20 दिस॰ 2009

हाईकू 
डॉ.लाल रत्नाकर 



ढिबरी जला 
किताबें उठा कर 
पढाई की है 


कहानी सुना 
दादी माँ ने आदमी 
बना दिया है 


उनसे पूछो 
तरक्की होती ही है 
चापलूसी से 


इधर आना 
तुम्हारा हंस कर 
लगा सुहाना 


देर कर न 
जमाये बैठे है वे 
महफ़िल जो 


आज हमारा 
काम हो गया उल्टा 
उनके साथ 


बारात घर 
सगाई की रात में 
जलता रहा


उम्र भर की 
कसमे खाकर मै 
बधा हुआ हूँ


जितने पल 
तुमसे दूर हुआ 
जलता रहा 


चले आयोगे 
यह उम्मीद हमें 
तब भी न थी 


उसने किया 
करार हमसे भी 
धोखा ही दिया 


वो करते थे 
गुलामो की रक्षा 
अहंकारी थे 


टुकडे पर 
जीने वालों की जात
न पूछो साथी 
  

2 टिप्‍पणियां:

Himanshu Pandey ने कहा…

"बारात घर
सगाई की रात में
जलता रहा"

बेहद खूबसूरत, और प्रभावशाली । आभार प्रस्तुति का ।

www.kavita-ratnakar.blogspot.com ने कहा…

आपने ब्लॉग देखा ख़ुशी हुयी - रत्नाकर

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