28 जुल॰ 2009

सामाजिक सरोकारों से जुड़े संस्थान बनाने होंगे .........


डॉ.लाल रत्नाकर
सामाजिक बदलावों में यादवों के कौशल की जीतनी तारीफ की जाय वह कम है क्योंकि इन्होने ईमानदारी और लगन से इस देश कि सेवा की है,परन्तु उसके बदले उनकी जो गति कि गयी है वह कितनी दर्दनाक है,यह दशा दुनिया के अनेकों देशों में है ओबामा कि स्थिति कोई सदियों से शासक कमुनिटी का तो नहीं था, पर एक राजनितिक परिदृश्य बना जिससे उम्मीद बढ़ी और उन्हें सत्ता मिली दुनिया के सबसे शक्तिशाली मुल्क पर, वही उम्मीद यहाँ भी जगी थी सत्तर के दशक में पर पिछले दिनों क्या भारत के एक बड़े प्रदेश में जो बदलाव हुए और उसका बदलाव वाला आर्थिक असर उन पर कितना हुआ जिन्होंने इसके लिए इतना संघर्ष किया था, और वही हालात इसके पहले वाले शासनकाल में यानि माननीय नेताजी के युग में कितना हुआ जो लोग इन सबका फायदा उठाये वह कोई और थे जिसका न तो सामाजिक आंदोलनों से कोई लेना देना था और न ही उनके पास उस समाज के लिए कोई योजना थी.
न जाने क्यों वह एसे लोगों को बड़ा कराके समाज में क्या सन्देश देना चाहते है, उनके आर्थिक श्रोत बदल जाते है जिसमे राजशाही वाले सारे गुण उनमे आ जाते है जो सामंतवाद को भी मात देने वाले थे! क्या यही कारण थे जिससे इनकी सत्ता समाप्त हो जाती है और उल्टे इनकी कोई पहचान ही नहीं बन पाती यही कारण है की कभी वामपंथ तो कभी दखिन्पन्थ इन्हें खिचता रहता है, कांग्रेसी संस्कृति जिससे सत्तर के दशक में देश उब चुका था इन्हें आकर्षित करने लगे.
जिस राजनितिक बदलाव के लिए ये आगे आये थे उसके लिए इन्होने कौन से संस्थान खड़े किये -
१. सामाजिक संघर्षों के सदियों के आन्दोलन से जुड़े लोंगों को तार-तार कर कराके रख दिया.
२. सामाजिक आंदोलनों का निजी तौर पर इस्तेमाल .
३. सामाजिक सोच के एक भी बुद्धिजीवी को आगे नहीं आने दिया गया और बड़बोलेपन को सबसे बड़ा हथियार समझना.
४. राजनितिक हिस्सेदारी का कहीं कोई मतलब नहीं अपने चहेतों का भरण पोषण.
५. परिवार पर भरोसा जो महाभारत में फेल हो चुका था.
आदि आदि न जाने कितने कारण है जिनका निवारण होना है . इसके लिए सामाजिक सरोकारों से जुड़े संस्थान बनाने होंगे बिल्डिंग नहीं जिसमे लोग होंगे, बिल्डिंग को हरपने की शुरुआत होगी और आन्दोलन का रूप बदल जायेगा .
अतः अभी हमें बिल्डिंग नहीं लोग बनाने होंगे जिन्हें हड़पना न आता हो पहले एसे लोग समाज में थे जिनके चलते इतने बड़े बदलाव हुए थे पर हम उन्हें भुला दिये, उसी का परिडाम है ये सामाजिक-राजनितिक बदलाव अब इन पर उनके कब्जे है जिनका इससे कोई लेना देना नहीं है.
मायावती का बुत प्रेम -लालू ,मुलायम का कुल प्रेम आँखों के आगे ही साधू जैसा साला, शिवपाल जैसा भाई और माया की बुताई दिखाई दे रही है
आगे हम सामाजिक सरोकारों से जुड़े कुछ बिन्दुओं को आप के विचार के लिए ला रहे है. इंतजार कीजिये ?

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