2 जन॰ 2017

उत्तराधिकार की जंग



ताकि सनद रहे।
(समाजवादी पार्टी की अहमियत का सवाल है)
डा.लाल रत्नाकर
स.अजय यादव जी
आपकी भावनाएं शुभकामनाएं प्रभावी हों नये वर्ष में मेरी यह कामना है । लेकिन जिस तरह का द्वंद जारी है उसमें नए युग की शुरुआत की बजाए ऐसा लगता है जैसे एक युग का अंत होने जा रहा है।

पारिवारिक कलह जब राजनीतिक कलह बन गई है जिसका परिणाम भविष्य के गर्त में है । इस तरह के परिवारिक झगडों के उदाहरण दक्षिण भारत के कुछ प्रांतों में और परिवारों में हुए हैं, जिनका परिणाम हम सबको मालूम है ।

नेताजी ने जिस समय राजनीतिक हैसियत हासिल की थी उसके पीछे उनके परिवार का कोई योगदान नहीं था लेकिन अखिलेश यादव के पीछे नेता जी को और उनके परिवार का बड़ा योगदान है इससे मुकरा नहीं जा सकता नकारा नहीं जा सकता यह देख ले की अखिलेश जी ने उस परिवार को संभालने में जरा सी भी रुचि नहीं लीे अन्यथा शिवपाल जी इतने घातक नहीं बनते ?

अखिलेश जी ने भी वही किया जो शिवपाल कर रहे थे यह पढ़े लिखे हैं और जिस तरह से प्रदेश के मुखिया के नाते सामाजिक न्याय की अवधारणा को उन्होंने बिगाड़ा ही है न कि बनाया जो समाज हित में बिल्कुल ही नहीं है, अब देखना है कि आने वाले दिनों में यह राजनीति करते हैं तो इन्हें कौन स्वीकार करता है कि इनकी विचार धारा क्या है ।

अभी जो भीड़ दिख रही है वह भी उन्ही लोगों की है जो इनकी राजनीतिक सोच (यद्यपि है नहीं) को बड़ा नहीं करने वाले हैं । इनकी सत्ता के लोभ में जो नाच कर रहे है हमें विश्वास नहीं हो रहा है कि वास्तव में प्रदेश का मतदाता उनसे इतना खुश है कि वह दोबारा ऐसे लोगों को सत्ता देने के पक्ष में हैं । जबकि लंबे समय से कांग्रेस और भाजपा प्रदेश की राजनीति से सपा/बसपा यानि माननीय नेता जी और मायावती जी के कारण दूर रही है । जिसे अब किसी न किसी तरह इनके पारिवारिक कलह से मिलती (सत्ता) दिखाई दे रही है।

उनके विरोधी यह जानते हैं कि उनका मतदाता बिल्कुल तैयार बैठा है इस तरह की सत्ताओं को बेदखल करने के लिए लेकिन इन्हे नहीं लग रहा है, मेरा यह भी मानना है कि बिहार की राजनीति और उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहुत मूलभूत अंतर है बिहार में तो दोनों दिग्गज नेता भाजपा को आने से रोकने में कामयाब हो गए लेकिन उत्तर प्रदेश में ऐसी स्थिति नहीं है । जबकि यहां बहुजन समाजवादी पार्टी अपनी योजना में है और भाजपा अपनी योजना में है कांग्रेस अपनी योजना में है।

यद्यपि इसी क्रम में यह आलेख भी प्रासंगिक है :

'मुसलिम वायस आफ़ इँडिया' के संस्थापक अजमल रहमान साहब के विचार उल्लेखनीय है जिसको मैं यहां लगा रहा हूं; 

मुलायम सिँह जी का हम एक बज़ुर्ग और तजुरबाकार नेता के रुप में हमेशा सममान करते रहे हैं लेकिन हर नेता का एक युग होता है,उमर पटटा, कोइ लिखवा कर नही लाया,जिस राजनेता ने,दीवार पर लिखे से आँख चुराइ और ""जनरेशन टराँसफोरमेंशन"" के सच से मुँह मोडा उसने भुगता,वह चाहे सिनडीकेट काँग्रेस के नेता रहे हों?या पँ.कमला पति त्रिपाठी,अर्जुन सिँह या जार्ज फ़रनानडीज़ रहे हों अथवा अडवाणी जी या फ़िर ???

