15 जन॰ 2016

व्यक्तित्व

(साभार)
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जेएनयू में नामवर सिंह -उर्मिलेश

नामवर सिंह -उर्मिलेश
आज इस लेख के जरिए मैं जनेवि में अपने जीवन के भी सबसे अहम और निर्णायक समय और उसके बाद के संघर्ष को याद कर रहा हूं। लेकिन एक मायने में यह कोई मेरी निजी कहानी नहीं है। भारत के शैक्षणिक जगत खासकर उच्च शिक्षा संस्थानों में ऐसी असंख्य कहानियां भरी पड़ी हैं। मेरे विश्लेषण से किसी को असहमति हो सकती है पर तथ्यों और उससे जुड़े घटनाक्रमों से नहीं। यह सिर्फ मेरा नामवर जी या जनेवि के प्रगतिकामी हिंदी प्राध्यापकों-प्रोफेसरों का ही सच नहीं है संपूर्ण हिंदी क्षेत्र में व्याप्त बड़े बौद्धिक सांस्कृतिक संकट कथनी-करनी के भेद , हमारे शैक्षणिक जीवन, खासकर विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों के हिंदी विभागों की बौद्धिक-वैचारिक दरिद्रता का भी सच है।


शुरुआत जनेवि में अपने दाखिले से करता हूं। बात सन 1978 की है। मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए (अंतिम वर्ष) की परीक्षा दी। प्रथम वर्ष में प्रथम श्रेणी के नंबर थे। फाइनल में भी प्रथम श्रेणी आने की उम्मीद तो थी, पर अपनी ‘पोजीशन’ को लेकर आश्वस्त नहीं था। विश्वविद्यालय में उन दिनों पीएच.डी. के लिए सिर्फ एक ही यूजीसी फेलोशिप थी। पहली पोजीशन वाले को ही फेलोशिप मिल सकती थी। डॉ. रघुवंश के रिटायर होने के बाद विभाग में डॉ. जगदीश गुप्त का ‘राज’ चल रहा था। वह मुझे पसंद नहीं करते थे। शायद मेरी दो बातें उन्हें नागवार गुजरती रही हों-एक, विश्वविद्यालय की वामपंथी छात्र-राजनीति में मेरी सक्रियता और दूसरी, डॉ. रघुवंश और दूधनाथ सिंह आदि जैसे शिक्षकों से मेरी बौद्धिक-वैचारिक निकटता। फेलोशिप के बगैर पीएच.डी. करना मेरे लिए बिल्कुल संभव नहीं था। मेरी पारिवारिक स्थिति बहुत खराब थी। ऐसे में मित्रों ने सलाह दी कि इलाहाबाद के अलावा मुझे जनेवि में भी एडमिशन की कोशिश करनी चाहिए। वहां फेलोशिप भी ज्यादा हैं, इसलिए दाखिला मिल गया तो फेलोशिप पाने की संभावना भी रहेगी।

मित्रों की सलाह पर जनेवि में दाखिले के लिए अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा में बैठा। परिणाम आया तो पता चला, मैंने सन 1978 ‘बैच’ में ‘टॉप’ किया है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की फेलोशिप मिलना तय। लेकिन अभी तक एमए अंतिम वर्ष का मेरा रिजल्ट नहीं आया था।

सन 1975-77 के दौर में इमरजेंसी-विरोधी आंदोलनों का हमारे कैंपस पर भी प्रभाव पड़ा था। परीक्षाएं विलंब से हुई थीं, इसलिए रिजल्ट में देरी हो रही थी। जनेवि प्रवेश परीक्षा नियमावली के तहत एमए फाइनल का रिजल्ट आए बगैर भी कोई अभ्यर्थी प्रवेश पा सकता था, लेकिन दाखिले के बाद एक निश्चित अवधि के अंदर उसे अपना रिजल्ट जमा करना होता था। जनेवि में एम.फिल. की पढ़ाई-लिखाई शुरू हो गई। मेरे नाम यूजीसी की फेलोशिप भी घोषित हो चुकी थी। भारतीय भाषा केंद्र के उस बैच में जिन अन्य लोगों को फेलोशिप मिली, उनमें रवि श्रीवास्तव, अरुण प्रकाश मिश्र आदि प्रमुख थे। यह सभी मित्र आज किसी न किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर या विभागाध्यक्ष हैं।


जनेवि का पहला पड़ाव
दर्शनशास्त्र में शोध कर रहे कवि गोरख पांडे का कमरा (संभवत: 356, झेलम छात्रावास) मेरा पहला पड़ाव बना। अभी छात्रावास नहीं मिला था। गोरख पांडे का कमरा सिंगल बेड वाला था। वह जितने तेजस्वी दार्शनिक थे, उतने ही सृजनशील कवि और गीतकार थे। फकीराना ढंग से रहते थे। किसी बात की परवाह नहीं करते थे। पूरे जनेवि में अपने किस्म के अकेले छात्र थे। उनकी सारी ‘प्राइवेट-प्रॉपर्टी’ छोटे से तख्त पर बिछे मैले गद्दे के नीचे फैली रहती थी।
चाय पीने या कहीं बाहर जाना होता था, तो वह गद्दा हटाते और तख्त पर बिखरे रुपयों में से कुछ रकम निकाल कर चल देते थे। 
पांडे जी के जरिए ही जनेवि स्थित रेडिकल स्टूडेंट्स सेंटर (आरएससी) के छात्रों-कार्यकर्ताओं से परिचय हुआ। आरएससी एक ढीला-ढाला संगठन था। उसमें कार्यकर्ता कम बुद्दिजीवी ज्यादा थे, पर काफी पढ़े-लिखे थे। उनके कमरों में मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, माओ, चे और कास्ट्रो के अलावा क्रिस्टोफर कॉडवेल, रेमंड विलियम्स, रॉल्फ फॉक्स, गुन्नार मिर्डल, ज्यां पाल सात्र, सिमोन द बोआ, रॉल्फ मिलीबैंड, समीर अमीन, रजनी पामदत्त, रोमिला थापर और इरफान हबीब आदि की किताबें भरी रहती थीं। 


इनमें कुछ हमारे सीनियर थे और कुछ समकक्ष। जल्दी ही इनसे मैत्री हो गई। इनमें ज्यादातर को मेरे बारे में मालूम था कि इलाहाबाद में मैं एसएफआई से और बाद के दिनों में पीएसए नामक स्वतंत्र किस्म के वामपंथी छात्र संगठन से जुड़ा था। बाद के दिनों में यही पीएसए प्रगतिशील छात्र संगठन (पीएसओ) बना। इलाहाबाद के अलावा जनेवि और दिल्ली विश्वविद्यालय में भी यह सक्रिय रहा। पीएसओ से मेरी संबद्धता के बावजूद जनेवि स्थित एसएफआई के दो-तीन नेताओं से मेरा संबंध अपेक्षाकृत ठीक-ठाक था। इनमें प्रवीर पुरकायस्थ प्रमुख थे। वह मेरे इलाहाबाद के ‘सीनियर’ थे। अपना कमरा मिलने के बाद मैं गोरख के झेलम वाले कमरे से ब्रह्मपुत्र (पूर्वांचल) छात्रावास चला गया, लेकिन मुलाकात हमेशा होती रहती थी। कैंपस में वह मेरे लिए बड़े भाई की तरह थे, पर उनकी कुछ समस्याएं भी थीं। निशात कैसर उनके समकक्ष और मैं बहुत जूनियर था, पर कैंपस में सिर्फ हम दोनों ही किसी बात पर उन्हें डांट-फटकार सकते थे। अनेक मौकों पर वह हमारी बात मान भी जाते थे।



