21 अग॰ 2024

सवाल नेतृत्व का है बौद्धिक पलायन और अयोग्य प्रतिनिधित्व का।

 सवाल नेतृत्व का है बौद्धिक पलायन और अयोग्य प्रतिनिधित्व का।

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-डॉ लाल रत्नाकर 

वैसे देखा जाए तो पूर्वांचल की उपस्थिति संसद में यादवों के हिसाब से 'ना' के बराबर है, यह अलग बात है कि श्री धर्मेंद्र यादव जी आजमगढ़ से सांसद है, वैसे तो आजमगढ़ से और भी यादव सांसद हुए हैं (उनके चित्र कि यहां जरूरत नहीं समझा) जौनपुर से कई यादव सांसद हुए हैं बनारस से भी चंदौली से भी बगल के अन्य जिलों से भी बहुत सारे ऐसे नाम है। 

लेकिन जो सबसे आश्चर्यजनक खबर है वह यह है जिसको नीचे संलग्न खबर में अखबार नवीश ने उठाया है जिसपर पहले भी सवाल खड़े हुए हैं ?

जहां तक किसी क्षेत्र से वहां के प्रतिनिधियों के त्याग का सवाल है, यह पुरानी कहावत है वह पड़ोसी के घर से ही होना चाहिए चाहे वह नेता या वह व्यक्ति जो ऐसा कहता है करता है वह स्वंय ऐसा क्यों नहीं कर सकता। 

समय का चक्र है की पूर्वांचल देश की संसद में अपने प्रतिनिधि के रूप में उधार के प्रतिनिधियों से प्रतिनिधित्व पा रहा है, जिन लोगों के चित्र यहाँ लगाए गए हैं वह पूर्वांचल की प्रतिभाशाली रहे हैं उनमें से अधिकांश लोग कांग्रेस या कम्युनिस्ट पार्टी के जनप्रतिनिधि रहे हैं. जिसमें वह लोग भी हैं जो बहुजन समाज के अनेकों ऐसे और लोग हुए हैं जिन्होंने पहले भी भारत की संसद के लिए प्रतिनिधित्व का नेतृत्व किया है।

आज सवाल यह नहीं है कि श्री अखिलेश यादव जी ने पीडीए के माध्यम से जो सफलता हासिल की है उसकी मैं किसी रूप में बुराई कर रहा हूं। लेकिन मेरा ख्याल है कि इसको और बेहतर तरीके से किया जा सकता था जिसमें प्रदेश के यादवों का और नेतृत्व कराया जा सकता था। जो इस समीकरण को कहीं से भी कमजोर नहीं करता, प्रतिनिधित्व के सवाल पर फेर बदल हो सकता था और लोगों को भी शामिल कर पीडीए को विस्तृत और विस्तारित किया जा सकता था।

नाम लेकर बताना शायद उन लोगों को अच्छा न लगे जो उससे लाभान्वित हुए हैं लेकिन आम आदमी के मुंह से यही चर्चा आती है कि पिता, पुत्र, पुत्री जैसे विवाद से भी बचा जा सकता था।

आज उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अपने कुकर्मों की वजह से जिस हालत में पहुंच गई है उसी का लाभ उठाकर बीजेपी उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में सीना तानने की शक्ति के रूप में दिखाई देती है जिसका इस चुनाव में कुछ मानमर्दन हुआ है। इस मानमर्दन के पीछे जनता के उत्साह का बहुत बड़ा हाथ है, जिसे यदि किसी राजनेता को यह लगता हो कि उसने कोई जादू कर दिया है तो यह आम आदमी स्वीकार करने को तैयार नहीं है। राजनीतिज्ञ विशेषज्ञ भी इसी बात को महत्व देते हैं। 

जिन लोगों से इस चुनाव में लड़ना था उनसे लड़ता हुआ विपक्ष नजर नहीं आ रहा था लेकिन जनता के उत्साह ने उन्हें कमजोर किया और विपक्ष को ताकत दिया। 

इसके उलट बिहार में जो हुआ वहां से भी बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। 

यदि समय रहते व्यापक रूप से इस पर विचार नहीं किया गया तो आने वाले दिनों में ऐसा नहीं है कि जिनको आज हम कमजोर मान रहे हैं, जो हर तरह से सत्ता के लिए देश को तहस-नहस कर रहे हैं, उनके खिलाफ जनता कहीं यह महसूस न करने लगे कि यह तो और खराब लोग हैं। यह सवाल उनको बहुत ताकत देगा जो इनमें फुट डालने की टाक में रहते हैं। 

आईए सांस्कृतिक विचार के लोगों को इकट्ठा करके ऐसे कार्यक्रम प्रस्तुत कर उन बिंदुओं को चिन्हित करें, जिनसे आपको सांस्कृतिक रूप से गुलाम बनाया जाता है और उसी की परम्परा में अखंड-पाखण्ड, अंधविश्वास और चमत्कार की राजनीति की जाती है।

जिस दिन आम आदमी इन सारे प्रतीकों के बारे में जान जाएगा उस दिन असली राजनीति शुरू होगी। यही असली राजनीती होगी जिससे संविधान की रक्षा होगी। 

तब फिर से राजनीति समझने वाले लोगों का राजनीती में आगमन होगा और गुमराह करने की राजनेताओं की नीति का सही मूल्यांकन और सही प्रतिनिधित्व पर जोर देगी। ऐसा करने के लिए जनता को बहुत सजग होना पड़ेगा पुनः उसके लिए आंदोलन शुरू करने होंगे।


(नोट : इस आलेख में पूर्वांचल के तत्कालीन नेताओं को लिया गया है जबकि उत्तर प्रदेश में ऐसे अनेक नेता जिन्होंने सामाजिक क्रांति को बहुत ही महत्व दिया है और बहुजन समाज के लोगों को एकजुट रखा है हमारे इतिहास में मौजूद हैं वर्तमान समय में जिस तरह की राजनीति की जा रही है उसे राजनीति के और बहुत सारे विकल्प हैं जिनका प्रयोग किया जाना चाहिए लेकिन संभवत हुआ है उनकी समझ में नहीं आ रहा है जिनको इस तरह के फैसले लेने की जरूरत है)

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