18 नव॰ 2010


बेईमानों के बीच ईमानदार

बी.बी.सी.हिंदी से साभार -

विनोद वर्मा विनोद वर्मा | बुधवार, 17 नवम्बर 2010, 13:26 IST
मैं एक प्रशासनिक अधिकारी को जानता हूँ जिनकी ईमानदारी की लोग मिसालें देते हैं.
वे एक राज्य के मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव थे लेकिन लोकल ट्रेन की यात्रा करके कार्यालय पहुँचते थे. वे मानते थे कि उन्हें पेट्रोल का भत्ता इतना नहीं मिलता जिससे कि वे कार्यालय से अपने घर तक की यात्रा रोज़ अपनी सरकारी कार से कर सकें.
वे ब्रैंडेड कपड़े ख़रीदने की बजाय बाज़ार से सादा कपड़ा पहनकर अपनी कमीज़ें और पैंट सिलवाते थे.
जिन दिनों वे मुख्यमंत्री के सचिव रहे उन दिनों सरकार पर घपले-घोटालों के बहुत आरोप लगे. उनके मंत्रियों पर घोटालों के आरोप लगे. लोकायुक्त की जाँच भी हुई. कई अधिकारियों पर उंगलियाँ उठीं.विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त भी हुई. कहते हैं कि पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को अच्छा चंदा भी पहुँचता रहा.
लेकिन वे ईमानदार बने रहे. मेरी जानकारी में वे अब भी उतने ही ईमानदार हैं.
उनकी इच्छा नहीं रही होगी लेकिन वे बेईमानी के हर फ़ैसले में मुख्यमंत्री के साथ ज़रुर खड़े थे. भले ही उन्होंने इसकी भनक किसी को लगने नहीं दी लेकिन उनके हर काले-पीले कारनामों की छींटे उनके कपड़ों पर भी आए होंगे.
भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सत्यनिष्ठा और ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं उठाना चाहता. अगर कोई चाहे भी तो नहीं उठा सकता क्योंकि वे सच में ऐसे हैं. वे सीधे और सरल भी हैं.
राजीव गांधी के कार्यकाल को इतिहास का पन्ना मान लें और ओक्तावियो क्वात्रोची को उसी पन्ने की इबारत मान लें तो सोनिया गांधी पर भी कोई व्यक्तिगत आरोप नहीं हैं. कम से कम राजीव गांधी के जाने के बाद वे त्याग करती हुई ही दिखी हैं. एक दशक तक राजनीति से दूर रहने से लेकर प्रधानमंत्री का पद स्वीकार न करने तक.
लेकिन इन दोनों नेताओं की टीम के सदस्य कौन हैं? दूरसंचार वाले ए राजा, राष्ट्रमंडल खेलों वाले सुरेश कलमाड़ी और आदर्श हाउसिंग सोसायटी वाले अशोक चव्हाण.
अटल बिहारी वाजपेयी की गिनती हमेशा बेहद ईमानदार नेताओं में होती रही है. लेकिन उनके प्रधानमंत्री रहते तहलका कांड हुआ, कारगिल में मारे गए जवानों के लिए ख़रीदे गए ताबूत तक में घोटाले का शोर मचा और पेट्रोल पंप के आवंटन में ढेरों सफ़ाइयाँ देनी पड़ीं. यहाँ तक के उनके मुंहबोले रिश्तेदारों पर भी उंगलियाँ उठीं.
ऐसे ईमानदार राजनीतिज्ञ कम ही सही, लेकिन हैं. लेकिन वो किसी न किसी दबाव में अपने आसपास की बेईमानी को या तो झेल रहे हैं या फिर नज़र अंदाज़ कर रहे हैं.
ऐसे अफ़सर भी बहुत से होंगे जो ख़ुद ईमानदार हैं लेकिन बेईमानी के बहुत से फ़ैसलों पर या तो उनके हस्ताक्षर होते हैं या फिर उनकी मूक गवाही होती है.
यह सवाल ज़हन में बार-बार उठता है कि इस ईमानदारी का क्या करें? अपराधी न होना अच्छी बात है लेकिन समाज के अधिकांश लोग अपराधी नहीं हैं. लेकिन ऐसे लोग कम हैं जिनके पास हस्तक्षेप का अवसर है लेकिन वे हस्तक्षेप नहीं कर रहे हैं. जो लोग अपराध के गवाह हैं उन्हें भी क्या निरपराध माना जाना चाहिए? क्या वे निर्दोष हैं?
एक तर्क हो सकता है कि बेईमानों के बीच ईमानदार बचे लोगों की तारीफ़ की जानी चाहिए. लेकिन यह नहीं समझ में नहीं आता कि बेईमान लोगों के साथ काम कर रहे ईमानदार लोगों की तारीफ़ क्यों की जानी चाहिए? बेईमानी को अनदेखा करने के लिए या उसके साथ खड़ा होने के लिए दंड क्यों नहीं दिया जाना चाहिए?
कालिख़ के बीच झक्क सफ़ेद कपड़े पहनकर घूमते रहने की अपनी शर्तें होती हैं. और कितने दिनों तक लोग इन शर्तों के बारे में नहीं पूछेगें?

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