27 जन॰ 2012

यदि यह सच है तो :
(चौथी दुनिया से साभार)

कांग्रेस और मुलायम सिंह में समझौता हो गया


कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच यह करार हो चुका है कि उत्तर प्रदेश में वे मिलजुल कर सरकार बनाएंगी. इस समझौते के मुताबिक़ केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनेंगे और समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव उप मुख्यमंत्री का पदभार संभालेंगे. हालांकि अखिलेश ने सूबे का वजीर-ए-आला बनने का सपना पाल रखा है, पर उन्हें अपने पिता का भी ख्याल रखना है और कांग्रेस ने अखिलेश यादव को उनके त्याग का खूब सिला दिया है. कांग्रेस आलाकमान ने यह वायदा किया है कि उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव हिंदुस्तान के उप प्रधानमंत्री होंगे. कयासों के साथ-साथ बहस और आकलनों का दौर भी जारी है. कहा यह भी जा रहा है कि अगर राहुल गांधी की मेहनत रंग लाई तो कांग्रेस विधायकों का आंकड़ा तिहाई तक भी पहुंच सकता है. सुलह-स़फाई लालू प्रसाद यादव के साथ भी हुई है.

लालू यादव इस बात से भी बड़े दु:खी थे कि ममता ने उनके द्वारा शुरू की गई परियोजना ग़रीब रथ का नाम दुरंतो एक्सप्रेस कर दिया. इसलिए लालू दोबारा रेल मंत्री बनकर सारी कसर पूरी कर लेना चाहते थे. पर राहुल गांधी की मंशा यह थी कि रेल मंत्रालय जैसा सबसे ज़्यादा जनोपयोगी मंत्रालय उत्तर प्रदेश के हवाले करके वह उसका सियासी फायदा उठा सकें.
तय यह हुआ है कि उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद जो मंत्रिमंडल विस्तार होगा, उसमें मुलायम सिंह के साथ लालू प्रसाद यादव को भी जगह दी जाएगी, जिसके बदले कांग्रेस को उनसे बिहार में एक बना बनाया वोट बैंक मिल जाए. चूंकि लालू की स्थिति अभी कमज़ोर है, लिहाज़ा कांग्रेस उनसे अपनी मनमर्जी से बराबरी पर समझौता कर सकती है. वैसे भी कांग्रेस को विपक्षियों के  वार से बचने के लिए लालू टाइप के माउथपीस की बेहद ज़रूरत है. कांग्रेस मुलायम-लालू से सौदेबाज़ी करके कई मक़सद हासिल करना चाहती है. उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद उसके सिर पर लोकसभा चुनाव का भूत सवार होगा. अगर यह करिश्मा होता है कि कांग्रेस समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में सरकार बना लेती है, तब उसकी निगाह उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों पर होगी. उत्तर प्रदेश में लोकसभा में ज़्यादा से ज़्यादा सीटें पाने की खातिर कांग्रेस को कुछ चुग्गे भी डालने होंगे. ज़ाहिर है, वह यह काम मुलायम सिंह को उप प्रधानमंत्री बनाकर पूरा कर लेगी. इस गठजोड़ में मुलायम सिंह के लिए वे नेता कारगर हो सकते हैं, जो कभी उनके साथ थे और बाद में पाला बदल कर कांग्रेस के साथ हो गए. इनमें बेनी प्रसाद वर्मा, राजबब्बर एवं रशीद मसूद जैसे लोग शामिल हैं. इन नेताओं की मुलायम सिंह के साथ कभी कोई रंजिश नहीं रही, लेकिन अभी तक यह साफ़ नहीं हो पाया है कि मुलायम सिंह के साथ हुए कांग्रेस के समझौते को ये नेता किस रूप में लेंगे.
जनता सियासी हवा का रुख भांपने में लगी है कि राजनीतिक पार्टियों के चुनाव पूर्व गठबंधन से क्या जातीय समीकरण बनते हैं. इन जातीय समीकरणों के अलावा विकास और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे भी प्रभावी हो सकते हैं. जुलाहों को पैकेज और क़र्ज़ माफ़ी आदि का दाना डालकर कांग्रेस ने मऊ, आजमगढ़, जौनपुर एवं भदोही वगैरह में फायदा उठाने की कोशिश की है.
