22 जून 2010

शर्मा जी ने क्या भेष बदला है ?
डॉ.लाल रत्नाकर 


(यह शर्मा जी गाँव के 'नाई' है और यह इतने बड़े गाँव में अकेले लोगों कि दाढ़ी मुच्छें काटते-काटते तंग आ गए है और उन्होंने  अपना यह नया स्वरुप गढ़ लिया है )


आज सामाजिक सन्दर्भों को जाति से जोड़कर देखने कि दशा दिशा समाप्त नहीं हुई है कई लोग जो शहरों में बस गए है उन्हें लगता है कि सब कुछ बदल गया है जरा वो गाँव में रहकर देखें . जिस भारतीय समाज में बड़ी से बड़ी आदर्श कि बातें कि जाति है वही मुहँ फैलाये एसी एसी विकृतियाँ खड़ी है जिनका समाधान न तो किसी के बस में है और न ही उस पर बिचार करने कि किसी कि मंशा ही है , सरकार के मंत्रियों के एक समूह को जातीय जनगणना के लिए फैसला लेना है पर उस पर उन्हें कोई चिंता नहीं है, वही दूसरी ओर 'भोपाल गैस कांड पर हुए गोल मॉल पर तुरंत' उसी प्रकार के मंत्रियों ने फैसला ले लिया जबकि जातीय जनगणना का सवाल इससे बहुत ही गंभीर है, पर भारतीय राजनीतिकारों ने जिस नियति का परिचय देते हुए बड़े आन्दोलनों को निमंत्रण दे रहे है  वह उनकी इस मानसिकता का परिचायक है.
यही कारण है कि सदियों से गैर बराबरी कि लडाई दबे तरीके से चलती रही है जहाँ तक भारतीय जनमानस का सवाल है वह हमेशा से इन्ही कुचक्रों का शिकार रहा है आदिम एवं जन जातियां दलित और पिछड़े खंड खंड में बटे हुए है इनकी समग्र लडाई का स्वरुप ठीक से कभी नहीं बन पाया ,इनमे जैसे जैसे सामर्थ्य आती गयी उनका वर्ग बदला तो नहीं पर सुबिधा भोगी जातियों ने उन्हें नाना प्रकार के लाली पाप दिखाते और बहकाते रहे जिससे उनके विरोध कि इनकी धार भोथरी होती रही, धीरे धीरे सारे आन्दोलनों को उन्होंने भोथरा कर दिया 'शूद्र' आन्दोलनों के शूरमा अकेले पड़ते गए इन्ही के नए सुविधाभोगी नए गठजोड़ बनाते गए जिससे सारा आन्दोलन ही कमजोर हो गया .
यहाँ श्री रघु ठाकुर का एक आलेख जो 'रविवार .कोम ' से लिया जा रहा है दे रहा हूँ वह गोल-मोल तरीके से कुछ कहता नज़र आ रहा है -








"अब जाति का पाखंड

रघु ठाकुर 

संसद में पिछले दिनों अनेक दलों के सांसदों तथा कुछ सांसदों ने दलीय सीमाओं को लाँघकर जातिगत जनगणना कराने की माँग की. संसद की आमराय को भाँपकर प्रधानमंत्री ने बड़ी चतुराई दिखाई. प्रधानमंत्री की द्विअर्थी भाषा को बहुत से लोग नहीं समझ सके. ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री के उच्चवर्गीय व उच्चवर्णीय चरित्र को भूलकर कुछ लोग उनके चेहरे की सादगी को उनकी सदाशयता समझ लेते हैं. यद्यपि चेहरा सदैव भीतर बाहर एक जैसा नहीं होता. प्रधानमंत्री के इस संसद को गुमराह करने वाले बयान के बाद जातिगत जनगणना के विरोध में अखबारों के पेज के पेज भर गए और लिखने वालों में से कुछ ऐसे पत्रकार मित्र शामिल हैं, जो प्रधानमंत्री के समर्थक माने जाते हैं.


केबिनेट में मतभिन्नता हुई तथा प्रधानमंत्री ने एक मंत्री समूह गठित कर इस निर्णय को अधिकृत कर दिया. यह एक सुविदित तथ्य है कि संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री, मंत्रियों में सर्वोपरि होते हैं तथा उनकी इच्छा पर ही संसदीय लोकतंत्र में मंत्रिमंडल चलता है. अगर प्रधानमंत्री चाहते तो उनके एक वाक्य पर मंत्रिमंडल जातिगत जनगणना के पक्ष में निर्णय करता.

यह कहा जा रहा है कि इससे जातिवाद विकराल रूप ले लेगा तथा जिस जातिवाद को 1950 में संविधान बनाते समय समाप्त कर दिया गया था, वह पुनः पैदा हो जाएगा. हमारे ये मित्र क्या इतने भोले हैं कि वे यह नहीं जानते कि केवल किताब में लिख देने मात्र से जमीन के हालात नहीं बदल जाते. क्या मिर्चीपुर के दलितों की हत्या की नृशंस घटना, क्या विदर्भ की दलितों की हत्या की घटना, क्या निरूपमा पाठक की मृत्यु, क्या खाप पंचायतों का पुनर्जीवन यही सिद्घ नहीं कर रहा है कि जातिवाद-गोत्रवार जीवित नहीं है? चुनावों में टिकट बाँटते समय, मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों के नाम तय करते समय, क्या जातीय समीकरणों को ध्यान में यही संविधान के पालक इस्तेमाल नहीं करते? जाति तीन प्रकार से टूट सकेगी -

(अ) बड़े पैमाने पर अंतर्जातीय विवाह तथा उनमें भी विषम स्तरीय ने अवर्ण व सवर्णों के बीच विवाह,






(ब) अंतर्जातीय विवाहों के लिए उपभोग संस्कृति. उपभोग तकनीकी, टीवी, फिल्म के साथ-साथ अधिकाधिक आर्थिक आत्मनिर्भरता भी जरूरी है.