मुलायम सिँह जी के बारे में,लोग जानते हैं,वह मानसिक रुप(याद दाशत के रुप मे)से गमभीर रुप से बीमार है,उनहें 10 मिँट पहले किस ने कया कहा था ?उनहें याद नही रहता।

मुलायम सिँह जी,की कमज़ोरी का फ़ायदा ,शिवपाल-अमर-साधना गुप्ता ""कौकस"" बख़ूबी उठाते और बाप -बेटे के बीच दूरी बढाने में करते रहे हैं।

यह गुट न तो आज की राजनीती की सचचाइ को मान एवँ समझ पा रहा है और लालच में, उ.प्र.जनता और सपा कार्यकर्ता की "सामुहिक इचछा" को दरग़ुज़र कर गलती कर रहा है।यह ज़बरदसती,यह मैसिज दे रहा है,मुसलमान अतीक़ और मुख़तार व ब्रहमण अमरमणि त्रिपाठी को नायक मानता है यह गुट 2016 में 1990 की राजनीती थोप रहा है।

आज का युवा उ.प्र. विकास और समाजिक नयाय/हिससेदारी का मुहावरा और भाषा की तरफ़ बढता नज़र आ रहा है।

काश के यह लोग इस सच्चाई को समझे और माने,वरना समय ख़ुद ज़लील भी करेगा और सज़ा भी देगा।

(मुसलिम वायस आफ़ इँडिया )


बी बी सी क्या कहता है (साभार ) ?

मेरे विचार से इसमें से एक भी आदमी ऐसा नहीं है जिसका अपना कोई वजूद हो इसलिए इन्हें उनके सबसे करीबियों में रखने की जो भी कसौटी हो उन्हें छत्रप नहीं बना सकती ? मेरा मानना है ये जितने भी नाम गिनाये गए हैं सब परिजीवी हैं और अखिलेश को चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिए हैं, उस पिता से अलग जिसने तमाम झंझावातों के मध्य "अखिलेश" को ताज दिया ?

राजनीती में बहुतों को चढ़ते उतरते देखा है पर ऐसे नहीं ?

"अखिलेश के ये सात भरोसेमंद सिपाही !
समीरात्मज मिश्र
(लखनऊ से, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए)