दूसरा भी एक और अहम कारण है मुलायम-लालू से समझौते का. यूपीए को केंद्र में अपनी सरकार भी बचानी है. सहयोगी पार्टी तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल के नगर निकाय चुनावों के वक़्त से ही लगातार कांग्रेस को दबाव में लिए हुए हैं. वह बार-बार धमकियां दे रही हैं और अब तो खुलकर कहने लगी हैं कि केंद्र सरकार चाहे तो उनसे अपना नाता तोड़ सकती है. केंद्र में सहयोगी दल होने के बावजूद उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश में अलग-थलग होकर चुनाव लड़ रही है. इसलिए कांग्रेस को ममता बनर्जी के विकल्प की तलाश है. मुलायम सिंह के 22 और लालू यादव के 4 सांसद हैं. राष्ट्रीय लोकदल के पांच सांसद केंद्र में शामिल हो ही चुके हैं. अब मुलायम-लालू के यूपीए के घटक दल बनने से केंद्र सरकार की निर्भरता ममता बनर्जी से कम हो जाएगी. हालांकि पार्टी के अंदर लालू के विरोध में भी कुछ स्वर हैं, पर उन्हें कांग्रेस आलाकमान ने ऩफा-नुकसान का गणित समझा कर शांत करा दिया है और जो लोग मुलायम और लालू से सद्भाव रखते हैं, उन्हें उत्तर प्रदेश चुनाव तक इंतज़ार करने के लिए कहा गया है. पर हां, संभावना इस बात की भी पूरी है कि अगर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की रणनीति कामयाब हो जाती है तो कांग्रेस को मुलायम और लालू से दूरी बनाते भी देर नहीं लगेगी. फिर कांग्रेस महासचिव उत्तर प्रदेश का प्रयोग बिहार में दोहराएंगे, लेकिन अगर पार्टी बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी चौथे नंबर पर आती है, तब इन 26 सांसदों का सरकार में शामिल होना तय है. हालांकि कांग्रेस ने लालू-मुलायम से सौदेबाजी का यह सिलसिला काफी पहले ही शुरू कर दिया था, लेकिन मुंह मांगा मंत्रालय न मिलने की वज़ह से बात ठंडे बस्ते में डाल दी गई.
यह सौदेबाज़ी है सत्ता की. यह लालसा है हिंदुस्तान की सियासत पर क़ब्ज़ा करने और अपनी-अपनी वंश बेल को फलने-फूलने का मौक़ा देने और राज करने की. यह साज़िश है अवाम को छलावे में डालने की. इस मक़सद में कामयाब होने के लिए समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को हर नुस्खा क़बूल है. लिहाज़ा, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने जुगलबंदी कर ली है. केंद्र और उत्तर प्रदेश की गद्दी पर काबिज़ होने की खातिर दोनों पार्टियां अब एक राह पर चल पड़ी हैं.
पिछली बार इस मुताल्लिक आ़िखरी बार 14 मई, 2010 की रात को बात हुई थी, जब राहुल गांधी की तरफ से केंद्रीय मंत्री सुशील कुमार शिंदे लालू यादव के आवास 25, तुगलक रोड गए थे. तय यह हुआ था कि ममता बनर्जी की रोज़ की किचकिच से निजात पाई जाए और लालू-मुलायम-अजित सिंह सरकार में शामिल हो जाएं. उसी समय रामविलास पासवान को राज्यसभा सदस्य मनोनीत करने की बात भी पक्की हो चुकी थी. चूंकि पूर्व दूरसंचार मंत्री ए राजा इल्जामों के घेरे में आ चुके थे, लिहाज़ा कांग्रेस उनकी भी छुट्टी करने के मूड में थी. रक्षा मंत्री ए के एंटोनी के विकल्प पर भी ग़ौर किया जा रहा था, लिहाज़ा  अजित सिंह को नागरिक उड्डयन मंत्रालय, लालू यादव को दूरसंचार या रक्षा मंत्रालय और मुलायम सिंह यादव को रेल मंत्रालय का प्रभार देने की योजना बनी थी. सब कुछ ठीक चल रहा था, तभी लालू यादव ने कन्नी काटनी शुरू कर दी. जबकि पहले वह इस मामले की अगुवाई कर रहे थे. राहुल गांधी ने जब उनसे इस रवैये की वज़ह पूछी तो पता चला कि उन्हें तो स़िर्फ रेल मंत्रालय ही चाहिए. दलील यह थी कि उन्होंने भारतीय रेल के लिए अपने मंत्रित्वकाल में बहुत काम किया है और इस बार उन्हें फिर से रेल मंत्रालय मिल जाए तो वह भारतीय रेल को दुनिया की नंबर वन रेल बनाने का अपना वायदा और सपना दोनों पूरा कर सकेंगे. साथ ही ममता बनर्जी को मुंह तोड़ जवाब भी दे पाएंगे, क्योंकि ममता बनर्जी ने रेल मंत्रालय संभालते ही अपनी सारी ऊर्जा लालू यादव को घोटालेबाज और झूठा साबित करने में लगा दी थी.