जनेवि बनाम इलाहाबाद
केंद्र में एमफिल कक्षाओं और सेमिनार पेपर आदि का दौर शुरू हो चुका था। नामवर सिंह को केंद्र का चेयरमैन पाकर हम जैसे दूरदराज से आए छात्र गौरवान्वित महसूस करते थे। उन्हें पहले भी (इलाहाबाद और बनारस में) देखा-सुना था, पर यहां तो वह साक्षात हमारे प्रोफेसर के रूप में थे। निस्संदेह, वह बहुत अच्छा पढ़ाते हैं। साहित्यिक आलोचना और साहित्येतिहास जैसे विषयों पर उन्हें सुनना एक अनुभव था।

इलाहाबाद में मेरे लिए सबसे आदरणीय अध्यापक रघुवंश थे और सबसे अच्छे व दोस्ताना अध्यापक दूधनाथ सिंह। पर जेएनयू में नामवर सिंह को सुनने के बाद लगा कि हिंदी और साहित्येतिहास के मामले में वह ज्ञान के सागर हैं। योरोपीय साहित्य आदि की भी उनकी जानकारी बहुत पुख्ता है, पर उनके व्यक्तित्व का एक पहलू मुझे बहुत परेशान करता था।

वह रहन-सहन और आचरण-व्यवहार में किसी सामंत (फ्यूडल) की तरह नजर आते थे। केंद्र के कुछेक छात्र उनके पैर छूते थे। कुछ छात्र तो उनके घर के रोजमर्रा के कामकाज में जुटे रहते थे। वह जब चलते, कुछ छात्र और नए शिक्षक उनके पीछे-पीछे चलने लगते। कुछ लोग उनकी बिगड़ी चीजें बनवाने में लगते तो कुछेक ऐसे भी थे, जो नियमित रूप से कैंपस स्थित उनके फ्लैट जाकर गुरुवर का आशीर्वाद ले आया करते थे। हमारे एक मित्र सुरेश शर्मा ने तो बाकायदा लेख लिखकर बताया है कि नामवर जी की एक खास घड़ी जब खराब हुई, तो उसे बनवाने में उन्होंने दिल्ली की खाक छान मारी पर नामवर जी ने सुयोग्य होने के बावजूद जामिया सहित कई जगहों पर हुई नियुक्तियों में उनकी कोई मदद नहीं की। उनसे काफी जूनियर और योग्यता में नीचे के लोगों की नियुक्तियां करा दीं।

अपने नामवर जी की तरह इलाहाबाद के रघुवंश मार्क्सवादी नहीं, पर छात्रों-शिक्षकों के प्रति नजरिए में वह ज्यादा सहज और लोकतांत्रिक थे। दिल्ली के नामीगिरामी मार्क्सवादी (हिंदी) आलोचकों-शिक्षकों के मुकाबले निजी और प्रोफेशनल जीवन में वह भी ज्यादा सुसंगत और लोकतांत्रिक नजर आते थे।

मुझे आज भी याद है कि उन दिनों मेरा एक छोटा सा सर्जिकल-ऑपरेशन हुआ था और मैं डायमंड जुबिली छात्रावास के कमरा नंबर 38 में लेटा रहता था। एक दिन अचानक देखा, दूधनाथ सिंह और मालती तिवारी मुझे देखने कमरे में आ गए। ऐसा सिर्फ मेरे साथ नहीं था, दूसरे छात्रों के साथ भी रघुवंश, दूथनाथ या मालती तिवारी जैसे शिक्षकों का व्यवहार आमतौर पर ज्यादा मानवीय और उदार था। कम से कम वे चाटुकारिता को रिश्तों का आधार नहीं बनाते थे। मेरा उनसे विधिवत परिचय एमए प्रथम वर्ष के परीक्षाफल आने के बाद ही हुआ। इसके पहले वह मुझे ठीक से जानते भी नहीं थे। प्रथम वर्ष में जो पेपर वह पढ़ाते थे, उसमें मुझे सर्वोच्च अंक मिले थे। फिर उनसे क्लास के बाहर भी संवाद का सिलसिला बन गया, पर जनेवि के जनवादी माहौल के बावजूद मुझे कम से कम भारतीय भाषा केंद्र में इस तरह के माहौल का अभाव दिखा। नामवर जी के प्रिय शिष्यों की परंपरा के प्रमुख नामों की सूची बनाई जाए, तो इसमें अनेक ऐसे नाम मिलेंगे जिन्होंने गुरुदेव की सेवा का मेवा खूब खाया। लेकिन यहां यह बताना भी जरूरी है कि उनके प्रिय छात्रों में कुछ मेधावी और तेज भी थे। 



हमारे सीनियर्स में मनमोहन, उदय प्रकाश, सुभाष यादव, विजय चौधरी और सुरेश शर्मा विभाग के प्रतिभाशाली छात्रों में शुमार होते थे, पर मनमोहन को रोहतक में अध्यापकी से संतोष करना पड़ा, उदय प्रकाश ने कुछ समय पूर्वोत्तर में अध्यापकी की, फिर दिल्ली लौट आए। स्वतंत्र लेखन, पत्रकारिता और फिल्मनिर्माण के जरिए उन्होंने हिंदी रचना जगत में अपनी खास पहचान बनाई। सुभाष यादव को बिहार के किसी कॉलेज में जगह मिली। सुरेश शर्मा ने मेरी तरह पत्रकारिता का रास्ता चुना। कुलदीप कुमार, राजेद्र शर्मा, नागेश्वर, मदन राय या मेरे जैसे छात्र गुरुदेव को शायद बिल्कुल ही पसंद नहीं थे। विजय चौधरी सृजनशील थे और एक समय नामवर जी के करीबी भी, पर बाद में पता नहीं क्या हुआ? जनेवि से बाहर आकर वह वृत्तचित्र निर्माण से जुड़े। चमनलाल को भी जनेवि आने के लिए बरसों इंतजार करना पड़ा। संभवत: वह नामवर जी के निष्प्रभावी होने के बाद ही जनेवि में नियुक्ति पा सके। लंबे समय तक वह पंजाब विश्वविद्यालय, पटियाला में पढ़ाते रहे। शुरुआती दिनों में उन्होंने बैंक की नौकरी और फिर जनसत्ता की उप संपादकी की।



केंद्र का ‘निर्माण’
भारतीय भाषा केंद्र में हमारे दूसरे प्रतिभाशाली अध्यापक थे- मैनेजर पांडे। कक्षा में ‘चिचिया’ कर पढ़ाने के उनके अंदाज का हम लोग खूब मजा लेते थे। अपने लेखन और अध्यापन के लिए वह मेहनत करते थे। केदारनाथ सिंह काव्य साहित्य ठीक-ठाक पढ़ाते थे। नामवर जी उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश के पडरौना के एक डिग्री कॉलेज से सीधे जनेवि ले आए थे। दोनों सिंह-बंधु बाद में समधी बने। हमारी एक अध्यापिका थीं-सावित्री चंद्र शोभा। वह नामवर सिंह की अध्यक्षता वाले भारतीय भाषा केंद्र की वाकई शोभा थीं। देश के हिंदी विभागों के चेहरे का वह प्रतिनिधित्व करती थीं। अगर आपका रसूख वाले लोगों से संपर्क है तो रचनात्मकता, समझ और ज्ञान के बगैर हिंदी विभागों में नियुक्त होना कितना आसान है, शोभा जी इसका साक्षात उदाहरण थीं। जनेवि में सभी बताते थे कि शोभा जी को नामवर सिंह ने ही नियुक्त कराया। उनके पति जाने-माने इतिहासकार और यूजीसी के तत्कालीन चेयरमैन सतीश चंद्र के नामवर जी पर कई तरह के अहसान थे। स्वयं नामवर जी ने इस बारे में अपने एक इंटरव्यू में आधा-अधूरा इसका खुलासा किया है—

