19 दिस॰ 2009



आज यहाँ के आदमी को आदमी ही खा रहा है 
आज यहाँ के

आदमी को आदमी
ही खा रहा है

जय प्रकाश
का कातिल दानव
मानव कैसे

मानवता के
हत्यारे ठेकेदारों
दया कहाँ है

राजनीति के
मक्कारों की हालत
हत्यारों की सी 

जहाँ निक्कमे
नक्कारे तैनात रहें
वहाँ सु रक्षा

खाने के दाने
लेप दिया जहर
तुरंतो खाना

किसने झेला
शहर का कहर
हंस हंस के

मरना मेरा
सत्यार्थ के खातिर
यूँ कब तक

लड़ रहा हूँ
जड़वत ज़माने
से हिम्मत से


आज नहीं तो
कल आना ही होगा
सामने तुम्हे

छुप छुप के
तीर भी चलाने से
कौन मरता

ज़माने और
कई ज़माने तुम्हे
निगल लेंगे

------------डॉ.लाल रत्नाकर 

3 टिप्‍पणियां:

अजय कुमार झा ने कहा…

बहुत ही गजब रचना है ..

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा!

www.kavita-ratnakar.blogspot.com ने कहा…

आपने ब्लॉग देखा ख़ुशी हुयी - रत्नाकर

फ़ॉलोअर