लालू यादव इस बात से भी बड़े दु:खी थे कि ममता ने उनके द्वारा शुरू की गई परियोजना गरीब रथ का नाम दुरंतो एक्सप्रेस कर दिया. इसलिए लालू दोबारा रेल मंत्री बनकर सारी कसर पूरी कर लेना चाहते थे. पर राहुल गांधी की मंशा यह थी कि रेल मंत्रालय जैसा सबसे ज़्यादा जनोपयोगी मंत्रालय उत्तर प्रदेश के हवाले करके वह उसका सियासी फायदा उठा सकें. राहुल ने समझाना भी चाहा, पर लालू अड़ गए तो फिर माने नहीं. बात यहीं बिगड़ गई और राहुल गांधी लालू यादव से इतने नाराज़ हो गए कि उन्होंने उनसे बातचीत भी बंद कर दी. राहुल को लगा कि लालू ने अपनी हरकतों से उनके मिशन 2012 के सपनों के साथ खिलवाड़ किया है. यही वज़ह रही कि राहुल ने बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की कमज़ोर हालत के बारे में जानते हुए भी लालू के साथ गठबंधन नहीं किया. हालांकि रामविलास पासवान ने कांग्रेस आलाकमान सोनिया गांधी से अपने अच्छे संबंधों की बदौलत सुलह कराने की कोशिश भी की, लेकिन राहुल नहीं माने. बहरहाल, बिहार विधानसभा चुनाव ने लालू को उनकी औकात बता दी, तब उन्होंने कांग्रेस का हिमायती बनने का मौका तलाशना शुरू कर दिया. जब एफडीआई और लोकपाल के मुद्दे पर कांग्रेस पर चौतरफा वार होने लगे, तब लालू अपने बड़बोलेपन और मसखरेपन से उसकी ढाल बन गए. वह भी तब, जब राहुल गांधी लगातार उत्तर प्रदेश के दौरे पर थे. सोनिया गांधी तो हमेशा से लालू यादव की कायल रही हैं. अब राहुल गांधी को भी लगा कि जिस तरीके से उनकी सरकार आरोपों से घिर रही है, उसमें लालू जैसे व्यक्ति की बेहद ज़रूरत है, चार सांसदों की ताक़त बढ़ेगी, सो अलग.
खैर, फिलहाल उत्तर प्रदेश में जो चुनौतियां राहुल गांधी और कांग्रेस के सामने हैं, वे यह हैं कि उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी के जो ख़ास सिपहसलार बने हैं बेनी प्रसाद वर्मा और पी एल पुनिया. इन दोनों में बुरी तरह रार ठनी हुई है. बेनी कांग्रेस के लिए पिछड़ों के वोट बैंक का हथियार हैं तो पुनिया दलित वोट बैंक का. वैसे दोनों ही पूरी तरह राहुल के साथ हैं, पर राहुल के लिए इन दोनों को एक साथ साधना दुश्वार हो गया है. एक को मनाओ तो दूजा रूठ जाता है वाली तर्ज़ पर राहुल की रस्साकशी जारी है. बहस इस बात की भी है कि उत्तर प्रदेश में राहुल की जनसभाओं में जो भीड़ इकट्ठा होती है, वह किसकी वज़ह से. कांग्रेस यह मानती है कि यह राहुल गांधी का करिश्मा है, पर बेनी के लोग यह प्रचारित करते हैं कि यह बेनी प्रसाद वर्मा का जोर है. ऐसा नहीं कि बेनी कैंप की इस हरक़त से राहुल गांधी नावाकिफ हैं या कांग्रेसियों में नाराज़गी नहीं, पर बात यहां बेनी समर्थित वोटों की है, जिन्हें राहुल किसी कीमत पर गंवाना नहीं चाहते. खासकर भ्रष्टाचार के मामले में बसपा