8 नव॰ 2009

सामाजिक सरोकार और देश की राजनीति में पिछडों की भूमिका -
डॉ.लाल रत्नाकर  

वर्तमान समय में जातीय सोच जिस प्रकार प्रभाव डाल रही है वह कोई आज की नई बात नहीं है, जिन लोगों ने इसका दुरुपयोग किया है आज वही सबसे ज्यादा हल्ला करते है की जाती बाद बढ़ रहा जब की सच्चाई है की जातीवाद घाट रहा है, जातियां सामाजिक सन्दर्भों को कैसे कैसे प्रभावित करती है इनके मानदंड कौन तय करेगा -
यथा-

  • मनुश्स्मृति के अनुसार वह भी कौन कौन सी स्मृति किसकी स्मृति जिसमे शूद्र और द्विज को बताया गया है उनके रक्त के आधार पर जातियों को बाटा जाता है |
  • स्त्री के बारे में कहा जाता है की मनु-स्मृति ने बहुत से नियम बनाए है, जिनसे हजारों वर्षो से भारतीय नारियों की एसी तैसी हो रही है, शूद्र और स्त्री की दशा लगभग एक जैसी ही है |
  • समाज के बड़े से बड़े नेता ने कभी भी दलितों या शूद्रों को या उनके उत्थान को पचा नहीं पाए, जब जब किसी समाज के समाजसुधारक ने बड़ा आन्दोलन खडा किया तब तब वही बड़े नेताओं ने 'एन केन प्रकारेन' ख़त्म किया ही नहीं किया बल्कि पूरे आन्दोलन पर कब्जा जमा लिया,धर्म ,शिक्षा,अर्थ,जमीन व् जायदाद  |
  • सुख सौंदर्य सम्प्पनता इनके आस पास भी नहीं आने या फटकने पाए इसका इंतजाम चोरों की तरह इसी समाज ने किया है |
    


संयुक्त राष्ट्र का जातिवाद विरोधी चार्टर

राम पुनियानी

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने पिछले माह जिनेवा में हुई अपनी बैठक में इस प्रश्न पर व्यापक विचार-विमर्ष किया कि क्या जाति को नस्ल के समकक्ष मान लिया जाना चाहिए. परिषद की यह मंशा है कि जन्म और कर्म के आधार पर दुनिया के सभी देशों में होने वाले भेदभाव के विरूध्द वैश्विक स्तर पर संघर्ष किया जाये. दुनिया के लगभग बीस करोड़ लोग इस तरह के भेदभाव के शिकार हैं. इनमें नस्लीय शुध्दता और छुआछूत जैसी धारणाओं से उद्भूत भेदभाव शामिल हैं. 

इस मुद्दे पर भारत अब तक यह कहता आ रहा है कि जातिगत भेदभाव के मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण नहीं होना चाहिए. भारत का मानना है कि जाति, नस्ल नहीं है और जातिगत भेदभाव की समस्या भारत की आंतरिक समस्या है. अभी कुछ समय पूर्व तक नेपाल, जो कि दुनिया का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र था, का भी इस मुद्दे पर यही दृष्टिकोण था. नेपाल में राजतंत्र की समाप्ति और प्रजातंत्र के आगाज़ के बाद नेपाल सरकार ने अपना मत बदल लिया. अब उसका कहना है कि जातिगत भेदभाव और नस्लवाद में कोई फर्क नहीं है और जातिगत भेदभाव को मिटाने के राष्ट्रीय प्रयासों को अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और समर्थन मिलना चाहिए. भारत अभी भी इस मुद्दे पर शुतुरमुर्ग की मुद्रा में है.