’मुझे ठीक से याद नहीं है, हिंदी की नियुक्ति (शोभा जी और सुधेश जी की) मेरे सेंटर में आने के बाद हुई थी या फिर मैं विशेषज्ञ के रूप में आया था। क्योंकि जो चयन समिति हुई थी, संभवत: मेरे आने के बाद हुई थी क्योंकि डॉ. नगेंद्र विशेषज्ञ थे, एक विशेषज्ञ देवेंद्र नाथ शर्मा थे और मैं अध्यक्ष था। रीडर और लेक्चरर की दो नियुक्तियां हुईं, जिसमें सुधेश जी और शोभा जी आए। …शोभा जी चूंकि यूजीसी चेयरमैन की पत्नी थीं, तो लगभग तय सा था …विनय राय से मैंने कहा कि भाई, मुसीबत में फंस गया हूं। उन्होंने कहा, यूजीसी रुपया देती है, चेयरमैन की बीवी को नहीं रखेंगे, तो किसको रखेंगे? किसी तरह निभाइए …बीएम चिंतामणि के पिता जी और हमारे नागचौधरी साहब के पिता जी मित्र थे, पारिवारिक संबंध थे। इस नाते नागचौधरी जी (जनेवि के तत्कालीन कुलपति) ने मुझे बुलाकर चिंतामणि जी को टेम्पोरेरी रखने की बात की। द्विवेदी जी के नाते भी चिंतामणि जी को मैंने ले लिया।’     (जेएनयू में नामवर सिंह, पृष्ठ 26-27 और 31)।

जिन लोगों ने उस दौर में जनेवि के भारतीय भाषा केंद्र में अध्ययन-अध्यापन किया या विभाग के बारे में जिनकी तनिक भी जानकारी है, वे आज भी बता सकते हैं कि चिंतामणि जी और शोभा जी की कक्षाओं में जाना या अध्ययन से जुड़े किसी विषय पर उनसे बातचीत करना किस तरह एक दुर्दांत-दुष्कर यात्रा करने जैसा था। …इस तरह नामवर जी ने जनेवि जैसे ‘एकेडेमिक एक्सलेंस’ वाले संस्थान में हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की आधारशिला रखी। हां, मैनेजर पांडे के आने के बाद हालात जरूर बदले। वह योग्य-समर्थ शिक्षक साबित हुए। जब मैंने दाखिला लिया तो हिंदी में नामवर जी, पांडे जी और केदार जी ही केंद्र के तीन स्तंभ थे। नामवर जी के सुयोग्य-संरक्षण में शोभा-चिंतामणि जी जैसी नियुक्तियां आखिरी नहीं साबित हुईं। डीयू, जनेविू जामिया और इग्नू सहित भारत के अनेक विश्वविद्यालयों में अगर आज शोभा-चिंतामणि जी जैसी प्रतिभाएं हिंदी विभागों की शोभा बढ़ा रही हैं, तो इसमें हिंदी के अन्य करतबी मठाधीशों के साथ अपने आदरणीय गुरुदेव का भी कम योगदान नहीं है? 



पिछले दिनों एक किताब आई है, जेएनयू में नामवर सिंह (राजकमल प्रकाशन)। संपादन किया है- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जनेवि) की पूर्व छात्रा और जानीमानी कवयित्री सुमन केशरी ने। पुस्तक में नामवर जी के व्यक्तित्व के कई पहलुओं को कमोबेश कवर किया गया है, पर कुछेक पहलू छूट गए हैं। उनके एक छात्र (अयोग्य ही सही) और हिंदी का एक अदना-सा पत्रकार होने के नाते मेरे मन में हमेशा एक सवाल कुलबुलाता रहा है, ‘नामवर सिंह ने इतने लंबे समय तक देश के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र की अध्यक्षता की, उसका मार्गदर्शन किया, इसके बावजूद यह केंद्र (उनके कार्यकाल के दौर में) देश में भारतीय भाषाओं के साहित्य व भाषा के अध्ययन-अध्यापन और शोध क्षेत्र में कोई वैसा बड़ा योगदान क्यों नहीं कर सका, जिसकी इससे अपेक्षा की गई थी! वह इसे सही अर्थों में भारतीय भाषाओं का केंद्र क्यों नहीं बना सके?’ चूंकि इस विषय पर मेरा कोई विशद अध्ययन और शोध नहीं है, इसलिए सवाल का कोई ठोस जवाब भी नहीं दे सकता। लेकिन केंद्र के छात्र के तौर पर तकरीबन चार-सवा चार साल जेएनयू में रहने का मौका मिला, उसके नाते यहां सिर्फ अपने कुछ अनुभव बांट सकता हूं। 



जनेवि में मेरा सब कुछ ठीक चल रहा था। शुरुआती झिझक के बाद मुझे अच्छा लगने लगा। वहां का माहौल, समृद्ध पुस्तकालय, सीनियर छात्रों की बौद्धिक तेजस्विता, बहस-मुबाहिसे का उच्च स्तर, बड़े कुलीन या उच्च मध्यवर्गीय घरों से आए सोशल साइसेंज या इंटरनेशनल स्टडीज के प्रतिभाशाली लड़के-लड़कियों के बीच पिछड़े इलाकों से आए दलित व पिछड़े वर्ग के अपेक्षाकृत अभावग्रस्त जीवन के आदी रहे प्रखर छात्रों की अच्छी-खासी संख्या, अपेक्षाकृत सहिष्णु माहौल, सस्ता बढिय़ा खाना, सात या बारह रुपए में महीने भर का डीटीसी की बसों का रियायती पास, हर रोज तीनमूर्ति होते हुए सप्रू हाउस (मंडी हाउस) जाने वाली जनेवि की मुफ्त बससेवा, झेलम लॉन और गोदावरी के पास वाले टी-स्टाल की शामें, रात को होने वाली छात्र-सभाएं, संगोष्ठियां और बहस-मुबाहिसे, सब कुछ मुझे अच्छा लगने लगा। अलग-अलग छात्रावास में होने के बावजूद पांडे जी, निशात कैसर, चमनलाल, मदन राय, आनंद कुशवाहा, कोदंड रामा रेड्डी, अशोक टंकशाला, वी मोहन रेड्डी, जे मनोहर राव, डी रविकांत और ए चंद्रशेखर जैसे समान सोच के मित्रों से अक्सर ही मुलाकात होती रहती थी। थोड़ी-बहुत छात्र-राजनीति की गतिविधियां भी शुरू हो गईं।



जाति का यथार्थ
हमारे केंद्र में पढ़ाई-लिखाई शुरू हो गई थी। एमफिल के शुरुआती दिनों में कक्षाएं भी चलती हैं। फिर सभी छात्र सेमिनार पेपर-टर्म पेपर की तैयारी में जुट जाते हैं और अंत में डिसर्टेशन पर काम शुरू करते हैं। मैं नामवर जी, केदार जी और पांडे जी की कक्षाएं या सेमिनार आदि कभी नहीं छोड़ता था, लेकिन नामवर जी के मुकाबले पांडे जी से मेरी निकटता बढ़ रही थी। शोभा जी की क्लास में जाना और लगातार बैठे रहना दर्द के दरिया से गुजरने जैसा था। एक दिन मैं किसी क्लास से निकलकर जा रहा था कि चेयरमैन ऑफिस के एक क्लर्क ने आकर कहा कि नामवर सिंह आपको चैंबर में बुला रहे हैं। 



