10 जन॰ 2010

यादवों की राजनैतिक विरासत और मौजूदा समाज 
डॉ.लाल रत्नाकर 

                                                    आज पूरे देश में यादवों की राजनैतिक दशा पर नाना प्रकार के आरोप प्रत्यारोप लगाये जा रहे है , यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है बल्कि यह निरंतर किसी न किसी रूप में होता रहा है. यादवों की बौद्धिक विरासत का लेखा जोखा भी वही रखता है जो सदियों से देश के लिए जितने कुकर्म हो सकते है करता रहता है,
                                                    पिछले दिनों जब सत्ता में रहने का इन्हें मौका मिला तब इन्होने जो कुछ किया वह येसा नहीं की प्रशंशनीय नहीं था पर इनका औचित्य जितना सुधारवादी होना था वह नहीं रहा, यदि एक उदहारण लालू प्रसाद यादव के रेलमंत्री होने/रहने और रेल को मुनाफे में ले आने की करामत को देखा जाये और तो और उसी कांग्रेस के दुबारा सरकार में आने पर - इनके कामों पर श्वेत-पत्र लाना यानि की यह प्रचारित किया जाना की इन्होने किया क्या है ?
                                                      दूसरी ओर माननीय मुलायम सिंह यादव द्वारा कांग्रेस की सरकार का बचाया जाना क्या सन्देश देता है.
                                                     स्वर्गीय चन्द्र शेखर, अमर सिंह के पूर्ण राजनैतिक अभियान पर आँख मूदकर अमल करना और इनके मानसिक और जातीय सोच का शिकार होते जाना, समाजवादी चरित्र के बचाए रखने का नाटक या समाजवादी होने की नियति यह लम्बे समय के इतिहास से तय होता है.
                                                    इस देश के राजनीतिज्ञों का स्वाभाव दौलत बनाए जाने का हो गया है कोई येसा नेता हो जिसने इस प्रक्रिया में न शरीक रहा हो, तो इस तरह दौलत इकठ्ठा करने से समाज में यादवों "राजनीतिकारों" की वही अधोगति हुयी जो औरों की होनी थी, दौलत बनाने का काम तो और तरीके से तमाम यादवों ने किया है वह धनवान भी है. पर वह राजनैतिक महत्वाकांक्षा से बचते है.
                                                        पर यादव राजनेता इस बात से बिलकुल बेफिक्र दौलत इकठ्ठा करने में लग जाते है. जिन राजनीतिकों की चतुराई से यादव समाज की राजनैतिक चतुराई पहचानी जानी चहिये थी या तो तब जनता ने उन्हें नहीं पहचाना या वह पूरा जीवन नीति बनाते रहे और उनकी विसात पर उनके चहेते दौलत. 
राजनैतिक साझेदारी और सुयोग्य हक़दार -
                                                                  जिन लोगों को राजनीति में आना चहिये था उनकी जगह 'गुंडों' और 'अपराधियों' को दी गयी क्योंकि वह नेताओं के लिए बौद्धिक कठिनाई नहीं पैदा कर सकते थे, पर जो कुछ उन्होंने पैदा किया वह बौद्धिक कठिनाई से ज्यादा खतरनाक हुआ 'इस दल से उस दल की आवाजाही' इनके चलते स्वाभाविक हितैषी अलग होते गए और इनकी संख्या दलबदलुओं के रूप में बढ़ती गयी और ये सफेदपोश अपराधी यादवों की राजनैतिक विरासत को निगलते गए.
यादवों की राजनैतिक विरासत -

                                                        यादवों की राजनैतिक विरासत कहने से मेरा तात्पर्य यह की भारत के इस ब्राह्मण के भ्रष्टाचार मूलक समृद्ध समाज में इनसे लड़ने की ताकत का नेतृत्व यादव ही कर सकता था और है यही कारण है की सारा हमला यादवों की राजनैतिक विरासत पर ही होता है, पर यादव यह वीणा उठाता तो है पर बदनाम भी जल्दी ही हो जाता है.
इसके  दो उदहारण गज़ब के है पहला- बिहार में लालू प्रसाद यादव के संहार का हथियार असरदार ब्राहमण सोच के रूप में उन्होंने  नितीश कुमार को तैयार करके किया और धीरे - धीरे सत्ता पर काबिज हो लिया - नितीश जी यादवों के बाद पिछड़ों के सबल जातीय समीकरण के हिस्से से आते है .
दूसरा- उत्तर प्रदेश के जिस ब्राह्मणवाद को समाप्त करने की लडाई माननीय कांशी राम जी ने अपना जीवन न्योच्छावर करके, समाप्त करके, मटियामेट करके,किया था उसे 'बहिन जी' ने चुटकी बजा कर वापस ही नहीं ला दिया सदियों के लिए फिर दलितों के आन्दोलन को समाप्त कर दिया.
                                                  यह दोनों काम यादवों या उनकी राजनैतिक विरासत के खिलाफ ही नहीं समूचे उस आन्दोलन के खिलाफ किया गया है  जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था को समूल उखाड़ने की चुनौती देता हो. 
पिछड़ों की राजनीति का ईमानदार नायक -

                          यादवों की राजनैतिक सोच मात्र नेतृत्व से जोड़ना नहीं चहिये, बल्कि यादवों की सामाजिक जिम्मेदारी की विरासत भी है, आज से ही नहीं द्वापर से या और पौराणिक ज़माने से अपनी पहचान दर्ज कराये हुए है. पर आज की स्थिती कुछ भिन्न होती जा रही है जिस सामाजिक कुसलता का परिचायक होना था वह नहीं हो पा रहा है, इसके लिए आंतरिक दुर्गुण ही जिम्मेदार है.
अब नए सिरे से इस आन्दोलन पर विचार करना होगा जिससे उक्त आन्दोलन को नई दिशा मिल सकेगी.
दलितों की साझेदारी और उपयुक्त जिम्मेदारी-                                                                          बदलाव नहीं ईमानदार पहल और गैर जिम्मेदाराना हरकतों और निर्णयों का पुनर समीक्षा कर गैर बराबरी और देश की दुर्दशा के जिम्मेदारों को सजा देने की जिम्मेदारी का निर्वहन करने वाला संयुक्त नेतृत्व .
                                                                 यद्यपि इस पूरी सोच को अमली जामा देना कठिन कार्य है,पाकिस्तान जैसी राजनैतिक स्थिति होने का खतरा यहाँ भी खड़ा हो जायेगा पर यह कदम इस राष्ट्र निर्माण और ईमानदारदेश के अवाम की संरचना में कारगर कदम होगा.
क्या हम इस सच से मुह मोड़ सकते है-
  1. देश की बहुमूल्य दौलत बेईमानों ने हड़पी हुयी है.
  2. उतने गरीब नहीं जितने बना दिये गए है? 
  3. देश में उतनी कमी नहीं जीतनी बना दी गयी है ?
  4. सामाजिक भेदभाव पैदा करके जड़ता पैदा करना इनका सदियों का खेल रहा है ?
  5. विकास की धारा का द्विजों की ओर मोड़ना ही इनका मुख्य कार्य रहा है ?


1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

बहुत ही सुंदर बात आपने कही है |

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