नेपाल, दक्षिण एशिया का ऐसा पहला देश बन गया है जिसने अपने देश में प्रचलित छुआछूत की कुप्रथा की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कड़ी निंदा की है. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद का यह प्रस्ताव है कि संयुक्त राष्ट्र संघ और उसके विभिन्न संगठन, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के संबंधित सरकारों के प्रयासों में भागीदारी करें. परिषद, जाति, व्यवसाय और जन्म के आधार पर होने वाले वाले भेदभाव को समकक्ष मानकर उन्हें मानवाधिकारों के उल्लघंन की श्रेणी में रखना चाहती है. यह सचमुच दु:खद है कि भारत इसका विरोध कर रहा है. यह इसके बावजूद कि सन् 2006 में अपने एक वक्तव्य में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने छुआछूत की तुलना रंगभेद से की थी. ऐसा लगता है कि हमारे देश के सरकारी तंत्र में कुछ तत्व इस मुद्दे पर हमारी नीतियों को गलत दिशा दे रहे हैं.

हमारे संविधान के विभिन्न प्रावधानों और अनेक कानूनों के बावजूद, छुआछूत और जातिगत भेदभाव आज भी हमारे देश में कायम हैं. जातिगत भेदभाव के शिकार लोगों की बेहतरी के लिए किए जाने वाले प्रयासों का भी कुछ राजनैतिक शक्तियां विरोध करती हैं. जाति व्यवस्था हमारे देश में कब और कैसे आई, इसके बारे में अनेक परिकल्पनाएं प्रस्तुत की जा रही हैं. इनमें से अधिकांश निहित स्वार्थी राजनैतिक ताकतों के शैतानी दिमागों की उपज हैं.

ऐसा प्रचार किया जा रहा है कि मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण के कारण जाति व्यवस्था अस्तित्व में आई. ये आक्रांता तलवार की नोंक पर स्थानीय लोगों को मुसलमान बनाना चाहते थे. जो हिन्दू अपने धर्म के प्रति वफादार थे, वे मुसलमान बनने से बचने के लिए जंगलों में भाग गये और जाति के पिरामिड में उनकी स्थिति में गिरावट आई. जो हिन्दू जंगलों में नहीं भागे परंतु जिन्होंने अपना धर्म बदलने से इंकार कर दिया उन्हें मुसलमान राजाओं के शौचालयों को साफ करने के लिये मजबूर किया गया. इस कारण जाति व्यवस्था अस्तित्व में आई और छुआछूत भारतीय समाज का हिस्सा बन गई! ये सारी परिकल्पनाएं, दरअसल, सिर्फ कल्पना की उड़ाने हैं जिनका न तो इतिहास से कोई संबंध है और न ही तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों की समझ से.

जाति व्यवस्था के उदय के संबंध में कुछ अन्य सिध्दांत आर्य-द्रविड़ संघर्ष पर आधारित हैं और कुछ कार्ल मार्क्स के वर्ग विभाजन के सिध्दांत पर. जहां तक आर्य-द्रविड़ संघर्ष का प्रश्न है, हाल में किए गए कई वैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि भारत में आर्यों और द्रविड़ों के बीच कोई स्पष्ट आनुवांशिक विभाजक रेखा नहीं है. भारत के सभी नागरिक आर्य और द्रविड़ नस्लों का मिश्रण हैं. जहां तक मार्क्स के वर्ग आधारित श्रम विभाजन के सिध्दांत का सवाल है, उसके बारे में अम्बेडकर की टिप्पणी बहुत प्रासंगिक है. उनका कहना था कि जाति, श्रम विभाजन नहीं बल्कि श्रमिकों का विभाजन है.




स्वतंत्रता के साठ साल बाद भी जाति प्रथा और छुआछूत का बना रहना शर्मनाक हैं. हमें इन दोनों घोर अन्यायपूर्ण प्रथाओं के उन्मूलन के लिए लगातार प्रयास करने चाहिए