मैं अंदर दाखिल हुआ तो देखा कि नामवर जी के साथ केदार जी भी वहां बैठे हुए हैं। नामवर जी ने बड़े प्यार से बैठने को कहा। पहले थोड़ी बहुत भूमिका बांधी, ‘आप तो स्वयं वामपंथी हैं और यह जानते हैं कि आप और हमारे जैसे लोगों के लिए जाति-बिरादरी के कोई मायने नहीं होते, पर भारतीय समाज में सब किसी न किसी जाति में पैदा हुए हैं। आप तो ठाकुर हो न?’ मैंने कहा, ‘नहीं।’ एक शब्द का मेरा जवाब सुनकर नामवर जी और केदार जी शांत नहीं हुए। अगला सवाल था, ‘फिर क्या जाति है आपकी, हम यूं ही पूछे रहे हैं, इसका कोई मतलब नहीं है।’ मैंने कहा, मैं एक गरीब किसान परिवार में पैदा हुआ हूं, पर दोनों को इससे संतोष नहीं हुआ तो मुझे अंतत: अपने किसान परिवार की जाति बतानी पड़ी। आखिर गुरुओं को कब तक चकमा देता! जाति-पड़ताल में सफल होने के बाद नामवर जी ने कहा, ‘अच्छा, अच्छा, कोई बात नहीं। जाइए, अपना काम करिए।’ बीच में केदार जी ने भी कुछ कहा, जो इस वक्त बिल्कुल याद नहीं आ रहा है। ऐसा लगा कि दोनों गुरुदेवों का जिज्ञासु मन शांत हो चुका था। 



इस घटनाक्रम से मैं स्तब्ध था। जनेवि में अब तक किसी ने भी मेरी जाति नहीं पूछी थी। अपने बचपन में पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों में लोगों को किसी अपरिचित से उसका नाम, गांव और जाति आदि पूछते देखा-सुना था। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मेरी जाति पूछकर या जानकारी लेकर किसी को क्या मिल जाएगा या उसका कोई क्या उपयोग कर सकेगा? मैं चकित था कि जनेवि के दो वरिष्ठ प्रोफेसरों की अचानक मेरी जाति जानने में ऐसी क्या दिलचस्पी हो गई! 



मैं इस वाकये को भुलाने की कोशिश करता रहा। दूसरे या तीसरे दिन गोरख पांडे से जिक्र किया तो किसी विस्मय के बगैर उन्होंने कहा, ‘अरे भाई, इसे लेकर आप इतना परेशान क्यों हैं? नामवर जी को लेकर कोई भ्रम मत पालिए। वह ऐसे ही हैं।’ पर मुझे लगा … और आज भी लगता है कि नामवर जी निजी स्वार्थवादी और गुटबाज ज्यादा हैं। जहां तक जाति-निरपेक्षता का सवाल है, हिंदी क्षेत्र के अनेक ‘प्रगतिकामियों’ की तरह उनसे इसकी अपेक्षा ही क्यों की जाए! पिछले दिनों, लखनऊ और दिल्ली में उन्होंने दलित-पिछड़ा आरक्षण के खिलाफ जिस तरह की टिप्पणियां कीं, उससे भी उनके मिजाज का खुलासा होता है। लेकिन जनेवि में एआइएसएफ वाले उन्हें अपना ‘फ्रेंड-फिलास्फर-गाइड’ मानते थे। वहां की छात्र-राजनीति में एआइएसएफ वालों की हालत आज बहुत पतली है। एक छात्र के तौर पर मैं नामवर जी को जितना समझ पाया, उसके आधार पर कह सकता हूं कि उन्हें दो तरह के लोग पसंद हैं—वे, जो किसी विचार के हों या न हों, उनके चाटुकार हों, उनका निजी कामकाज कर दें और जरूरी चीजें लाते रहें और दूसरे, वे जो कुछ पढ़े-लिखे हों, जो उनका गुणगान करें या उनके बौद्धिक-साहित्यिक प्रतिस्पर्धियों के खिलाफ अपने लेखन या संगोष्ठी-सेमिनार आदि में तलवारें भांज सकें। 



चूंकि, मैं उनके ‘गुट’ का कभी हिस्सा नहीं था और इन दोनों श्रेणियों में फिट नहीं बैठता था, इसलिए शायद उन्होंने मेरी जाति जानने में दिलचस्पी दिखाई होगी। वह स्वयं भी पूर्वी उत्तर प्रदेश के ही तो हैं, जहां गांव-कस्बों में किसी की जाति पूछना सामान्य-सी बात मानी जाती रही है। अगर नामवर जी सिर्फ भाकपावादी होते तो प्रतिबद्ध और ईमानदार भाकपाई और समर्थ कवि रामकृष्ण पांडे को जनेवि में लेक्चरशिप मिल जानी चाहिए थी। पर पांडे जी को वहां नौकरी नहीं मिली, उन्होंने ताउम्र न्यूज एजेंसी ‘वार्ता’ में डेस्क पर काम किया और असमय ही दिवंगत हो गए। कई अन्य छात्र, जो एआइएसएफ से संबद्ध थे, ठीक-ठाक होने के बावजूद जेएनयू में नौकरी नहीं पा सके। सिर्फ उन्हीं भाकपाई-छात्रों को उन्होंने दिल्ली या बाहर के विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों में नौकरियां दिलवाईं, जो थोड़े-बहुत प्रभावशाली या उनके किसी काम के थे या फिर ‘चंगू-मंगू’ की तरह उनके आगे-पीछे लगे रहते थे। केंद्र की ‘एडमिशन-लिस्ट’ देखकर भी उनकी पसंद को समझा जा सकता है। 



एक उदाहरण देखिए, सन 1980 की एम फिल एडमिशन-लिस्ट में पहली से पाचवीं पोजीशन पर एक से बढ़कर एक आए। कोई नहीं बता सकता कि इनका हिंदी रचनाशीलता और समाज में आज क्या योगदान है! पर कुलदीप कुमार को कुल 20 छात्रों की सूची में 14वीं पोजीशन पर रखा गया, ताकि उन्हें फेलोशिप कभी न मिल सके। वह सृजनशील थे, अंतत: उन्हें जनेवि छोड़कर अंग्रेजी पत्रकारिता में जाना पड़ा। कई साल वह जर्मन रेडियो में भी रहे। अब वह द हिंदू सहित देश के कई प्रमुख अखबारों में सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों पर नियमित स्तंभ लिखते हैं।



मेरा सिंहत्व
यह बताना जरूरी है कि मैंने अपना लेखन ‘उर्मिलेश’ नाम से शुरू किया, पर स्कूल रजिस्टर में मेरा नाम ‘उर्मिलेश सिंह’ था, जो विश्वविद्यालय के समय तक हर आधिकारिक रिकॉर्ड में बना रहा। मेरे पासपोर्ट में भी यही नाम रहा है। पर मुझे विश्वविद्यालय या बाहर, हर कोई उर्मिलेश नाम से ही पुकारता रहा है, कोई उर्मिलेश सिंह या मिस्टर सिंह नहीं कहता रहा है।

सरनेम के तौर पर यह ‘सिंह’ मेरे नाम के साथ कैसे आ चिपका, इसकी भी एक कहानी है।

गांव के प्राइमरी स्कूल में दाखिले के वक्त पिता जी मुझे स्कूल लेकर गए थे। वह अद्भुत व्यक्ति थे, गरीब, निरक्षर पर ज्ञानवान। स्कूल के हेडमास्टर संभवत: उन दिनों ताड़ीघाट के पास के गांव मेदिनीपुर के मिसिर जी थे। वह हमारे गांव के पिछड़े समुदाय के लोगों से बहुत चिढ़ते थे। कहा भी करते थे, ‘अबे, अहीर-गड़ेरी पढ़ाई करके क्या करेंगे, जाकर भैंस, गाय, भेड़ चराएं!’ लेकिन गरीब किसान होने के बावजूद मेरे पिता और मेरे परिवार की आसपास के इलाके में प्रतिष्ठा थी। पिता जी राजनीतिक रूप से जागरूक और सक्रिय थे, गांव के दलितों-पिछड़ों के बीच उनकी अच्छी पकड़ थी। बड़े भाई पढऩे में तेज थे और पूरे क्षेत्र में हॉकी के जाने-माने खिलाड़ी भी। मिसिर जी हमारे परिवार वालों को बाकी यादवों से ज्यादा ‘सभ्य’ समझते थे। शायद, कुछ अलगाने के लिए ही उन्होंने मेरे नाम में ‘सिंह’ सरनेम जोड़ दिया। पिता जी को भी नहीं बताया, उनसे सिर्फ यही पूछा कि बच्चे का क्या नाम रखा है, पिता जी ने कहा, उर्मिलेश। सिर्फ मेरे नाम के साथ ही उन्होंने खेल नहीं किया, मेरे पिता का नाम था-सरजू सिंह यादव तो उन्होंने लिख दिया-सूर्य सिंह। नामों का संस्कृतीकरण!