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की चुनावी रणनीति पर अमरीकी रणनीतिकार और हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय में पब्लिक पॉलिसी के प्रोफ़ेसर स्टीव जार्डिंग काम कर रहे हैं.
इसके अलावा अखिलेश तमाम अधिकारियों और सलाहकारों से मशविरा करते रहते हैं लेकिन समाजवादी पार्टी में उनके कुछ ख़ास ऐसे क़रीबी लोग हैं जिन पर वो बहुत भरोसा करते हैं.
इनमें से ज़्यादातर 2012 के विधानसभा चुनाव के दौरान निकली उनकी रथयात्रा में भी साथ थे और अखिलेश के क़रीबी होने की वजह से ये कई बार उनके चाचा शिवपाल यादव के ग़ुस्से का शिकार भी बन चुके हैं. एक नज़र इन नेताओं पर
उदयवीर सिंह ; उत्तर प्रदेश के टूंडला के रहने वाले उदयवीर सिंह धौलपुर के उसी मिलिट्री स्कूल से पढ़े हैं जहां से अखिलेश ने पढ़ाई की है. अखिलेश यादव, उदयवीर से दो साल सीनियर थे.
उदयवीर ने आगरा के सेंट जॉन्स कॉलेज से ग्रेजुएशन किया और फिर दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से एमए और एमफ़िल की डिग्री ली.
अखिलेश यादव के बेहद क़रीब होने के बावजूद उदयवीर कभी चर्चा में नहीं आए लेकिन दो महीने पहले जब पार्टी और परिवार में छिड़ी जंग सामने आई तो उदयवीर ने अखिलेश के समर्थन में चिट्ठी लिखी जिसके बाद वो सुर्ख़ियों में आ गए.
तब उन्हें इस 'अपराध' के लिए पार्टी से निकाल दिया गया था, लेकिन अब 'उन्हें निकालने वाले' ही पार्टी से बाहर कर दिए गए हैं.
सुनील यादव 'साजन' ; उन्नाव ज़िले के एक गांव से आने वाले सुनील यादव ने लखनऊ में केकेसी डिग्री कॉलेज के छात्र संघ से राजनीति की शुरुआत की.
यूं तो वो अखिलेश यादव के संपर्क में क़रीब एक दशक से हैं लेकिन 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले जब तत्कालीन मायावती सरकार के ख़िलाफ़ अखिलेश संघर्ष कर रहे थे, उस दौरान वो उनके क़रीब आए.
तब राज्य सरकार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन के दौरान सपा के कई नेताओं को पुलिस के डंडे भी खाने पड़े.
सुनील यादव भी 2012 की रथ यात्रा में अखिलेश के साथी थे. समाजवादी छात्र सभा का प्रदेश अध्यक्ष होने के अलावा अखिलेश यादव ने सरकार बनने के बाद पहले उन्हें राज्य मंत्री का दर्जा दिलाया और बाद में एमएलसी बनवाया.
सुनील, अखिलेश यादव की युवा ब्रिगेड की कोर टीम के सदस्य हैं.
आनंद भदौरिया ; लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र संघ से राजनीति की शुरुआत करने वाले आनंद भदौरिया छात्र संघ चुनाव में तो जीत हासिल नहीं कर सके लेकिन इस समय वो टीम अखिलेश के अहम सदस्य हैं.
आनंद भदौरिया उस वक़्त चर्चा में आए जब बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की सरकार के दौरान एक पुलिस अधिकारी के पैरों से रौंदी जा रही उनकी तस्वीर अख़बारों में छपी थी.
बाद में भदौरिया समाजवादी पार्टी के फ्रंटल संगठन लोहिया वाहिनी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिए गए. उसके बाद अखिलेश ने उन्हें विधान परिषद भी भेजा.