से निकले गए और सीबीआई जांच के दायरे में आए बाबू सिंह कुशवाहा के भाजपा में शामिल होने के प्रकरण के बाद. दीगर है कि भाजपा दागी कुशवाहा के मामले में अभी तक कोई ठोस फैसला इसीलिए नहीं ले पाई है, क्योंकि उसकी निगाह भी कुशवाहा के वोट बैंक पर टिकी है. राजनीति में सब कुछ लुटाने के बाद बेनी प्रसाद ने कांग्रेस का हाथ पकड़ा और कांग्रेस ने भी उन्हें सम्मान देते हुए न स़िर्फ गोंडा से टिकट दिया, बल्कि देवीपाटन की लगभग सात सीटों पर उन्हीं की सलाह से टिकट दिए. बेनी वर्मा खुद तो जीते ही, उन्होंने फैजाबाद, बहराइच, श्रावस्ती, सुल्तानपुर एवं महाराजगंज सीट पर भी कांग्रेस को जीत दिलाई. लाजिमी है कि राहुल गांधी उनके बड़बोलेपन को नज़रअंदाज़ करेंगे और उनका मान-सम्मान भी ऊंचा बनाए रखेंगे. आ़िखर सवाल उत्तर प्रदेश की सत्ता हथियाने का है. बेनी वर्मा कांग्रेस के लिए देवरिया, बनारस एवं जौनपुर आदि के कुर्मी बहुल क्षेत्रों की सीटें जीतने में बेहद सहायक साबित होंगे.
वैसे उत्तर प्रदेश में जो सियासी हालात दिख रहे हैं और जो रुझान मिल रहे हैं, उनके मुताबिक, प्रदेश में जिसकी भी सरकार बने, वह बिना भाजपा या कांग्रेस के समर्थन के बनती नहीं दिख रही. अभी तक की चुनावी समीक्षा के मुताबिक़, मायावती सरकार को लेकर आम जनता के बीच न समर्थन का भाव दिख रहा है और न विरोध का. विपक्षी पार्टियां भी मायावती सरकार के खिला़फ भूमि अधिग्रहण, कानून व्यवस्था एवं भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को सही तरीके से उठाने में नाकाम साबित हुई हैं. अभी तक उत्तर प्रदेश की जनता भी यह तय नहीं कर सकी है कि उसे किस पार्टी को वोट देना है. जनता सियासी हवा का रुख भांपने में लगी है कि राजनीतिक पार्टियों के चुनाव पूर्व गठबंधन से क्या जातीय समीकरण बनते हैं. इन जातीय समीकरणों के अलावा विकास और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे भी प्रभावी हो सकते हैं. जुलाहों को पैकेज और क़र्ज़ माफ़ी आदि का दाना डालकर कांग्रेस ने मऊ, आजमगढ़, जौनपुर एवं भदोही वगैरह में फायदा उठाने की कोशिश की है. इन जिलों में पासी समाज का बाहुल्य है. पिछले लोकसभा चुनाव में मनरेगा कार्ड ने इस इलाके में कांग्रेस को बड़ा वोट बैंक दिया था. इसके अलावा जो रुझान देखने को मिल रहे हैं, उनसे लग रहा है कि इस बार बसपा को ज़बरदस्त नुकसान होने वाला है, जिसका सीधा फायदा दलित वोटों के तौर पर कांग्रेस को होता दिख रहा है. सपा का आंकड़ा 2007 में 97 था, जो इस बार 135 से 140 तक पहुंचने की बात राजनीतिक समीक्षकों द्वारा कही जा रही है. अजित सिंह के साथ का भी फायदा कांग्रेस को मिलेगा. मेरठ, बुलंदशहर, बागपत एवं गाज़ियाबाद आदि इलाकों में कांग्रेस गठबंधन का प्रदर्शन अच्छा हो सकता है.