मेरा उर्मिलेश नामकरण भी दिलचस्प ढंग से हुआ था।

मेरे बड़े भाई जब ग्यारहवीं या बारहवीं में पढ़ते थे, तो मेरा जन्म हुआ। वह मां-पिता की पहली संतान थे और मैं आखिरी। बीच में मेरे दो-तीन भाई-बहन हुए, पर वे जिंदा नहीं रह सके। कुछ तो पैदाइश के वक्त ही मरे थे। मेरी पैदाइश से पहले एक भाई, जिसका नाम मुसाफिर था, कुछ बड़ा होकर मरा। उन दिनों गांव में डॉक्टर या अस्पताल आदि की सुविधा नहीं थी। उससे भी बड़ी समस्या परिवार की गरीबी थी। मैं जब पैदा हुआ तो बचने की उम्मीद कम थी। मां ने बचपन में बताया था कि मेरा वजन बहुत कम था, जो भी देखता, कहता, यह भी शायद ही बचे। पर मैं बच गया। उधर, मेरे बड़े भाई साहब, इस बार बहन पाने की उम्मीद लगाए थे, पर मिल गया भाई। उन्होंने अपनी संभावित बहन का नाम भी तय कर रखा था-उर्मिला। वह साहित्य खूब पढ़ते थे। उन दिनों मैथिलीशरण गुप्त की किताब साकेत पढ़ रहे थे, जिसमें उर्मिला का चरित्र बहुत उभरकर सामने आता है। जब भाई पैदा हुआ, तो उन्होंने नाम रख दिया-उर्मिलेश। स्कूल में नामांकन के वक्त पिता जी के साथ भाई साहब होते तो शायद मिसिर जी को मेरे और पिता जी के नाम के साथ मनमानी करने का मौका नहीं मिला होता। मेदिनीपुर वाले मिसिर जी की यही खुराफात शायद वर्षों बाद नामवर सिंह जैसे ‘दिग्गज मार्क्सवादी आलोचक’ के ‘कन्फ्यूजन’ का कारण बनी।



इलाहाबाद को बैरंग
जनेवि में दाखिले के कुछ ही समय बाद, मुझे बैरंग इलाहाबाद लौटना पड़ा, जहां मित्रों के सहयोग से मैंने सत्र के शेष दिन बिताए। मेरा ज्यादा वक्त अपनी निजी पढ़ाई-लिखाई और पीएसओ की गतिविधियों को समर्पित रहा। दाखिला रद्द होने की कहानी भी कुछ कम दिलचस्प नहीं। पहले वाकये की तरह, एक दिन अचानक नामवर जी ने मुझे अपने चैंबर में बुलवाया। इस बार वह अकेले थे। मैं डरते-डरते गया, इस बार पता नहीं क्या पूछेंगे? चैंबर में दाखिल होते ही उन्होंने पूछा, उर्मिलेश जी, आपका एमए फाइनल का रिजल्ट अभी आया कि नहीं? मैंने कहा, नहीं सर। बस आने वाला है। 



उन्होंने बताया कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने उन छात्रों की सूची मांगी है, जिन्होंने अब तक अपना फाइनल रिजल्ट नहीं जमा किया है। भारतीय भाषा केंद्र से उसमें आपका नाम जा रहा है। नियमानुसार, आपका एडमिशन रद्द हो जाएगा। मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा। उनके चैंबर से उदास मन लौटा। कुछ दिनों पहले, नामवर जी से उनके चैंबर में हुई पिछली मुलाकात याद आने लगी। उस दिन मैं बेहद परेशान रहा। उन दिनों बाहर से फोन आदि करके सारी जानकारी ले पाना कठिन था, इसलिए अगले ही दिन मैं अपर इंडिया एक्सप्रेस से इलाहाबाद के लिए रवाना हो गया। विभाग में सबसे मिला। रजिस्ट्रार से भी बातचीत हुई। सबने कहा, रिजल्ट जल्दी ही आ जाएगा। मैंने विभाग से एक परिपत्र भी ले लिया, जिसमें लिखा था कि उर्मिलेश सिंह फाइनल के छात्र हैं और इनका परीक्षाफल आने वाला है। कृपया इन्हें अपेक्षित सहयोग और मोहलत दी जाए, लेकिन दिल्ली में नामवर सिंह पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। उन्होंने मेरे एडमिशन को रद्द कराने की प्रक्रिया शुरू करा दी। 



केंद्र की स्टूडेंट्स फैकल्टी कमेटी (एसएफसी) के कुछ छात्र-सदस्य भी चाहते थे कि मेरा एडमिशन जल्दी रद्द हो जाए। इसके दो फायदे थे। एडमिशन के लिए ‘वेटिंग’ में पड़े किसी एक छात्र का एडमिशन हो जाता और किसी एक एडमिशन ले चुके छात्र को मेरी वाली यूजीसी फेलोशिप मिल जाती। इनमें कुछेक एसएफसी सदस्य नामवर जी के पटु शिष्य थे। कोशिश की गई कि मेरे एडमिशन रद्द किए जाने के मामले में छात्र संघ (एसएफआई-एएसएफआई नियंत्रित) की तरफ से कोई पंगा न हो। जहां तक मुझे याद आ रहा है सितंबर के अंतिम सप्ताह से ही मेरे एडमिशन पर खतरे के बादल मंडराने लगे। कुछ छात्र नेताओं ने प्रवीर दा के कहने पर मेरे मामले में विश्वविद्यालय-उच्चाधिकारियों से बातचीत भी की। कुछ दिनों की मोहलत मिली, लेकिन मेरा रिजल्ट उस वक्त तक नहीं आया और जहां तक मुझे याद आ रहा है, अंतत: अक्टूबर में मुझे केंद्र से बोरिया-बिस्तर बांधने को कह दिया गया। हालांकि एडमिशन रद्द करने संबंधी औपचारिक परिपत्र नवंबर, 1978 में जारी किया गया। 



बाद में पता चला कि जनेवि के कुछ अन्य केंद्रों में भी ऐसे मामले सामने आए। रूसी अध्ययन केंद्र में कम से कम दो छात्रों को, जिनका रिजल्ट मेरी तरह लंबित था, उन्हें जनवरी, 79 के पहले सप्ताह तक की मोहलत दी गई। केंद्र के छात्र रह चुके कैसर शमीम ने बाद के दिनों में इस बात की पुष्टि की। वह उन दिनों केंद्र और भाषा संकाय की कई शैक्षणिक-प्रशासनिक इकाइयों में छात्र-प्रतिनिधि के तौर पर शामिल थे। जिनको मोहलत मिली, वह भाग्यशाली रहे। उनका मेरी तरह एक साल बर्बाद नहीं हुआ। पर इसके लिए मैं नामवर जी पर कोई दोषारोपण नहीं कर रहा हूं। उन्होंने तो बस ‘नियमों का पालन करते हुए’ मेरा दाखिला रद्द करा दिया। …और मोहलत पाने की उनसे अपेक्षा भी नहीं थी। 



