दैनिक जागरण से साभार -
Nov 01, 01:52 am
कौशलेन्द्र प्रताप यादव फोटो-डॉ.लाल रत्नाकर |
सन् 2010 मंडल आयोग की 20 वीं बरसी के लिए जाना गया। इस अवसर पर देश भर में गोष्ठियों के जरिए पक्ष-विपक्ष में बहस हुई। ज्यादातर में आरक्षण के खिलाफ बातें हुईं, लेकिन हिंदुस्तान की रग-रग में जो राजनीतिक-सामाजिक और धार्मिक आरक्षण घुसा हुआ है उसके विरोध में एक भी स्वर नहीं गूंजा। पिछले दिनों सोनिया गांधी की प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ एक तस्वीर छपी जिसमें उनके हाथ में एक प्रमाण पत्र था और फोटो के नीचे लिखा था कि सबसे ज्यादा दिनों तक काग्रेस अध्यक्ष बनने का रिकार्ड सोनिया गाधी के नाम, लेकिन सोनिया से यह किसी ने नहीं पूछा कि इस पद पर आप कैसे पहुंचीं? अपनी काबिलियत के बल पर या नेहरु-गाधी परिवार की बहू होने के कारण। आज पूरा देश राहुलमय है और काग्रेस के ढेर सारे पुराने प्रतिबद्ध नेताओं को पीछे छोड़कर राहुल गाधी को काग्रेस ने अपना अगला प्रधानमंत्री मान लिया है। राहुल यह बताने में असमर्थ हैं कि किस आरक्षण की बदौलत काग्रेस ने उन्हें अपना अगला प्रधानमंत्री मान लिया है। कुछ भविष्यवाणी करने वाले लिखते हैं कि प्रियंका गाधी भी एक दिन भारत की प्रधानमंत्री बनेंगी। दरअसल काग्रेस और प्रधानमंत्री पद एक परिवार का गुलाम हो गए हैं। इस आरक्षण का विरोध क्यों नहीं होता? काग्रेस के जलसों में जो बैनर लगते हैं उनमें भी केवल मोतीलाल नेहरू से राहुल गाधी तक की तस्वीरें लगती हैं। क्या लालबहादुर शास्त्री, सरदार पटेल जैसे लोग गायब हैं? देश भर में राजीव गाधी के नाम पर योजनाओं/स्मारकों /पाकरें की संख्या 400 से अधिक है।
मंडल आयोग लागू होने पर भाजपा ने भी देश में बहुत कोहराम मचाया था, लेकिन भाजपा के शीर्ष पदों में दलित-पिछड़े मुश्किल से मिलते हैं। अभी भाजपा ने अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में महिला आरक्षण का फार्मूला लागू करके मीडिया में ताल ठोंकी, लेकिन उनमें एक भी महिला दलित-पिछड़े समाज से नहीं है। देश की वामपंथी पार्टिया हमेशा गरीबों और दलितों-पिछड़ों की हितैषी होने का ढोंग करती रहती हैं, लेकिन वामपंथी पार्टियों के शीर्ष पदों पर देश के बहुजन समाज का एक भी व्यक्ति नजर नहीं आता। आज भी देश में पिछड़े वर्ग को सबसे कम आरक्षण पश्चिम बंगाल में मिला है। देश में सर्वहारा के नायक माने जाने वाले ज्योति बसु के कार्यकाल में एक भी दलित मंत्री नहीं बना। इस आरक्षण का विरोध क्यों नहीं होता? आरएसएस के सर्वोच्च पद पर पहुंचने के लिए भी एक प्रकार से अगड़ी जाति का होना अनिवार्य है। दक्षिणी भारत में देवदासी देवदासी बनने वाली लड़किया दलित-पिछड़े आदिवासी तबके की थीं। ब्राह्मंाण वर्ग की एक भी कन्या देवदासी नहीं बनाई गई। शकराचार्य की चारों पीठों पर केवल एक वर्ग की ताजपोशी होती है। मुसलमानों में भी जो अलग-अलग मठ हैं उनमें केवल ऊंचे तबके के मुस्लिमों की ही ताजपोशी होती है।
विश्वविद्यालयों में एक घपला बहुत दिनों से चल रहा था, जो अब पकड़ में आ रहा है। आरक्षित वर्ग की सीटें डी-रिजर्व करके सामान्य वर्ग के छात्रों से भर दी जाती हैं। डी-रिजर्व सीटों में भूल से भी एक सीट दलित-पिछड़े वर्ग के छात्रों को नहीं जाती। यह भी किसी से छिपा नहीं कि हमारे समाज में पेशे भी जातियों के हिसाब से आरक्षित हैं। हमारे पूर्वजों ने जब इन जातिगत पेशों के आरक्षण से छुटकारा पाने के लिए अपना मजहब बदल लिया तो उनका मजहब और नाम तो बदल गया, लेकिन जातिगत पेशों के आरक्षण से उन्हें छुटकारा नहीं मिला। हमारे देश को आगे ले जाने के लिए पंचवर्षीय योजनाएं बनती हैं, लेकिन देश की गिनती विकासशील से विकसित देशों में नहीं होती, क्योंकि जिस देश का समाज जड़ होता है वह देश गतिशील कैसे हो सकता है ? सरदार पटेल और बाबा साहब अंबेडकर जिन्हें आरक्षण का जनक माना जाता है, उन्होंने भी आरक्षण को एक अस्थायी समाधान माना है, स्थायी नहीं। जब समाज की दबी-कुचली जातिया शक्तिशाली हो जाएंगी तो आरक्षण की आवश्यकता स्वत: समाप्त हो जाएगी। हम इस दिशा में आगे बढ़ भी रहे हैं, लेकिन सामाजिक-धार्मिक- राजनीतिक आरक्षण के खात्मे की तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है।
[लेखक कौशलेंद्र प्रताप यादव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]
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