22 अक्तू॰ 2023

भारतीय राजनीती में अखिलेश यादव की भूमिका (नए गठबंधन में विशेष सहभागिता)

इंडिया  INDIA 


Indian National Developmental Inclusive Alliance, 


भारतीय राजनीती में अखिलेश यादव की भूमिका (नए गठबंधन में विशेष सहभागिता) 
भारतीय राजनीती में अखिलेश यादव की भूमिका (नए गठबंधन में विशेष सहभागिता) 

भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय स्तर पर अखिलेश यादव की भूमिका पर विचार करना जिससे उनका इंडिया गठबंधन के रोल को समझा जा सके।

आईए आपको बताते चलें कि आरंभ से ही उनका रुझान राजनीति में उत्तर प्रदेश के इर्द-गिर्द केंद्रित दिखाई देता है । क्योंकि आजमगढ़ के लोकसभा चुनाव में विजई होने के बाद कोई जरूरत नहीं थी कि वह उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव लड़ते।

इसके पीछे उनकी जो भी राजनीति रही हो उस पर बात करना उतना जरुरी नहीं है जितना जरूरी है कि उनको राष्ट्रीय स्तर पर रहकर भारतीय राजनीति में अपनी जगह बनाते, इसका कारण यह भी है कि देश में सामाजिक न्याय के नेताओं का निरंतर अभाव होता जा रहा है।


इस जगह को भरने के लिए एक-एक युवा चेहरे की जरूरत राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई दे रही है जिस जगह को वह आसानी से भर सकते हैं। उनका उस स्थान पर आना इसलिए भी जरूरी है कि उत्तर प्रदेश देश का बहुत बड़ा प्रदेश है। यहां लोकसभा की सर्वाधिक सीटें हैं।

अब सवाल यह है कि वैचारिक रूप से उनको इस कार्य के लिए तैयार कौन करें क्योंकि उत्तर प्रदेश में भी ऐसा कोई नेता नहीं है जो पार्टी को संभाल कर माननीय मुलायम सिंह जी की विरासत को ठीक-ठाक रखें। माननीय नेताजी के भाइयों में उन्होंने जिनको जिनको आगे किया उनमें जनसेवा की बजाय शक्तिशाली बनने की प्रवृत्ति घर कर गई और उसका परिणाम यह हुआ कि बदनामी ज्यादा हुई और नेकनामी कम। दूसरी तरफ समाजवादी विचारधारा के नाम पर ऐसे ऐसे लोग साथ है जो कहीं से भी न तो समाजवादी थे और न हीं हैं।  अवसरवादी और घोर सामंतवादी भी थे । पूरी पार्टी राजनीतिक स्कूल ना बनकर विचारधारा पर ना चलकर तोड़जोड़ की राजनीति पर उतर आई। 

इसी समय उसे व्यक्ति का प्रादुर्भाव हुआ जो वैचारिक रूप से सर्वाधिक बहुजनवादी सोच के थे जिनका नाम था मान्यवर कांशीराम। एक समय ऐसा आया जब कांशीराम जी से नेताजी ने गठबंधन किया और उत्तर प्रदेश में सबका सुपड़ा साफ हो गया।



जहां तक याद है जौनपुर जनपद से एक ही जाति के सर्वाधिक 6 विधायक चुने गए वह यादव जाती थी लेकिन एक बात और दस्तावे है की अन्य दो विधायक भी पिछडी़ जातियों से ही चुने गए जिनमें एक कर्मी और एक कोईरी जाति से थे दोनों आरक्षित सीटों से दलित भाई तो छूने ही गए थे। इस तरह से एक जनपद की सारी 10 सीट में बहुजन समाज के हिस्से आई। यह थी राजनीतिक चेतना। लेकिन इतनी बड़ी चेतना के उपरांत जिन-जिन लोगों का चुनाव हुआ वह सब बुद्धि के हिसाब से इतने कंगाल थे की खुद को बड़ा बनाने में सारी विचारधारा को मटिया मीत तो किया ही किया आगे चलकर बहन जी ने मान्यवर कांशीराम का जो हाल किया वह किसी से छुपा नहीं है नेताजी अलग हो गए और फिर ढाक के तीन पात।

लेकिन यह बात बनी रहेगी इन दोनों पार्टियों का वर्चस्व इतना बढ़ गया था की बारी-बारी से उत्तर प्रदेश की सत्ता में यही आ रहे थे। 2012 तक यही सब चलता रहा जब 2012 की चुनाव में बसपा को हराकर समाजवादी पार्टी सत्ता में आई तो माननीय नेताजी ने अपने परिवार से अपने पुत्र को मुख्यमंत्री के लिए चुना जो उसे समय देश की संसद का प्रतिनिधित्व करते थे।