कुछ ही दिनों बाद, मैं इलाहाबाद लौट आया। छात्र-राजनीति में सक्रियता के अलावा वर्तमान नाम से हम लोगों ने एक पत्रिका भी निकाली थी। इसके संपादक मंडल में मेरे अलावा रामजी राय और राजेंद्र मंगज थे। कृष्ण प्रताप सिंह (दिवंगत केपी सिंह) और विभूति नारायण राय (तब तक आइपीएस हो चुके थे) पर्दे के पीछे से हमारी पत्रिका के प्रमुख संसाधक थे। पत्रिका का दफ्तर मेरे कमरे से चलता था। इसके अलावा एक स्टडी सर्किल भी हम लोग चलाते थे, जिसमें विश्वविद्यालय के छात्रों-शिक्षकों के अलावा बीच-बीच में कुछ तरक्कीपसंद वकील, पत्रकार, कवि-लेखक और अन्य प्रोफेशनल्स भी आते रहते थे। इसके कुछेक हिस्सेदार आज देश के जाने-माने न्यायविद्, नौकरशाह, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता और लेखक-कवि हैं। 



जनेवि को वापसी
अगले साल, यानी 1979 में जेएनयू में एम.फिल.-पी-एचडी के दाखिले के लिए फिर से फार्म भरा। परीक्षाफल आया तो ज्यादा निराशा नहीं हुई। मेरा एडमिशन हो गया, इस बार कुल 20 छात्रों की सूची में तीसरा नंबर था। फेलोशिप मिलना तयशुदा था। उन दिनों भारतीय भाषा केंद्र में कम से कम तीन या चार फेलोशिप आसानी से मिल जाती थीं। शुरू में लगा था कि पता नहीं, इस बार मेरा दाखिला होगा कि नहीं, पर कई लोगों ने सही ही कहा कि पिछले साल के अपने टॉपर को केंद्र दाखिले से वंचित कैसे रखता? मेरा इंटरव्यू भी अच्छा हुआ था। एमए फाइनल का परीक्षाफल भी आ चुका था, 65.5 फीसदी अंकों के साथ इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अपने विभाग में मेरी दूसरी पोजीशन थी। 



जहां तक मुझे याद आ रहा है पहली पोजीशन इस बार पुरुषोत्तम अग्रवाल की थी। दूसरे स्थान पर संभवत: पटना विश्वविद्यालय से आए रामानुज शर्मा रहे। पुरुषोत्तम ने जनेवि से ही एमए किया था और नामवर जी के प्रिय शिष्य के अलावा एएसएफआई के सक्रिय कार्यकर्ता भी थे। पढऩे-लिखने और बोलने में भी वह तेज थे। रामानुज जी मितभाषी थे और नंद किशोर नवल के करीबी थे, बातचीत में अक्सर उनका उल्लेख किया करते थे। हम दोनों को एक ही छात्रावास में आसपास कमरा मिला था। बाद में मुझे महानदी (मैरिड छात्रावास) मिल गया, तो पत्नी के साथ रहने लगा। इसी छात्रावास में दिग्विजय सिंह (अब दिवंगत), बाबूराम भट्टराई (नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री) और हिसिला यमी, सुखदेव और विमल थोराट भी रहा करते थे। बहरहाल, नए सत्र में मैंने एमफिल डिसर्टेशन के लिए राहुल सांकृत्यायन पर काम करने का फैसला किया। मेरे गाइड थे – मैनेजर पांडे। फरवरी, 1982 में मुझे एमफिल एवार्ड हो गई। 



पीएचडी के लिए डा. पांडे के ही निर्देशन में ‘प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन में वैचारिक संघर्ष (सन 1946-54)’ विषय पर काम शुरू कर दिया था। फेलोशिप के पैसों से हम लोगों का काम यहां आराम से चल जाता था। कभी-कभी मां को भी गांव मनीऑर्डर कर दिया करता था। पढ़ाई के साथ छात्र-राजनीति में भी मेरी सक्रियता बढ़ चुकी थी। जनेवि में पीएसओ का मैं संयोजक या सचिव भी रहा। कुछ समय के लिए पीएसओ की दिल्ली राज्य कमेटी का भी पदाधिकारी था। सन 80 या 81 में मैंने डीएसएफ (पीएसओ-आरएसएफआई का मोर्चा) के बैनर तले जनेवि छात्रसंघ के महासचिव पद का चुनाव भी लड़ा। एसएफआइ-एआइएसएफ गठबंधन की नमिता सिन्हा से चुनाव तो मैं हार गया, पर एक नया रिकॉर्ड भी बना। नौ सौ या एक हजार की छात्र संख्या वाले जनेवि में संभवत: मुझे 289 वोट मिले। सीपीआइ-सीपीएम धारा से बाहर के स्वतंत्र वामपंथी खेमे के किसी उम्मीदवार को जनेवि में अब तक इतने वोट कभी नहीं मिले थे।



विश्वविद्यालय से निष्कासन
सन् 1983 की गर्मियों में जनेवि की पहाडिय़ां नारों से गूंजने लगीं। डाऊन से अप कैंपस तक पूरा विश्वविद्यालय पोस्टरों-बैनरों से पट चुका था। केंद्र सरकार के दबाव में विश्वविद्यालय प्रशासन ने जनेवि की प्रगतिशील और सामाजिक न्याय-पक्षी प्रवेश नीति को बदलने का ऐलान कर दिया। छात्रों की तरफ से इसकी जबर्दस्त मुखालफत हुई। छात्रसंघ के नेतृत्व ने शुरू में थोड़ी ना-नुकुर की, पर बड़ा आंदोलन छेडऩे की छात्रों की भावना को देखते हुए वह भी समर्थन में आ गया। जेएनयू के इतिहास में वैसा आंदोलन न पहले कभी हुआ और न आज तक देखा गया। इसमें तीन सौ से ज्यादा छात्र तिहाड़ जेल भेज दिए गए। इनमें नब्बे फीसदी देश के विभिन्न राज्यों से आकर जनेवि में पढ़ रहे प्रथम श्रेणी के प्रतिभाशाली छात्र थे। इनमें कइयों ने तो आइएएस जैसी सिविल सर्विस परीक्षाएं भी उत्तीर्ण कर ली थीं। राजनीतिक हस्तक्षेप और बहुदलीय दबाव के बाद प्रशासन ने छात्रों पर लंबित मामलों को बिना शर्त वापस कर लिया, पर आंदोलन की नेतृत्वकारी टीम के संभवत: 17 छात्रों को कुछ समय के लिए (एक साल से तीन साल) के लिए कैंपस से बाहर कर दिया गया। इनमें मैं भी शामिल था। 



आंदोलन छिडऩे से पहले मैं अपनी पीएचडी थीसिस जमा करने की तैयारी कर रहा था। एनसीईआरटी के पास एक टाइपिस्ट से शोध-प्रबंध के अध्यायों को क्रमवार टाइप करने को लेकर बात भी हो चुकी थी। अब पीएचडी भी लटक गई। खाने-पीने और रहने के लाले पड़ गए। फेलोशिप से वंचित हो चुके थे। पत्नी घर चली गईं। कुछ दिनों बाद मैं भी घर गया। लेकिन वहां क्या करता, जल्दी ही दिल्ली लौट आया। विश्वविद्यालय के कई शिक्षकों ने हम जैसों के हालात पर चिंता जताई। सहयोग का आश्वासन भी दिया। लेकिन इस घटना के बाद गुरुदेव नामवर ने मुझसे कभी नहीं पूछा कि तुम क्या कर रहे हो या आगे की जिंदगी के लिए क्या योजना है? जनेवि के डाउन कैंपस के एक कर्मचारी फ्लैट में ईश, शशिभूषण और राहुल जैसे कुछ दोस्त रह रहे थे। मैंने भी वहीं डेरा डाला। 