(स) भारतीय प्रशासनतंत्र में समुचित भागीदारी भी जरूरी है. अगर महात्मा गाँधी व डॉ. अम्बेडकर के बीच पूना पैक्ट नहीं हुआ होता तथा स्वर्गीय डॉ. लोहिया ने पिछड़े वर्गों के आरक्षण की माँग को नहीं उठाया होता तो शायद न मंडल कमीशन बना होता और न ही पिछड़े वर्गों को आरक्षण मिला होता. जो लोग जातिवाद की गंदगी को नष्ट करने के नाम पर उसे ढँकना चाहते हैं, वे गंदगी को मात्र छिपाना चाहते हैं, न कि मिटाना चाहते हैं. जातिगत जनगणना से क्या बिगड़ना है? अगर मालूम पड़ जाए कि देश मे किस जाति की आज वास्तविक संख्या कितनी है तो हो सकता है, उनमें हिस्सेदारी की भूख बढ़े तथा हिस्सेदारी की भूख भारतीय लोकतंत्र को मजबूत ही करेगी? क्या जातिगत जनगणना का विरोध करने वाले मित्र यह भूल गए कि 1992 की मस्जिद विध्वंस की घटना के बाद इसी जातिवाद ने उत्तरप्रदेश व बिहार जैसे 141 सांसदों के प्रदेशों को साम्प्रदायिक शक्तियों का प्रभाव क्षेत्र नहीं बनने दिया.

कभी-कभी काँटे से काँटा निकलता है. अगर सरकार यह चाहती है कि जातिवाद की जड़ें कमजोर हैं तो वह संविधान में संशोधन प्रस्तावित करे कि बहुलतावादी जाति का प्रत्याशी उस क्षेत्र से प्रत्याशी नहीं हो सकेगा तथा शासकीय नौकरियाँ, शासकीय सुविधाएँ केवल उन्हें ही दी जाएँगी, जो अंतर्जातीय/अंतर्धर्मीय विवाह करेंगे तथा प्राथमिकता ऊँची जाति के लड़के व निम्नजाति की लड़की वाले विवाह करने वालों को ही दी जाएगी. क्या यह आश्चर्य नहीं है कि जो लोग रंगनाथ मिश्रा आयोग, सच्चर समिति की सिफारिशों का क्रियान्वयन का अभियान चलाते हैं, ताकि देश में अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी बढ़ सके, वही लोग आज जातियों की संख्या आधारित भागीदारी को नकारने, जाति आधारित जनगणना का विरोध कर रहे हैं?

क्या यह तथ्य नहीं है कि अटलबिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री के रूप में आगे लाने के बाद, देश के ब्राह्मणों ने आमतौर पर भाजपा को वोट दिया तथा कांग्रेस को नकार दिया. आज जातिगत जनगणना का विरोध करने वाले सभी लोग आमतौर पर सवर्ण जातियों से हैं, चाहे वे भाजपा के मुरलीमनोहर जोशी हों या कांग्रेस के आनंद शर्मा या चिदंबरम. एक भारत निर्माण अभियान की पहल अखबारों में हो रही है. वे भूल जाते हैं कि आजादी के पहले देश कमजोर था, क्योंकि केवल शासन, जातियाँ ही युद्घ का हिस्सा होती थीं. इसलिए भारत लंबे समय तक गुलाम रहा तथा 1965-1971 जैसे सभी युद्घों में भारत जीता है, क्योंकि अब केवल शासक जातियाँ नहीं वरन संपूर्ण भारत लड़ता है.

कुल मिलाकर यह विरोध केवल जातीय वर्चस्व का तंत्र कायम रखने के लिए है. सभी जानते हैं कि देश में जातियाँ-उपजातियाँ हैं. इन्हें केवल शब्दों से नहीं वरन कर्म से नष्ट करना होगा. कर्म में जातिवाद और जबान पर जाति विरोध का पाखंड हजारों वर्षों से भारत झेल रहा है. एक जातिवादी मानस, महिला आरक्षण विधेयक को पिछड़ी जातियों के नाम पर रोकता है तथा दूसरा जातीय मानस जातिगत जनगणना को रोक रहा है. ये दोनों जातिवादी मानस के सिक्के के दो पहलू है. इसे सभी को समझना होगा."

इस आलेख में जातिगत ढांचे कि मजबूती कि बात कि गयी है, जिससे एसा महशूस होता कि लेखक कितने दुखी है भारतीय लोकतंत्र के नायकों से . जहाँ आज के सामाजिक सरोकारों से जुड़े राजनेताओं कि दशा है वह ऐसी है जिसका कोई दूसरा उदहारण ही नहीं मिलेगा पूरी दुनिया के बदलाव के आन्दोलनों में , एक तरफ लगातार दुसाधों एवं द्विजों कि मार और दूसरी ओर शूद्रों कि महत्वाकांछा कि उन्हें दलित होने का भुलावा देने वाले चारण निरंतर घेरे हुए है घर पर भी और तंत्र पर भी . यह शौक शूद्र राजनेताओ को क्यों घेर लेता है समझ नहीं आता . शूद्र जनता अभिशप्त है ऐसे अपने तथाकथित राजनेताओं से जो सारे आंदोलनों को अपने नाम करने के मोह का संभरण नहीं कर पा रहे है और द्विजों की नीति के अनुरूप 'शूद्र उत्थान' में लगे है.  

2 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

कुछ नही बदला जी । धन्यवाद्

आचार्य उदय ने कहा…

बढिया पोस्ट।

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