज़त और जनता के विश्वास जितना था सत्तर के दशक के मुलायम सिंह बाबरी ध्वंस तक के मुलायम सिंह को कैसे कल्याण के करीब लाया गया यह आसान काम है, इतनी बड़ी राजनैतिक साजिश के शिकार नेताजी कैसे हुए यह सोचकर पसीना आ जाता है. कल्याण सिंह के अपने करम थे की उन्हें जनसंघ रास आयी और उसका खामियाजा उन्होंने भोगा. पर नेताजी की हिम्मत को हिलाना इतना आसान नहीं होता था किसने कमजोर किया भाई शिवपाल जी जरा याद करिए निठारी और आपके अधिकारी आपका बयान किसी के जले पर 'नमक और मिर्च' डालने का वह कौन सा मौका था क्या आपको पता है की उन दिनों 'नॉएडा' और ग्रेटर नॉएडा' का मालिक कौन था, अम्बानी का दोस्त और पिछड़ों का दुश्मन.
भारतीय  राजनीति की मुश्किल से ही हमेशा पिछड़ा नेतृत्व मार ही नहीं सर्वाधिक नुकसान उठाया है लोग सही कहते है की पिछड़ों का आचरण मौका मिलते ही राजपूतों जैसा हो जाता है और यही कारण है की घटिया किस्म के राजपूत (दलालों) को ये बहुत खटकते है, नेताजी के साथ अच्छे राजपूत रहे है उन्हें आज भी लोग इज्जत की नज़र से देखते है उनका नाम लिखने की जरूरत नहीं है अमर जो मंडली लेकर आये थे माना की उसमे नाना प्रकार के लोग थे पर नेताजी के काम का कोई नहीं था. हा एक दौर था जब नेताजी के करीब अच्छे लोग आने शुरू हुए थे यथा राजबब्बर, ईश्वरी प्रसाद जैसे अपने विधा के जाने माने संस्कारित संस्क्रित्कर्मी और बुद्धिजीवी पर अमर का आना और बाकी सबका जाना.
चलिए प्रोफ.साहब ने एक बीड़ा उठाया है पार्टी के रहनुमाओं की वापसी का तो मेरा मानना है कुछ को जाने नहीं तो निष्क्रिय हो जाने की राय तो उन्हें दे ही देनी चहिये मैंने दो अवसरों पर भाई शिवपाल को सुना और देखा है एक बार तत्कालीन मुख्यमंत्री आवास जब नेताजी मुख्यमंत्री थे कालिदास मार्ग वाले घर के अन्दर जब चुन चुनकर इटावा वालों से मिल रहे थे और मै बड़े तिकड़म से उनके बगल में बिना उनका 'चरण स्पर्श' किये प्रणाम करके पर मेरे अभिवादन को उन्होंने अच्छा नहीं माना था उन्हें जो भी रहा हो पर मै  उनका 'चरण स्पर्श' करूं यह संभव नहीं था हाँ यदि मै 'पंडित' होता तो उस मौके का भरपूर लाभ उठाता, दूसरिबार मेरठ के सपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में जब उनको 'बाबू राम शरण के बाद (मृत्युपरांत) उत्तर प्रदेश का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया था, जब वह बोल रहे थे तो सुनकर ही नहीं उनके हावभाव देखकर शर्म आ रही थी हमें ही नहीं हमारे साथ जो भी थे सबको.
विचारणीय सवाल-
अतः अब समाजवादी आन्दोलन नहीं अफरातफरी का दल है कभी कोई आता है कोई जाता है, अमर सिंह जी किसी मलयालम फिल्म में नाटक करने जा रहे है और उत्तर प्रदेश में 'पूर्वांचल' बनाने का आन्दोलन भी. यह भी कहा जाता है की उनकी तबियत ठीक नहीं रहती है.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में पूर्वांचल को हिकारत की नज़र से देखा जाता है, राजनेता की शकल में कोई गुंडा लम्पट या अपराधी की सूरत दिखाई देती है, ऐसा नहीं है की वहां चरित्रवान राजनेताओं का टोटा पड़ गया है ऐसा नहीं है यह सब जानबूझ कर किया जा रहा है और तब तक किया जाता रहेगा जब तक स्थानीय स्तर पर इसका विरोध नहीं किया जाता , क्योंकि किसी भी जाती का नेता हो समग्रता में राजनितिक हो धन बल बाहु बल या निरंकुशता नहीं, अतः भ्रष्टाचार की इस कड़ी का आधार प्रबुद्धता पर जाता है, जब इस तरह के बिकास की धारा को प्रबुद्धजन चुपचाप स्वीकृति देते है तो बौद्धिकता ही शर्मसार होती है.   