एक दिन अचानक विश्वविद्यालय के एक शीर्ष अधिकारी की तरफ से मुझे उनके एक परिजन ने संदेश दिया कि आप अगर एक पंक्ति में लिख कर दे दें कि ‘9 मई, 83 को जो कुछ हुआ, उसके लिए मुझे खेद है’ तो आपको फिर से कैंपस में इंट्री मिल जाएगी, फेलोशिप जारी रहेगी और आप अपनी पीएचडी थीसिस जमा करा सकेंगे। जिन सज्जन ने मुझे यह संदेश दिया, वह उन दिनों राजस्थान में काम करते थे। मैंने विनम्रतापूर्वक कहा कि ऐसा मैं नहीं कर सकता। हम लोगों ने अन्याय के विरोध में आंदोलन किया था, उस पर खेद प्रकट करने का कोई सवाल ही नहीं उठता। अगर विश्वविद्यालय प्रशासन मेरे परिवार की खराब आर्थिक स्थिति और मेरे कथित उज्ज्वल अकादमिक भविष्य के प्रति इतना संवेदनशील है, तो उसे इस तरह की कोई शर्त ही नहीं रखनी चाहिए। 



कुछ समय बाद, मैं दिल्ली में सामाजिक-राजनीतिक कामकाज करते हुए लेखन-अनुवाद आदि से अपनी आर्थिक जरूरतें पूरी करने में जुट गया। लेकिन यह आसान नहीं था। मैं किसी पार्टी का होलटाइमर तो था नहीं। आय या गुजारे का कोई और स्रोत भी नहीं दिख रहा था। घर चलाने के लिए जितनी जरूरत थी, वह हिंदी में फ्रीलांसिंग से संभव नहीं नजर आ रही थी। मई, 83 के ‘भूचाल’ से पहले भी मैं लेक्चरशिप पाने की कोशिश करता आ रहा था, सन 81-82 से ही लगातार रिक्तियां देखकर आवेदन कर देता, पर कभी इंटरव्यू में छंट जाता तो कभी काल-लेटर ही नहीं आता। जहां तक मुझे याद आ रहा है, तब मैं जेएनयू में पीएचडी कर रहा था और एमफिल एवार्ड हो चुकी थी। एक दिन मैनेजर पांडे डाउन कैंपस बस स्टैंड पर मिल गए। उन्होंने पूछा, ‘अरे भाई, आपने कुमाऊं विश्वविद्यालय में अप्लाई किया है न!’ मैंने कहा, ‘किया है सर।’ उन्होंने बताया कि ‘डॉ. नामवर सिंह ही वहां एक्सपर्ट के रूप में जा रहे हैं। मैने उनसे काफी कहा है कि आपको नौकरी की बहुत जरूरत है। शुरू में तो उन्होंने ज्यादा रुचि नहीं दिखाई, पर मेरे जोर देने के बाद अब वह तैयार हो गए हैं। आप जरूर जाइए वहां, इस बार आपकी नौकरी हो जाएगी।’ 



आने-जाने और रहने के खर्च आदि का इंतजाम कर मैं इंटरव्यू देने नैनीताल चला गया। वहां गिर्दा, पीसी तिवाड़ी और प्रदीप टम्टा जैसे मित्रों के सहयोग से एक यूथ छात्रावास में कमरा भी मिल गया था। इंटरव्यू शानदार हुआ। नामवर जी के अलावा दक्षिण के किसी विश्वविद्यालय से कोई पांडे या शर्मा जी वहां एक्सपर्ट बनकर आए थे। आधुनिक साहित्य में विशेषज्ञता वाले अभ्यर्थी के लिए यह पद था। इस नाते भी मेरा पलड़ा भारी दिख रहा था, पर सारा अंदाज गलत साबित हुआ। कुछ दिनों बाद पता चला कि वहां भी मेरी नियुक्ति नहीं हुई। किसी ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति हुई, जिसका काम मध्यकालीन साहित्य पर था। इसके बाद मैं बेहद दुखी और निराश हो गया।



नौकरी की तलाश

सन् 83 की घटना के बाद लेक्चरशिप पाने की कोशिश एक बार फिर शुरू की। मेरे साथ के कई मित्रों को लेक्चरशिप मिल गई थी। उनमें कई मेरिट के हिसाब से मुझसे नीचे थे। उनमें कइयों के अंदर शिक्षक बनने की कोई बलवती इच्छा भी नहीं दिखती थी, जबकि मेरे अंदर इलाहाबाद के दिनों से ही एक समर्थ शिक्षक बनने का सपना पलता आ रहा था। इसी सपने के चलते मैंने सिविल सर्विसेज (आईएएस-आईपीएस) की परीक्षा में बैठने की अपने बड़े भाई की सलाह मानने से इंकार कर उनकी नाराजगी मोल ली थी। वैसे भी मेरे वाम मन-मानस को सरकारी सेवा में जाना गवारा नहीं था। 



विश्वविद्यालय से निकलने के बाद भी मुझे कुछ समय तक लगता था कि कहीं न कहीं मुझे लेक्चरशिप मिल जाएगी। नामवर जी की ताकत से मैं वाकिफ था। विश्वास था कि मैनेजर पांडे जरूर उन पर दबाव बनाएंगे। दिल्ली के हर कॉलेज, विश्वविद्यालय, यहां तक कि बाहर के संस्थानों के हिंदी विभागों में स्थानीय प्रबंधन, सत्तारूढ़ राजनेताओं या नामवर जी की मंडली के प्रोफेसरों का ही दबदबा था। मैं चारों तरफ से गोल था। सिर्फ मैनेजर पांडे ही एक थे, जो जमा-जुबानी समर्थन करते थे। मेरे सामने अस्तित्व का संकट था। एक बच्चा भी अब परिवार से जुड़ चुका था।



डाउन कैंपस के उस कर्मचारी फ्लैट से हटने के बाद विकासपुरी के ए ब्लॉक में एक कमरे का सेट किराए पर लिया। गांव से परिवार भी ले आया। सन 1985 आते-आते मुझे लगने लगा कि अब लेक्चरशिप के लिए ज्यादा इंतजार ठीक नहीं। मुझे विकल्प तलाशने होंगे। नियमित रोजगार के नाम पर कुछ ठोस नहीं दिखा तो जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान, प्रतिपक्ष, युवकधारा, शान-ए-सहारा, अमर उजाला, और अमृत प्रभात जैसे पत्र-पत्रिकाओं के लिए नियमित ढंग से लिखना शुरू कर दिया। जनसत्ता, नभाटा, साप्ताहिक हिंदुस्तान, अमृत प्रभात आदि के काम से घर के किराए की राशि निकालने की कोशिश करता, जबकि प्रतिपक्ष के नियमित भुगतान से महीने भर के दूध का भुगतान हो जाया करता था। उन दिनों प्रतिपक्ष के संपादक विनोद प्रसाद सिंह थे और उसका दफ्तर था, तुगलक क्रीसेंट स्थित जॉर्ज फर्नांडीस का सरकारी बंगला। विनोद बाबू से मेरी मुलाकात संभवत: जनेवि के एक मेरे मित्र अजय कुमार ने कराई थी, जो आजकल बड़े आयकर अधिकारी हैं। प्रतिपक्ष के आखिरी पेज पर एक कॉलम छपता था, फू-नुआर का बैंड। वह खाली हो गया था। उसके लेखक शायद पत्रिका से अलग हो गए थे। उसके बाद लगभग दो साल मैंने वह कॉलम लिखा, जिसका मुझे नियमित भुगतान मिल जाता था। 



जनसत्ता में लगातार लिखने के बावजूद प्रभाष जोशी ने मुझे वहां नौकरी नहीं दी। शायद, उन्हें मेरे बारे में जो सूचनाएं मिली होंगी, उससे उन्होंने मुझे जनसत्ता में नौकरी के लायक नहीं समझा होगा। मेरी अर्जी खारिज हो गई, पर उन्हें मेरे वहां छपने से शायद कोई एतराज नहीं था। 