जाति व्यवस्था के उदय के कारण कहीं अधिक जटिल थे. अम्बेडकर ने अपने लेखन में जाति प्रथा के उदय के बारे में बहुत यथार्थवादी सिध्दांत प्रस्तुत किये हैं. उनकी दो पुस्तकों ''हू वर द शूद्राज'' (शूद्र कौन थे?) व अनटचेबिल्स'' (अछूत) इस मसले पर उनके विचार प्रस्तुत करती हैं. उनकी अप्रकाशित पांडुलिपि ''रेविल्यूशन एण्ड काउंटर रेविल्यूशन इन एनशियेंट इंडिया'' (प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति) भी इस विषय पर प्रकाश डालती है. उनके अनुसार जाति एक सामाजिक विभाजन था जिसके पीछे विचारधारात्मक और धार्मिक कारक थे. भारत में जाति की अवधारणा ईसा पूर्व पहली सदी में भी थी. स्मरणीय है कि भारत में मुसलमान शासकों का प्रभाव ग्यारहवीं ईसवी के बाद शुरू हुआ. 


स्थानीय स्तर पर संगठित कबीलों का जातियों में परिवर्तित होने की प्रक्रिया बहुत धीमी थी और इसके पीछे कई कारक थे. आर्यों का आगमन और ब्राहम्णवादी विचारधारा इनमें से दो थे. जो आर्य यहां आये, उनका समाज मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में विभाजित था-योध्दा, पुरोहित और व्यापारी-किसान. चौथी श्रेणी-दास- आर्यों के भारत में आने के बाद जुड़ी. धीरे-धीरे यह लचीली व्यवस्था कठोर और जन्म-आधारित बनती गई. विभिन्न कबीले अलग-अलग ऐसे समूहों में परिवर्तित हो गये जिनके सदस्य केवल आपस में विवाह करते थे. ये समूह एक निश्चित काम करने लगे.

वैदिक काल, वर्ण व्यवस्था का काल था. ऋगवेद का पुरूष सूक्त हमें बताता है कि भगवान ब्रम्हा ने विराट पुरूष के शरीर से चार वर्ण बनाये. बौध्द धर्म के जन्म के साथ वर्ण व्यवस्था के ब्राहम्णवादी मूल्यों को चुनौती मिलने लगी और उनमें विश्वास कम होने लगा. इसके नतीजे में शूद्रों और महिलाओं की स्थिति में सुधार आया. इसके बाद शुरू हुआ मनुस्मृति का युग जिसमें वर्णों ने जातियों का रूप ले लिया और समाज में शूद्रों और महिलाओं की हालत एक बार फिर खराब हो गई.

स्वाधीनता संग्राम के साथ ही जातिगत और लैंगिक समानता की मांग उठने लगी. ये मूल्य भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के अभिन्न हिस्से थे. इसके विपरीत, मुस्लिम राष्ट्रवाद और हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति करने वालों को जातिगत और लैंगिक भेदभाव से कोई परेशानी नहीं थी. दोनों प्रकार की शक्तियों का परस्पर विरोधी दृष्टिकोण बहुत साफ है. शूद्रों की समानता के पैरोकारों ने मनुस्मृति को जलाया जबकि धार्मिक राष्ट्रवाद के झंडाबरदार, भारत के प्राचीन गौरव का गान करते रहते हैं. वे उस काल का महिमामंडन करते हैं जब मनुस्मृति ही कानून थी. इनमें से कईयों ने तो एक कदम और आगे जाकर यह कहना शुरू कर दिया कि अलग-अलग वर्ण, समाज रूपी पुरूष के अलग-अलग अंग हैं और समाज के सुचारू संचालन के लिए यह आवश्यक है कि वे अपना और केवल अपना काम करें.





स्वतंत्रता के साठ साल बाद भी जाति प्रथा और छुआछूत का बना रहना शर्मनाक हैं. हमें इन दोनों घोर अन्यायपूर्ण प्रथाओं के उन्मूलन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर तो प्रयास करने ही चाहिए हमें इसके लिए किए जानेवाले किसी भी अंतर्राष्ट्रीय प्रयास का स्वागत करना चाहिए और उसके साथ सहयोग करना चाहिए. अपने भूतकाल से चिपके रहकर हम कहीं नहीं पहुंच पाएंगे. अपनी कमियों को स्वीकार न करने से वे दूर नहीं हो जाएंगी.  

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