मैं जयपुर के स्वजातीय अधिवेशन में था ! पर जिस तरह की स्थिति में यह हो रहा था उसके बारे में कुछ कहना शर्मनाक होगा, २४ के कार्यक्रम में यदि राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक न होती।
"जयपुर में युवा यादवों की सभा आशंका और निराशा.............."
२५ सितम्बर २०१५ की सुबह से ही बदइंतज़ामी को समर्पित परिसर २४ सितम्बर २०१५ की रात्रिभोज की घोषणाओं के उलट सरकारी नियंत्रण में आ चुका बिरला आडोटोरियम का परिसर वी वी आई पी यों के अनुसार तैयार किया जा रहा था जिसमें सारा इंतज़ाम करने में मशगूल प्रशासनिक तबके के लोग देश के कोने कोने से आये पदाधिकारियों तक के प्रवेश पर रोक बहुत ही अपमानजनक स्थिति में ला दिया था ।
इससे यह सहज भान हो गया कि अब यह आयोजन राजनीतिज्ञों के दिखावे का होकर रह गया है, सो जो कुछ हुआ उसके चश्मदीद ही जानें मैं तो उन स्थितियों की परिकल्पना से ही आहत हो गया कि ये आने वाले बुरे दिनों से कितने बे ख़ौफ़ हैं। जहाँ आन्दोलन की रूपरेखा तय होनी चाहिये वहॉ आत्म प्रदर्शन करने वाले आयोजकों का तमाशा हो रहा है, राजनेताओं का बुलाया जाना वैसे भी तब अच्छा नहीं होता जब तक संगठन का अपना दबाव न हो।
अख़बारों ने जो छापा वह तो और ही है.........!
ज़रूरी है कि मुख्यमंत्री जी सामाजिक आन्दोलनों की महत्ता को समझें ? और "जातीय संगठन के पदाधिकारी गण सत्तांध मद में अंधे होकर व्यक्ति वन्दना की वजाय अपनी अहमियति संगठन की महत्ता बनाये रखने के प्रति गरिमा से एवं सजगता को क़ायम रखने में लगायें ?"
सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले हज़ारों हज़ार नेता डरपोक नहीं थे यथा चौ. ब्रह्मप्रकाश, बाबू वी पी मण्डल, चन्द्रजीत यादव, कर्पूरी ठाकुर, राम स्वरूप वर्मा इत्यादि।
एक ओर कथित हिन्दू ब्राह्मणवादी संगठन हमारे हक़ों पर हमलावर है, और हमसे सलीक़े की बात की जा रही है, लानत है ऐसे नेतृत्व पर जो निरन्तर हमारे हक़ों के प्रति उदासीन ही नहीं उसे कमज़ोर कर रहा हो, अनुभवहीन राजनीतिज्ञ सामाजिक लड़ाई को हमेशा नुक़सान पहुँचाता है, वैसे भी जो डरा हुआ हो ।
यही फ़र्क़ है लालू और अखिलेश के बयान में ?
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