अमर सिंह की रूचि कभी भी राजनीति में नहीं हो सकती उनकी रूचि राजनीति को सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल करने की ही रही है , इनको नेता मानने वाले बहुत ही बेवकूफ किस्म के हो सकते है, मैंने तो आज तक इन्होने जीतनी बातें मिडिया के माध्यम से कहीं है उनमे 'आत्म' मुग्धता के अतिरिक्त 'विचार' की कोई रूपरेखा ही नहीं देखा.
आज पुनः भारतीय राजनीति का दौर नव प्रयोगों में उलझाकर जनता का ध्यान मूल समस्यायों से भटकाने में लगा हुआ है क्योंकि भारत मूलतः जिस सोच और समझ से आगे बढ़ सकता है हमेशा उसे दरकिनार करके एक दोहरे मायने और निरर्थक प्रलाप ही यहाँ का राजनेता और नौकरशाह कराता रहता है. 
जिस मनमोहन जी को लोग जमीं से जुड़ा हुआ व्यक्ति नहीं मानते उन्हें एक कुशल नौकरशाह तो कहा जा सकता है, विपरीत स्थितिओं में कार्य योजनाओं का क्रियान्वन तो उनसे कराया जा सकता है. यह देश वैचारिक मूल्यों पर तयशुदा आदर्श को समझ करके नीति बनाने वाला देश है , वैचारिक स्तर पर बहुत सारे सवाल अभी भी अनुतारित्त है पर हजारो सवाल इस देश में और खड़े हो गए है.
इन सवालों में भ्रष्टाचार का सवाल जितना विशाल है उसकी शक्ल 'राष्ट्रमंडल खेलों में' दैत्याकार हो गयी थी उन्ही दैत्यों के विशालतम स्वरुप के आगे भारत के जिवंत खिलाडियों ने अपने कौशल से देश का नाम रोशन किया पर यह तो सच है की भारत से भ्रष्टाचार मिट जाये तो पूरी दुनिया में इसका कोई भी बराबरी ही नहीं कर सकता, इसका मायने पता नहीं इस अवाम की जनता क्यों भुलाती जा रही है.
और यही कारण है की अमर सिंह नुमा नेता आते है भ्रष्टाचार करते है उद्योगपति हो पूंजीपति हो या बहूपती हो सबके मायने ही भ्रष्टाचार है, सबसे अधिक भ्रष्टाचार उत्तर प्रदेश में है, आर्थिक नगरियों की सूरत चाहे जैसी हो उत्तर प्रदेश और बिहार का आम आदमी उन्ही नगरों के भरोसे आज भी अपना जीवन यापन कर रहा है, भ्रष्टतम सिविल सेवकों की सूचि भी उत्तर प्रदेश से जारी होती है पर किसी ने भी भ्रष्टतम नेता की सूचि जारी नहीं की है, राजनीति के मायने जब कभी सामुदायिक विकास के हुआ करते  रहे होंगे पर आज तो व्यक्ति के विकास की अवधारणा पर राज्य नीतियाँ तय करता है, उदहारण यह देता है की नेहरू के ज़माने से ऐसा होता आया है यदि उनसे कोई पूछे की जब यही सब करना है तो नेहरू के बन्शजों को ही राज करने दो. नहीं राज तो हमी करेंगे और अपनी मूर्तियाँ भी लगायेंगे, जिस महात्मा बुद्ध, महात्मा फुले, साहू जी महाराज, भीम राव बाबा साहब आंबेडकर ने भी अपने जिन्दा रहते यह सोचा भी नहीं होगा की उनके बुतों को बनाकर उनके नाम से भ्रष्टाचार की त्रिवेणी bahai (बनाई) जाएगी और तो और अपना बुत भी बनाया जायेगा, यह प्रोफेशनालिस्म तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी मात देता है.
दलितवाद द्वारा दलित का शोषण द्विजात्मक फार्मूले से करने की इज़ाज़त भी यही प्रदेश देता है और यहीं से द्विज आन्दोलन की रूप रेखा की पुनर शुरुआत की लिए जमीन भी दलित देता है, पर आरोप पिछड़ों पर लगाता है. डॉ.अम्बेडकर के उपरांत दलित आन्दोलन की छवि कितनी जुझारू हुयी है इसका लेख जोखा भी इसी प्रदेश में मिलता है.            
क्रमशः      

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