संजय लाठर ; संजय लाठर यूं तो हरियाणा के रहने वाले हैं लेकिन अखिलेश यादव से क़रीबी की वजह से वो पार्टी में अहम स्थान हासिल कर चुके हैं.
वो अखिलेश के पुराने साथी हैं. इस क़रीबी की बदौलत वो पार्टी की युवजन सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए.
क़ानून में मास्टर्स और पत्रकारिता में पीएचडी प्राप्त संजय समाजवादी पार्टी से विधान सभा चुनाव भी लड़ चुके हैं. हालांकि वो चुनाव हार गए थे लेकिन बाद में उन्हें भी विधान परिषद की सदस्यता पुरस्कार के रूप में मिली.
एसआरएस यादव ; समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और सलाहकारों में से एक एसआरएस यादव पहले कोऑपरेटिव बैंक में नौकरी करते थे.
उसी दौरान वो मुलायम सिंह यादव के संपर्क में आए. मुलायम सिंह यादव 1989 में जब पहली बार मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने एसआरएस को अपना विशेष कार्याधिकारी यानी ओएसडी बनाया.
जानकार बताते हैं कि बतौर ओएसडी वो इतने ताक़तवर थे कि प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी तक उनसे उलझने की हिम्मत नहीं करते थे.
रिटायर होने के बाद वो सपा में कार्यालय प्रभारी हो गए और फ़िलहाल एमएलसी हैं.
मुलायम और अखिलेश के बीच तनाव के बावजूद, एसआरएस यादव दोनों के ही काफ़ी क़रीबी हैं.
अभिषेक मिश्र ; विदेश में पढ़े होने के नाते अभिषेक मिश्र की एक अलग पहचान है. उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ नौकरशाह के बेटे अभिषेक को 2012 में अखिलेश यादव ने ही लखनऊ उत्तर सीट से चुनाव लड़ाया और वो पहली बार में ही विधायक बने. अखिलेश यादव ने उन्हें अपनी मंत्रिपरिषद में भी जगह दी.
विधायक बनने से पहले अभिषेक मिश्र आईआईएम अहमदाबाद में पढ़ाते थे. उनके चुनाव प्रचार में आईआईएम के छात्रों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था और इसी वजह से वो एकाएक चर्चा में आए थे.
अभिषेक मिश्र को बड़ी संख्या में निवेशकों को उत्तर प्रदेश में बुलाने और यहां निवेश के लिए तैयार करने का भी श्रेय दिया जाता है.
इसके अलावा वो अखिलेश यादव के राजनीतिक और सरकारी दोनों स्तरों पर प्रमुख रणनीतिकारों में से एक माने जाते हैं.
राजेंद्र चौधरी ; अखिलेश यादव के साथ हमेशा साये की तरह रहने वाले कैबिनेट मंत्री राजेंद्र चौधरी भी उन कुछ लोगों में से एक हैं जो मुलायम सिंह की ही तरह अब अखिलेश के क़रीबी हैं.
ग़ाज़ियाबाद के रहने वाले राजेंद्र चौधरी अखिलेश के प्रमुख राजनीतिक सलाहकार भी हैं और सरकार के प्रवक्ता भी हैं.
अखिलेश के क़रीबी बताते हैं कि राजेंद्र चौधरी अखिलेश के किसी भी फ़ैसले को उनसे पलटवाने की भी क्षमता रखते हैं.
पारिवारिक सत्ता संघर्ष में राजेंद्र चौधरी भी शिवपाल खेमे के निशाने पर आए थे लेकिन जानकारों का कहना है कि शायद मुलायम सिंह यादव के हस्तक्षेप के कारण उन पर उस तरह से कार्रवाई नहीं हुई जिस तरह से अखिलेश यादव के अन्य समर्थकों पर हुई थी."