कुछ समय मैं पीयूसीएल की दिल्ली कमेटी में भी सक्रिय रहा। तब इंदर मोहन उसके महासचिव थे। राष्ट्रीय समिति के अध्यक्ष वी एम तारकुंडे थे। बाद में गोबिंद मुखौटी की अगुवाई में पीयूडीआर बना। फ्रीलांसिंग के इस दौर में भी जनेवि, दिल्ली विश्वविद्यालय, वाराणसी, इलाहाबाद, जयपुर, जोधपुर, उदयपुर या जामिया जैसे विश्वविद्यालयों या संबद्ध कॉलेजों के हिंदी विभागों में नियुक्तियों की कहानियां सुनता रहता था। मुझे लगता है, नामवर सिंह ने योरोपीय और अन्य विदेशी विश्वविद्यालयों के तर्ज पर योग्य छात्रों को आगे कर जनेवि या अपने प्रभाव के अन्य संस्थानों में हिंदी अध्ययन-अध्यापन को सुदृढ़ आधार देने की कोशिश की होती, तो हिंदी भाषा और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र में उनका बड़ा योगदान हो सकता था।



अपने अपने पेंच
पत्रकारिता की ऊबड़-खाबड़ जमीन पर पांव बढ़ाते हुए सन 1986 के मार्च महीने में मेरी नियुक्ति नवभारत टाइम्स में हो गई। इसके लिए अखिल भारतीय लिखित परीक्षा हुई थी। बहुत सारे युवक-युवतियां उसमें शामिल हुए थे। बताया गया कि उस लिखित परीक्षा में मुझे दूसरा स्थान मिला। वहां किसी ने मुझसे जाति आदि के बारे में पूछताछ नहीं की। अखबार के प्रधान संपादक राजेंद्र माथुर ने मुझे पटना संस्करण में रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी सौंपी।

मेरी पहली किताब बिहार का सच सन 1991 में छपी। पुस्तक का बिहार और बाहर भी स्वागत हुआ। सन 1993 में मुझे मीडिया जगत में (उन दिनों की) प्रतिष्ठित ‘टाइम्स फेलोशिप’ मिली। इसके इंटरव्यू बोर्ड में उस समय के बड़े संपादक और विचारक निखिल चक्रवर्ती, योजना आयोग के सदस्य पी एन धर, टी एन चतुर्वेदी, टाइम्स के तत्कालीन संपादक दिलीप पडगांवकर और टाइम्स गु्रप के चेयरमैन अशोक जैन सहित कई गणमान्य लोग बैठे थे।

शोध के मेरे प्रस्तावित विषय पर कई सवाल पूछे गए। किसी ने मुझसे मेरी जाति आदि के बारे में नहीं पूछा। कुछ ही दिनों बाद परिणाम निकला, पता चला किश्वर अहलूवालिया, मारूफ रजा, शैलजा वाजपेयी और मुझे इस फेलोशिप के लिए चुना गया है। बीते साल यह फेलोशिप जनेवि के ही एक पूर्व छात्र पी. साईनाथ को मिल चुकी थी। इस फेलोशिप के तहत मैंने झारखंड के संदर्भ में क्षेत्रीय विषमता पर काम किया, जो सन 1999 में झारखंड: जादुई जमीन का अंधेरा नाम से पुस्तकाकार छपा।



नामवर जी, केदार जी और पांडे जी के जनेवि स्थित ‘हिंदी के दिव्यलोक’ से पत्रकारिता की ऊबड़-खाबड़ दुनिया मुझे बेहतर लगने लगी। लेकिन पत्रकारिता में 26 साल से ज्यादा के अपने अनुभव के बाद जब पेशे में ‘ऊपर की दुनिया’ के करीब आया, तो पता चला कि यहां का अंदरूनी सच भी कुछ कम विकराल नहीं है। नामवर जी से भी ज्यादा महाबलियों की इसमें भरमार है। ज्यादा पेंचदार लोग हैं। जात-गोत्र, पारिवारिक पृष्ठभूमि, राजनीतिक सोच के अलावा बड़े राजनेताओं, कॉरपोरेट-कप्तानों से किसके कितने रिश्ते हैं, आज के मीडिया में ऊंचे पदों तक पहुंचने में इन चीजों का खासा महत्त्व हो गया है।



भारत में पत्रकारिता वाकई चौथा स्तंभ है, पर हमारे समाज और लोकतंत्र का नहीं, राजव्यवस्था का चौथा स्तंभ बनती गई है। हम लोग जिस समय पत्रकारिता में दाखिल हुए, वह इमरजेंसी के बाद का जमाना था और प्रोफेशन में जबर्दस्त उथल-पुथल थी। हिंदी में पहली बार नए ढंग के प्रयोग हो रहे थे और नई सोच को जगह मिल रही थी। जनपक्षीय सोच के ढेर सारे नौजवान पत्रकारिता में दाखिल हुए थे, लेकिन कुछ ही बरस बाद चीजें तेजी से बदलती नजर आईं। सन 95-97 के आसपास पत्रकारिता पर आर्थिक सुधार और उदारीकरण की प्रक्रिया का असर साफ-साफ दिखाई देने लगा था। सन् 2000 के बाद उसने ठोस रूप ले लिया। अब पत्रकारिता का चेहरा बिल्कुल बदल चुका है। बड़े मीडिया संस्थानों के मालिक आज खुलेआम कहते हैं कि वे खबर के नहीं, विज्ञापन के धंधे में हैं। मुख्यधारा की हिंदी पत्रकारिता तो और पिचक रही है। वह कूपमंडूकता, सरोकारहीनता, समाचार-विचार की दरिद्रता, चाटुकारिता, जातिवाद और गुटबाजी से बेहाल है।



बेहतर की बात कौन करे, राहुल बारपुते, रघुवीर सहाय और राजेद्र माथुर के जमाने की पत्रकारिता के निशान भी मिट रहे हैं। पत्रकारिता के इस मौजूदा सच से जब टकराता हूं तो छात्रजीवन के दौरान देखा एक सजग-समर्थ शिक्षक बनने का सपना याद आता है। फिर देखता हूं, मेरे सच और सपने के ठीक बीच में खड़े हैं-हिंदी के महाबली डॉ. नामवर सिंह। आशा-निराशा और सफलता-असफलता भरी दिल्ली से पटना, पटना से दिल्ली वाया चंडीगढ़ की 26 साल लंबी अपनी यात्रा पर नजर डालता हूं तो कुल-मिलाकर अच्छा लगता है। इस पेशे में आने का अफसोस नहीं होता। हिंदी क्या, संपूर्ण शैक्षणिक जगत के बड़े-बड़े महाबलियों को जो लोग इधर से उधर पदारूढ़ करते-कराते हैं, बड़े ओहदे या सम्मान देते-दिलाते हैं, एक पत्रकार के रूप में उन लोगों को भी बहुत नजदीक से देखने का मौका मिला। कैसे अचानक अपने बीच से ही कोई जुगाड़ और रिश्तों के सहारे बड़ा ओहदेदार, वाइस चांसलर, निदेशक या सीधे प्रोफेसर बन जाता है! कैसे कोई रातोंरात चैनल हेड, प्रधान संपादक, किसी कॉरपोरेट संस्थान में उपाध्यक्ष या कॉरपोरेरट-कम्युनिकेशन का चीफ, कहीं निजी या सरकारी क्षेत्र में बड़ा अधिकारी, सलाहकार या विदेश में कोई अच्छी सरकारी पोस्टिंग पा लेता है!



पत्रकारिता के इस दिलचस्प-रोमांचक रास्ते का हरेक सच मुझे उन वजहों से रू-ब-रू कराता है कि बड़ी संभावनाओं और प्रतिभाओं के बावजूद हमारा समाज क्यों दुनिया के नक्शे पर आज तक इतना फिसड्डी बना हुआ है! प्रतिभा-पलायन क्यों हो रहा है या कि एक खास मुकाम के बाद प्रतिभा-विकास का रास्ता अवरुद्ध क्यों हो जाता है! सचमुच हम ‘अतुल्य भारत’ हैं!

(उर्मिलेश वर्त्तमान में राज्यसभा टी.वी. में एंकर हैं | जो इस देश के प्रतिष्ठित शिक्षक बनाना चाहते थे |)

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