कांग्रेस ने पहले भी अपने हितों के मुताबिक, विभिन्न दलों से गठबंधन करके भानुमती का कुनबा जोड़ा है. कांग्रेस की सियासी चाल और राजकाज में लगभग डेढ़ दशक से कुछ क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय दल अहम किरदार निभा रहे हैं, जिन्होंने अपनी शर्तों के मुताबिक कांग्रेस से गठजोड़ करके सत्ता का भरपूर लुत्फ़ भी उठाया है, लेकिन जब भी उन्हें लगा कि हम सत्ता संतुलन की धुरी बन गए हैं, तब वे अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए सौदेबाजी और सरकार को डांवाडोल करने से भी बाज नहीं आए. दरअसल उनके सामने यह मसला भी होता है कि उन्हें अपनी प्रासंगिकता बनाए रखनी होती है. लिहाज़ा टकराव शुरू होता है. तब गठबंधन का एक और नया सिलसिला जन्म लेता है. इन्हीं हालात में उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच पनपे इस नए गठजोड़ और सत्ता की सौदेबाजी से क्या युवराज राहुल गांधी को हिंदुस्तान की सल्तनत हासिल हो पाएगी?

अगर ऐसा हुआ तो यह समझौता टूट जाएगा

कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच यह तो करार हो गया कि नतीजे आने के बाद बेनी प्रसाद वर्मा को मुख्यमंत्री की कुर्सी मिलेगी और सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव को उप मुख्यमंत्री की, लेकिन यह होगा कैसे, विचार इस पर भी करने की ज़रूरत है. सबसे पहली बात कि यह तभी मुमकिन हो सकेगा, जब कांग्रेस के हक़ में 100 से ज़्यादा सीटें आएंगी. अगर समाजवादी पार्टी को कांग्रेस से ज़्यादा सीटें मिल गईं तो अखिलेश मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनना चाहेंगे और ऐसी स्थिति में क्या कांग्रेस और सपा के बीच का करार कायम रह पाएगा? कांग्रेस ने बेनी प्रसाद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार तो बना दिया, पर बेनी बाबू को वजीर-ए-आला के तौर पर कांग्रेस के पुराने नेता और दूसरे सहयोगी मसलन पी एल पुनिया और रशीद मसूद तभी स्वीकार करेंगे, जब बेनी प्रसाद समर्थित उम्मीदवार सबसे ज़्यादा संख्या में जीतकर आएं. कांग्रेस बेनी प्रसाद को पिछड़ों के दूत के तौर पर प्रचारित कर रही है. दूसरी तरफ पी एल पुनिया कांग्रेस के लिए दलित वोटों के तारणहार बने हैं. मैदान में उनके भी कई उम्मीदवार आजमाइश में लगे हैं. अगर जीत में पुनिया समर्थित उम्मीदवारों की ज़्यादा भागीदारी रही तो क्या वह या उनके समर्थक या फिर उत्तर प्रदेश का दलित तबका यह नहीं चाहेगा कि पुनिया ही सूबे के मुख्यमंत्री बनें. बात यहीं खत्म नहीं होती. उत्तर प्रदेश में रशीद मसूद साहब भी हैं, जिनके उम्मीदवार भी खासी तादाद में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं. रशीद मसूद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का मुसलमान चेहरा बनकर उभरे हैं. मान लिया जाए, अगर उनके हिमायती विजयी उम्मीदवारों की संख्या पुनिया और बेनी वर्मा गुट के उम्मीदवारों से ज़्यादा हुई तो फिर क्या रशीद मसूद उत्तर प्रदेश के वजीर-ए-आला नहीं होना चाहेंगे. तब मुसलमानों की ज़बरदस्त हिमायत करने का दावा करने वाली कांग्रेस क्या करेगी, राहुल गांधी और सोनिया गांधी का क्या रु़ख होगा? चूंकि बेनी वर्मा को भावी मुख्यमंत्री के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है, ऐसे में अगर नतीजों के बाद तस्वीर का रुख कुछ और होता है, तब क्या बेनी प्रसाद इतनी आसानी से अपनी दावेदारी छोड़ पाएंगे? ऐसी हालत में कांग्रेस शायद प्रदेश में टूट की कगार पर पहुंच जाए और सपा के साथ हुए करार का कोई मतलब ही न रह जाए. अगर न हुई तो फिर समाजवादी पार्टी कांग्रेस के प्रत्याशी को मुख्यमंत्री के तौर पर क्यों कबूल करेगी? अगर मुलायम सिंह यादव उप प्रधानमंत्री और बेनी प्रसाद वर्मा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं तो उन्हें जी तोड़ मेहनत करनी पड़ेगी, ताकि ऐसे हालात पैदा न हों.

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