क्रमश जारी :...........
(बी बी सी से साभार)
"समझ नहीं आ रहा सपा का 'असली नेता' कौन?
ज़ुबैर अहमद
बीबीसी संवाददाता, नई दिल्ली
1 जनवरी 2017

कहते हैं कि राजनीति में एक हफ्ता एक लंबा समय होता है. बीते दो दिनों में समाजवादी पार्टी का जो घटनाक्रम रहा है, उसे देखते हुए समझ नहीं आ रहा कि सपा का 'नेता' कौन है? रविवार सुबह 'समाजवादी पार्टी अधिवेशन' कर रामगोपाल ने जो ऐलान किया, उसके हिसाब से दो दिन पहले तक मुलायम सिंह यादव पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे. अब उनके बेटे अखिलेश यादव को यह पद सौंपा गया है. शनिवार शाम यह नहीं समझ आ रहा था कि अखिलेश का संकट में आ चुका मुख्यमंत्री पद कैसे बचेगा. लेकिन आज वो सत्ता पर और भी मज़बूत स्थिति में नज़र आ रहे हैं. कल को यह सब भी पलट सकता है. लेकिन सियासत में कुछ चीज़ें कभी नहीं बदलतीं. मुग़लों के दौर में बाप को सत्ता से हटाने के लिए बेटे न केवल बग़ावत पर उतर आते थे, बल्कि ज़रूरत पड़ने पर राजधानी पर चढ़ाई भी कर देते थे. जहांगीर ने अक़बर से बग़ावत की. जहांगीर से शाहजहां ने विद्रोह किया और शाहजहां से औरंगज़ेब ने. समय के पहियों को और पीछे ले जाएं तो रोमन साम्राज्य में भी सत्ता के लिए संघर्ष होता रहा. इन दिनों उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी में जारी पारिवारिक घमासान भी मुग़लों की याद दिलाता है. पार्टी में बाप से बेटे की बग़ावत, पार्टी के अंदर साज़िश और एक दूसरे के खिलाफ़ षड्‍यंत्र से मुग़ल साम्राज्य की बू आती है. शुक्रवार को 'नेता जी' कहे जाने वाले पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने पार्टी से बग़ावत करने के इलज़ाम में अपने बेटे अखिलेश यादव को छह सालों के लिए पार्टी से निकालने का फैसला किया, लेकिन अगले ही दिन उन्होंने अपना फैसला वापस ले लिया. आज यानी रविवार को उनकी जगह पर पार्टी के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश बनाए गए, जिसे मुलायम सिंह ने गैरकानूनी करार दिया है. साथ ही कहा है कि इस लेकर वो 5 जनवरी को 'अपना' अधिवेशन करेंगे. हालांकि रामगोपाल यादव और अखिलेश के जिस विशेष अधिवेशन को रविवार को लखनऊ में आयोजित किया गया, उसे असंवैधानिक घोषित करते हुए मुलायम सिंह ने इस सम्मेलन में शामिल होने वाले लोगों के ख़िलाफ कड़ी कार्रवाई करने की चेतावनी भी दी थी. फिर भी इस सम्मेलन में करीब 5000 कार्यकर्ता शामिल हुए. इस सम्मेलन में मुलायम को पार्टी का रहनुमा बताते हुए उनके ख़ास सहयोगी शिवपाल यादव का राज्य अध्यक्ष पद छीन लिया गया और उनके दिल के करीब बताए जाने वाले अमर सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया. तो क्या ये उत्तराधिकार की लड़ाई है या फिर पुरानी पीढ़ी बनाम नई पीढ़ी की आपसी कशमकश, या फिर दोनों ? पार्टी पर नज़र रखने वाले कई विशेषज्ञ ये कहते हैं कि मुलायम सिंह सियासत के शिखर पर जितना ऊंचा जा सकते थे गए. अब वो और ऊपर नहीं जा सकते. दूसरी तरफ बेटे के बारे में वो कहते हैं कि अब दौर है अखिलेश यादव का, जिनके बारे में कहा जाता है कि नई पीढ़ी में उनकी लोकप्रियता काफी ज्यादा है. कुछ तो यहां तक कहने को तैयार हैं कि मुलायम सिंह भी यही चाहते हैं कि पार्टी की बागडोर अखिलेश ही संभालें. वो अपने छोटे भाई शिवपाल यादव के क़रीब ज़रूर हैं लेकिन अगर चुनाव बेटे और भाई के बीच किसी एक का करना हो, तो वो अंत में बेटे को ही चुनेंगे. कुछ विशेषज्ञ तो यह भी कहते हैं कि बाप-बेटे का झगड़ा केवल एक ड्रामा है. समाजवादी पार्टी में जारी उठा-पटक पर नज़र रखने वालों को यक़ीन है कि अंदरूनी विवाद जल्द ख़त्म होने वाला नहीं है. लेकिन पार्टी के पास समय नहीं है. राज्य में विधानसभा चुनाव होने में अब कुछ ही हफ्ते बाक़ी हैं. अगले कुछ दिनों में इस जंग का अंत पार्टी के लिए बेहद ज़रूरी होगा.

(संतोष यादव की फेसबुक से )
"राजनीति जनमानस का खेल होता है । हर राजनीतिज्ञ अपने पक्ष में जनमानस को बनाये रखने के लिए खेल खेलता है । इसमे झूठ सच सब चलता है । समझदार नेता इंतजार कर लेता है लेकिन जनमानस में अपनी ऐसी कोई गलत छवि नहीं बनने देता जो दाग बन जाये ।

अखिलेश के लिए ,,,, 
शिवपाल---------------रामगोपाल 
अमर सिंह------------ रामनरेश 
मुख़्तार बंधू-------------राजा भैया 
अतीक अहमद------- पवन पांडेय 
आशु मालिक--------- अभिषेक मिश्र
अखिलेश जी इन लोगो में क्यों अंतर करते और कैसे करते है मुझे तो नहीं समझ में आता ।
नेता जी अध्यक्ष का पद लेकर खुद अध्यक्ष बन जाना किसको भूलेगा । 
अरे आप किसी और को भी बना सकते थे ।
आप सही हो या गलत इसके साथ आप का तरीका सही है या गलत महत्व रखता है ।
अगर अखिलेश जी नेता जी के बेटे न होते तो क्या नेता जी का एक भी राजनीतिक दाँव सह पाते ।
कम से कम नेता जी का लिहाज़ करते आप, वो सिर्फ आप के बाप ही नहीं, जिस पार्टी पर आप कब्ज़ा करना चाहते हो उसके निर्माता भी है ।
पक्का ऐ सब आप ने मोदी जी से सीखा होगा ।
कमज़ोर लोग दाँव ज्यादा चलते है ।

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