हम सब लोग इसके पक्ष में थे कि उनके बाद उनकी राजनीतिक विरासत उनके भाइयों की बजाय उनके पुत्र के हाथ में आए जो उस समय हुआ। जब यह मुख्यमंत्री बने उसे समय यह देश के सबसे युवा मुख्यमंत्री थे। नेताजी का संरक्षण था और उनके परिवार का अंतर्विरोध भी। इस समय प्रदेश के सभी समाजवादी नेताओं ने बहुत ही जिम्मेदारी से काम करते हुए एक ऐसे व्यक्ति के अतिवाद से दुखी थे इसका नाम था अमर सिंह, अमर सिंह का प्रभाव इस समय तक समाजवादी पार्टी पर इतना बढ़ गया था कि ऐसे लगता था जैसे सब कुछ अमर सिंह की वजह से हो रहा है। हालांकि अमर सिंह का प्रवेश जब नेताजी बहुजन समाज पार्टी के साथ की जीत के साथ सत्ता में आए थे तो लगभग आ गए थे।

यहां यह बहुत महत्वपूर्ण है जान लेना कि जब उत्तर प्रदेश में बहुजन नेताओं की सरकार बनी थी तो नागपुर में बैठे संघ के लोगों का दिमाग ठनक गया था कि देश में बहुजन सोच की आवाम जाग गई है और अब वह दिन दूर नहीं है जब पूरी देश की सत्ता पर उसका अधिकार हो जाएगा इसको उन्होंने जनता दल के समय भी भांप लिया था।
हालांकि जनता पार्टी में जब वह आए थे तब उनको लगने लगा था कि कहीं ना कहीं देश में बहुजन ताकतें मजबूत हो जाए और सत्ता में बैठे हुए लोग सत्ता से एग्जिट हो जाएं। उन्होंने इस मिशन पर काम करना शुरू कर दिया और एक नकली ओबीसी लाकर 2014 में देश के सामने बहुत बड़ा बहरूपिया सवाल खड़ा कर दिया की उनका नेता पिछड़े समाज का है। इसका पूरा प्रयोग उन्होंने भारतीय राजनीति को अपनी और मोड़ने में बहुत ही होशियारी के साथ सत्ता पर काबिज होने की कामयाबी भी हासिल कर ली।

यह वही दौर था जब उत्तर प्रदेश में माननीय अखिलेश यादव जी 2012 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में विराजमान थे। संघ के लोगों को यह बहुत साफ तौर पर दिखाई देने लगा था कि जिस कांग्रेस के खिलाफत परिवारवाद के नाम पर यह नेता कर रहे थे वह अब अपने परिवारों को जोड़ने में वही काम कर रहे हैं जिसका वह विरोध कर रहे थे। हालांकि प्रदेश में उसे समय समाजवादी नेताओं की कमी नहीं थी जिसमें प्रमुख रूप से मोहम्मद आजम खान के साथ-साथ और कई ऐसे नाम थे जो समाजवादी राजनीति के लिए ईमानदार थे। लेकिन जो कुछ हुआ वह किसी से छुपा नहीं है।

अब सवाल यह है कि प्रदेश की राजनीति में उसे समय कितने तरह के खेल किए गए जिसकी वजह से 2017 में माननीय नेताजी के सामने ही उनका परिवार आपस में लड़ रहा था राम गोपाल जी की वजह से माननीय शिवपाल जी पार्टी छोड़ गए थे। इस समय तक उनके परिवार के बहुत सारे नेता उदित हो गए थे जिनका समाज से कोई लेना-देना नहीं था और ना ही समाजवाद से।

मेरे हिसाब से जिस परिवार को राजनीतिक रूप से नेताजी से सीख लेनी चाहिए थे उन लोगों ने उनसे सीख लेने की बजाय बाहर के सामंती स्वरूप को नेताजी के इर्द-गिर्द खड़ा करने की कोशिश की जितनी भी बुराइयां आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक उस परिवार में आ सकती थी नाचते गाते हुए आईं।

यही कारण था कि उनके समय में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक हिस्से में बहुत बड़ा हिंदू मुस्लिम फसाद हुआ जिसको अंजाम देने वालों में उनके यहां बैठे संघ के अधिकारी और इनके साथी शरीक थे। 2014 में जब केंद्र की सत्ता में गुजरात से चलकर नरेंद्र मोदी पिछड़े के रूप में देश की गद्दी पर बैठे, तब सफाई में एक पारिवारिक आयोजन में प्रधानमंत्री के रूप में श्री नरेंद्र मोदी की उपस्थित हुई जिसमें तत्कालीन बिहार के मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के पुत्री की शादी के किसी कार्यक्रम का अवसर था।



निश्चित रूप से यह समाजवादी राजनीति और सैफई परिवार के लिए सबसे घातक दौर था जिसका उसे समय भी समझदार लोगों को एहसास हो गया था। अब सत्ता में बैठी वैचारिक रूप से बहुजन विरोधी ताकते को इन राजनेताओं के ऊपर नजर रखने की पूरी मशीनरी हाथ में थी। कांग्रेस में बैठा हुआ संघी भी इस बात को अच्छी तरह से समझ रहा था कि जब तक इन क्षेत्रीय छत्रपों को ठीक नहीं किया जाएगा तब तक सत्ता में फिर से ब्राह्मणवाद को पटरी पर लाना संभव नहीं होगा। दोनों ताकतों ने मिलकर अलग-अलग कोनों से इस वैचारिक सामाजिक सांस्कृतिक और आर्थिक केंद्रों पर हमला करना शुरू कर दिया।

माननीय नेताजी निहायत खांटी किस्म के समाजवादी थे उनकी मदद समय-समय पर उनके व्यवसाय मित्र किया करते थे जो अपने श्रम और बुद्धि से अनेकों तरह के व्यवसाय में लिप्त थे ऐसे लोग पूरे देश में फैले हुए थे।
जहां तक मुझे याद है मैंने एक बार उनके पार्टी के लोगों की लूट की तरफ उंगली उठाई थी तब उन्होंने यह कहते हुए मुझे चुप कर दिया था की राजनीति में पैसे की बहुत जरूरत पड़ती है जिसका इंतजाम अब उनके घर के लोग ही कर रहे थे इसमें विशेष रूप से मानने से शिवपाल जी को मैंने चिन्हित किया था।

बात आई गई हो गई मेरा भी आना जाना काम हो गया और मैं अपने रचनात्मक कार्य में लग गया जबकि 1988 से लेकर नेताजी के संपर्क में आने का अवसर मिला था और मिलने जुलने के निरंतरता बनी हुई थी। 

अब आते हैं वर्तमान परिदृश्य में जब नए सिरे से माननीय अखिलेश जी संघ के अजेंडे पर फिर से आ गए हैं जग जाहिर है कि कांग्रेस में संघ का बहुत बड़ा विस्तार है इसके बहुत सारे लोग वहां पर मौजूद हैं। उनके इर्द-गिर्द भी संघ के लोग मौजूद हैं जो राजनीतिक रूप से इनको कमजोर करने में निरंतर काम कर रहे हैं इसका उदाहरण दो बिंदुओं से स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है पहला लौटन राम निषाद का और दूसरा स्वामी प्रसाद मौर्य का।  इन दो व्यक्तियों की वैचारिकी से समाजवादी पार्टी और बसपा का विकल्प वर्तमान की समाजवादी पार्टी बन सकती थी जिसमें काशीराम की वैचारिकी होती और माननीय नेताजी की पकड़। परंतु समाजवादी पार्टी ने इन दोनों नेताओं को अपने तरीके से सेट कर दिया और उनके इर्द-गिर्द ऐसे छुटभैये जो संघी विचारधारा के पोशक है घेरे हुए रहते हैं।

अब सवाल यह है कि सामाजिक सांस्कृतिक और आर्थिक पहलू को इतना कमजोर कर दिया गया है जिसकी वजह से राजनीतिक धारा ही बदल गई है जिन राजनीतिज्ञों में साहस हुआ करता था किसी भी असंवैधानिक और जन विरोधी नीति के खिलाफ सड़क पर आ जाते थे आज वह दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते यहां तक के चुप रहते हैं और विरोध प्रदर्शन के किसी भी माध्यम का उपयोग नहीं करते।

इसके पीछे घोषित निरंकुशता और तानाशाही का नियंत्रण दिखाई देता है जिसको आज के आम जन महसूस करते हैं कि आज अघोषित आपातकाल चल रहा है जिसमें अपने हर उसे विरोधी को बंद कर दिया जा रहा है या नजरबंद कर दिया जा रहा है।


इन्हीं सब परिस्थितियों के प्रतिरोध में देश के तमाम विपक्षी दलों ने एक साथ मिलकर इंडिया गठबंधन बनाकर भारतीय संविधान बढ़ाने की और केंद्र से ही नहीं प्रदेशों से भी सामंती व्यवस्था के सोच की संघी सरकारों को हटाने का एक संकल्प किया है जो पटना और बैंगलोर के साथ-साथ मुंबई की मीट में स्पष्ट रूप से दिखाई दिया है।

उनके इस इंडिया रूपी संगठन के सामने सत्ता में बैठी हुई सरकार को यह साफ दिखाई देने लगा है कि अब उनका मुकाबला देश की बहुत ही ताकतवर शक्ति से होने वाला है जिसको वह रणभूमि में परास्त नहीं कर पाएंगे जिससे उनमें बहुत बेचैनी छाई हुई है अब उन्होंने इंडिया शब्द पर ही सवाल खड़ा कर दिया है जबकि उन्होंने इंडिया शब्द का इस्तेमाल अपने राजनीतिक प्रचार प्रसार के लिए बखूबी किया है और कर रहे हैं।

इंडिया मीट के उपरांत केंद्र की सत्ता ने अनेको हथकंडे के माध्यम से इनका आपस में तोड़ने का निरंतर प्रयास जारी रखा है। इसी बीच विभिन्न प्रदेशों में राज्य स्तरीय चुनाव भी हो रहे हैं उन्हीं चुनावों के मद्दे नजर एक तरह की तू तू मैं में शुरू हो गई है जो भविष्य की राजनीती के लिए नामाकूल है। 


कोई टिप्पणी नहीं:

फ़ॉलोअर